Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 11
________________ अनेकान्त/55/1 है और इसीलिए उनका अपनी कार्य-सिद्धि के लिए कुन्दकुन्दादि की दुहाई देना प्रायः वैसा ही समझा जाने लगा है जैसा कि कांग्रेस सरकार गांधीजी के विषय में कर रही है- वह जगह-जगह गांधीजी की दुहाई देकर और उनका नाम ले-लेकर अपना काम तो निकालती है परन्तु गांधीजी के सिद्धान्तों वस्तुतः मान देती हुई नज़र नहीं आती। कानजी स्वामी और उनके अनुयायियों की प्रवृत्तियों को देख कर कुछ लोगों को यह भी आशंका होने लगी है कि कहीं जैन समाज में यह चौथा सम्प्रदाय तो कायम होने नहीं जा रहा है, जो दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकवासी सम्प्रदायों की कुछ-कुछ ऊपरी बातों को लेकर तीनों के मूल मे ही कुठाराघात करेगा और उन्हें आध्यात्मिकता के एकान्त गर्त में धकेल कर एकान्त मिथ्यादृष्टि बनाने में यत्नशील होगा; श्रावक तथा मुनिधर्म के रूप में सच्चारित्र एवं शुभ भावों का उत्थापन कर लोगों को केवल 'आत्मार्थी' बनाने की चेष्टा में संलग्न रहेगा; उसके द्वारा शुद्धात्माके गीत तो गाये जायंगे परन्तु शुद्धात्मा तक पहुँचने का मार्ग पास में न होने से लोग "इतो भ्रष्टास्ततो भ्रष्टाः' की दशा को प्राप्त होंगे; उन्हें अनाचार का डर नहीं रहेगा, वे समझेंगे कि जब आत्मा एकान्ततः अबद्ध स्पृष्ट है- सर्व प्रकार के कर्म-बन्धनों से रहित शुद्ध-बुद्ध है और उस पर वस्तुतः किसी भी कर्म का कोई असर नही होता, तब बन्धन से छूटने तथा मुक्ति प्राप्त करने का यल भी कैसा? और पापकर्म जब आत्माका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकते तब उनमें प्रवृत्त होने का भय भी कैसा? पाप और पुण्य दोनों समान, दोनों ही अधर्म, तब पुण्य जैसे कष्ट-साध्य कार्य में कौन प्रवृत्त होना चाहेगा? इस तरह यह चौथा सम्प्रदाय किसी समय पिछले तीनों सम्प्रदायों का हित-शत्रु बन कर भारी संघर्ष उत्पत्र करेगा और जैन समाज की वह हानि पहुँचाएगा जो अब तक तीनों सम्प्रदायों के संघर्ष-द्वारा नहीं पहुँच सकी है; क्योंकि तीनो में प्राय: कुछ ऊपरी बातों में ही संघर्ष है- भीतरी सिद्धान्त की बातों में नहीं। इस चौथे सम्प्रदाय के द्वारा तो जिन शासन का मूल रूप ही परिवर्तित हो जायगा-वह अनेकान्त के रूप में न रह कर आध्यात्मिक एकान्तका रूप धारण करने के लिये बाध्य होगा। यदि यह आशंका ठीक हुई तो निःसन्देह भारी चिंता का विषय है और

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