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अनुसंधान की उपयोगिता/7 क्षेत्र में अकाल पड़ रहा है, लोग पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहे हैं, चारों ओर धूल उड़ रही है, हरियाली का कहीं नामो-निशान नहीं है, पक्षी गर्मी से झुलस-झुलस कर सूखे पेड़ों का आश्रय छोड़ या तो कहीं चले गये हैं या मर कर सूखे पत्तों की तरह भूमि पर गिर गये हैं, तब उस आलोचक का मत बदल जाता है। वह उस कविता के विषय में अनेक प्रश्न खड़े कर देता है और उसके कलात्मक मूल्य को चुनौती देने लगता है । वास्तव में यही शोध-दृष्टि आलोचना को सही दिशा में आगे बढ़ाती है । इसलिए हम यह कह सकते हैं कि आलोचना को विश्वसनीय बनाने के लिए शोध की बहुत उपयोगिता है।
यों शोध का कार्य बहुत नीरस है जबकि रचना और आलोचना में बहुत सरसता होती है, लेकिन शोध की नीरसता के बिना रचना और आलोचना की सरसता जीवित नहीं रह सकती। शोध से रचना के मूल में छिपे आनंद तक हम पहुँचते हैं। आलोचना को किसी मर्म तक शोध के द्वारा ही पहुँचाया जा सकता है। कोई भी रचना सीधे-सीधे सामान्य शब्दों से नहीं बनती, कवि या लेखक लक्षण और व्यंजना का सहारा लेकर वक्र (टेढ़े) ढंग से अपनी बात कहता है । इस वक्रता को समझे बिना कोई भी पाठक केवल ऊपरी तौर पर ही आनंद ले सकता है, लेकिन जब भाव की गहराई तक पहुँचने के लिए उस वक्रता की पहचान की जाती है,तब रचना का ऐसा स्वाद मिलता है, जो हृदय और मस्तिष्क पर स्थायी प्रभाव डालता है। इसलिए शोध की उपयोगिता को भुलाया नहीं जा सकता।
साहित्य के विषय अनेक प्रकार के होते हैं। ये विषय ऐसे भी हो सकते हैं, जो बहुत पुराने हों और ऐसे भी हो सकते हैं, जो एकदम नये हों । यहाँ तक कि ऐसे विषय भी हो सकते हैं, जिनकी अभी केवल कल्पना ही की गई हो तथा भविष्य में ही उनका स्वरूप सामने आये । शोध के बिना इन सभी प्रकार के विषयों को समझना या समझ पाना संभव नहीं। समय की सीमा पार करके शोधकर्ता उन विषयों के रहस्य खोलता है और तभी उनका सही अर्थ प्रकाश में आता है, इसलिए भी शोध की उपयोगिता सिद्ध है।
साहित्य की दीवार भाषा पर खड़ी है। विशेष भाषा का प्रयोग करके ही. साहित्यकार अपनी रचना में कोई अर्थ भर सकता है। सामान्य भाषा साहित्य नहीं बन सकती। जब भाषा के विशेष प्रयोग की ओर कोई कवि या लेखक बढ़ता है, तब उसके हर शब्द के पीछे उसके मन की एक भूमिका रहती है। शोधकर्ता इस भूमिका को स्पष्ट करता है और तभी पाठक एवं आलोचक भी रचना को सही ढंग से समझ पाते हैं। इस बात को यों भी कहा जा सकता है कि शोध के द्वारा हम रचना करने वाले की भाषा के सही प्रयोग तक पहुँचते हैं। यदि ऐसा न हो तो रचना और रचनाकार दोनों के प्रति अन्याय होने का खतरा बराबर बना रहता है । एक उदाहरण लीजिए- जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है
अरे अमरता के चमकीले पुतले ! तेरे वे जयनाद ।
और
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