Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 12
________________ अनेकान्त/55/1 इसलिए कानजी स्वामी को अपनी पोजीशन और भी स्पष्ट कर देने की जरूरत है। जहाँ तक मैं समझता हूँ कानजी महाराज का ऐसा कोई अभिप्राय नहीं होगा जो उक्त चौथे जैन सम्प्रदाय के जन्म का कारण हो, परन्तु उनकी प्रवचन-शैलीका जो रुख चल रहा है और उनके अनुयायियों की जो मिशनरी प्रवृत्तियाँ आरम्भ हो गई हैं और न भविष्य में वैसी सम्प्रदाय की सृष्टि को ही अस्वाभाविक कहा जा सकता है। अत: कानजी महाराज की इच्छा यदि सचमुच चौथे सम्प्रदाय को जन्म देने की नहीं है, तो उन्हें अपने प्रवचनों के विषय में बहुत ही सतर्क एवं सावधान होने की जरूरत है- उन्हें केवल वचनों द्वारा अपनी पोजीशन को स्पष्ट करने की ही जरूरत नहीं है, बल्कि व्यवहारादि के द्वारा । ऐसा सुदढ़ प्रयत्न करने की भी जरूरत है जिससे उनके निमित्त को पाकर वैसा चतुर्थ सम्प्रदाय भविष्य में खड़ा न होने पावे, साथ ही लोक-हृदय में जो आशंका उत्पन हुई है वह दूर हो जाय और जिन विद्वानों का विचार उनके विषय में कुछ दूसरा हो चला है वह भी बदल जाए। __ आशा है अपने एक प्रवचन के कुछ अंशो पर सद्भावनाको लेकर लिखे गये इस आलोचनात्मक लेख पर कानजी महाराज विशेष रूप से ध्यान देने की कृपा करेंगे और उसके सत्फल उनके स्पष्टीकरणात्मक वक्तव्य एवं प्रवचन-शैली की समुचित तब्दीली के रूप में शीघ्र ही दृष्टिगोचर होगा। समन्वय वाणी-फरवरी 2002 में प्रकाशित समाचार कि देवलाली में मुमुक्ष मण्डल की बैठक में निर्णय लिया गया कि कहान पथी मुमुक्ष समाज में एकता स्थापित कर दिगम्बर जैन समाज से समन्वय करने के लिए एक समिति का गठन किया जाय। इससे स्पष्ट हुआ कि मुमुक्ष मण्डलों में मत भेद है तथा वे स्वयं को दिगम्बर जैन समाज से पृथक मानते हुए अब दिगम्बर जैन समाज से समन्वय करने के लिए प्रयत्नशील हैं। उनके उक्त निर्णय से ध्वनित होता है कि आचार्य पं. जुगल किशोर जी मुख्तार ने अर्द्धशति पूर्व जो शंका व्यक्त की थी कि "कहीं यह चौथा सम्प्रदाय तो कायम होने नहीं जा रहा है" वह शत प्रतिशत यथार्थ थी।

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