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14/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि
___ कुछ विद्वान केवल आधार-सामग्री के संगठन, विश्लेषण, विवेचन एवं प्रस्तुतिकरण से सम्बन्धित पद्धतियों तक ही अनुसंधान-प्रविधि के क्षेत्र का विस्तार मानते हैं, किन्तु यह प्रविधि की अपूर्णता ही मानी जाएगी। जब तक अनुसंधान-कर्ता को प्रशिक्षण नहीं मिलेगा, शोध-कार्य में उसकी प्रवृत्ति नहीं होगी तथा वह अपने प्रयोजन को नहीं समझेगा, तब तक अनुसंधान की लम्बी यात्रा सफल नहीं हो सकेगी। आजकल प्रायः यह देखा जाता है कि स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करते ही हर विद्यार्थी उपाधि-परक अनुसंधान में लग जाना चाहता है । न वह अनुसंधान के अर्थ को समझने की प्रक्रिया से गुजरता है, न अन्य कोई प्रशिक्षण प्राप्त करता है और न उसमें शोध की वास्तविक प्रवृत्ति ही होती है । कई ऐसे शोधार्थी मिलते हैं, जो विषय का पंजीकरण कराने तक उत्साह दिखाते हैं और उसके पश्चात् इधर-उधर से बनी-बनाई सामग्री एकत्र करके एक पोथा टंकित करा देना चाहते हैं तथा उपाधि जल्दी मिल जाए, इसके लिए लालायित रहते हैं। उनका प्रयोजन सत्यान्वेषण कम होता है, उपाधि प्राप्त करके लाभ अर्जित करना अधिक । ऐसे शोधार्थियों के लिए किसी भी अनुसंधान-प्रविधि का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
__ जब शोधार्थी को किसी सत्य तक पहुंचने की तीव्र आकाँक्षा होती है, तभी वह शोध-विषय की सही अवधारणा कर पाता है और तभी उसकी शोध-यात्रा को सही दिशा मिलती है। प्रसिद्ध विद्वान् ग्राहम का मत है कि अनुसंधान शास नियमों के उस संग्रह का नामकरण है,जिन नियमों से सांसारिक ज्ञान का सुचारू पद्धति से निर्माण होता है और उस ज्ञान के सत्य का परीक्षण करने के लिए अनुशीलन किया जाता है । वस्तुतः प्राप्त ज्ञान और सत्य की प्राप्ति मात्र पर्याप्त नहीं है। यह स्थापित करना भी आवश्यक होता है कि कोई वस्तु या उपलब्धि सत्य क्यों है और उसकी सत्यता की पहचान किस आधार पर की जा सकती है ? केवल अनुसंधानकर्ता के संतोष के लिए शोध-कार्य नहीं होता। वह बिन तथ्यों तथा निष्कों को सत्य मानता है, उनके प्रति हर जिज्ञासु को सन्तुष्ट करना भी उसका दायित्व होता है। किन्तु यह कार्य तभी हो सकता है, जब वह अपने मत के प्रतिपादन के लिए पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत करे और वे प्रमाण ऐसे हों जिनके प्रति किसी प्रकार के संदेह की दृष्टि न उठ सकें।
शोधकर्ता को यह नहीं भूलना चाहिए, अनुसंधान की प्रविधि ऐसी होती है, जो सदैव नवीन तथ्यों की ओर उसे अग्रसर होती है। यदि उसे ऐसा प्रतीत होने लगे कि वह नवीन तथ्यों की ओर अग्रसर नहीं हो रहा है,तो उसे स्पष्ट समझ लेना चाहिए. के वह जिस शोध-पद्धति का सहारा ले रहा है वह पर्याप्त और उपयुक्त नहीं है। वस्तुतः तथ्यों की ओर बढ़ने के लिए यह आवश्यक होता है कि उसके कार्य के विषय में जो भी प्रश्न उठे, उनका समाधान उसके पास हो तथा ऐसी स्थिति भी बनी रहे कि प्रत्येक समाधान नये प्रश्नों को जन्म दे एवं एक दिशा-विशेष में उसके कार्य को ले जाए।
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