Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 10
________________ अनेकान्त/55/1 कर रहे हैं; क्योंकि शुद्ध भाव छद्मास्थावस्था में सदा स्थिर नहीं रहता कुछ क्षण में उसके समाप्त होते ही दूसरा भाव आएगा, वह भाव यदि धर्म की मान्यता के निकल जाने से शुभ नहीं होगा तो लोगों को अनादिकालीन कुसंस्कारों के वश अशुभ में ही प्रवृत्त होना पड़ेगा। ___ अब यहाँ एक प्रश्न और पैदा होता है वह यह कि जब कानजी महाराज पूजादि के शुभ राग को धर्म नहीं मानते तब वे मन्दिर मूर्तियों तथा मानस्तम्भादि के निर्माण में और उनकी पूजा-प्रतिष्ठा के विधान में योग क्यों देते हैं? क्या उनका यह योगदान उन कार्यो को अधर्म एवं अहितकर मानते हए किसी मजबूरी के वशव” है? या तमाशा देखने-दिखलाने की किसी भावना से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करके उनमें अपने किसी मत-विशेष के प्रचार करने की दृष्टि प्रेरित है? यह सब एक समस्या है, जिसका उनके द्वारा शीघ्र ही हल होने की बड़ी जरूरत है। जिससे उनकी कथनी और करनी में जो स्पष्ट अन्तर पाया जाता है उसका सामंजस्य किसी तरह बिठलाया जा सके। उपसंहार और चेतावनी कानजी महाराज के प्रवचन बराबर एकान्त की ओर ढले चले जा रहे है और इसमे अनेक विद्वानों का आपके विषय में अब यह खयाल हो चला है कि आप वास्तव में कुन्दकुन्दाचार्य को नहीं मानते और न स्वामी समन्तभद्र जैसे दूसरे महान् जैन आचार्यों को ही वस्तुत: मान्य करते हैं, क्योंकि उनमें से कोई भी आचार्य निश्चय तथा व्यवहार दोनों में से किसी एक ही नय के एकान्त पक्षपाती नहीं हुए हैं; बल्कि दोनों नयोंको परस्पर साक्षेप, अविनाभाव सम्बन्धको लिये हुए एक दूसरे के मित्र-रूप में मानते तथा प्रतिपादन करते आये हैं जब कि कानजी महाराज की नीति कुछ दूसरी ही जान पड़ती है। वे अपने प्रवचनों में निश्चय अथवा द्रव्यार्थिकनय के इतने एकान्त पक्षपाती बन जाते हैं कि दूसरे नय के वक्तव्य का विरोध तक कर बैठते हैं-उसे शत्रु के वक्तव्यरूप में चित्रित करते हुए 'अधर्म' तक कहने के लिए उतारू हो जाते हैं। यह विरोध ही उनकी सर्वथा एकान्तता को लक्षित कराता है और उन्हें श्री कुन्दकुन्द तथा स्वामी समन्तभद्र जैसे महान् आचार्यों के उपासकों की कोटि से निकाल कर अलग करता है अथवा उनके वैसा होने में सन्देह उत्पन्न करता

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