Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 8
________________ अनेकान्त/55/1 के सरागचारित्र को ही उससे पृथक् किया जा सकता है। ये सब उसके अंग हैं, अंगों से हीन अंगी अधूरा या लेडूरा होता है, तब कानजी स्वामी का उक्त कथन जिनशासन के दृष्टिकोण से कितना बहिर्भूत एवं विरुद्ध है उसे बतलाने की जरूरत नहीं रहती। खेद है उन्होंने पूजा-दान-व्रतादिक के शुभ भावों के धर्म मानने तथा प्रतिपादन करने वालों को "लौकिकजन" तथा "अन्यमती" तो कह डाला, परन्तु यह बतलाने की कृपा नहीं की कि उनके उस कहने का क्या आधार है-किसने कहां पर वैसा मानने तथा प्रतिपादन करने वालों को "लौकिक जन" आदि के रूप में उल्लेखित किया है? जहां तक मुझे मालूम है ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार में 'लौकिकजन' का जो लक्षण दिया है वह इस प्रकार है: णिग्गंथो पव्वइदो वदृदि जदि एहिगोहं कम्मेहि। सो लोगिगो त्ति भणिदो संजम-तव-संजुदो चावि।३-६९ इसमें आचार्य जयसेन की टीकानुसार, यह बतलाया गया है कि- 'जो वस्त्रादि परिग्रह का त्यागकर निर्ग्रन्थ बन गया और दीक्षा लेकर प्रव्रजित हो गया है ऐसा मुनि यदि ऐहिक कार्यों में प्रवृत्त होता है अर्थात् भेदाभेदरूप रत्नत्रयभाव के नाशक ख्याति-पूजा-लाभ के निमित्तभूत ज्योतिष-मंत्रवाद और वैद्यकादि जैसे जीवनोपाय के लौकिक कर्म करता है, तो वह तप-संयम से युक्त हुआ भी 'लौकिक' (दुनियादार) कहा गया है। इस लक्षण के अन्तर्गत वे आचार्य तथा विद्वान् कदापि नहीं आते जो पूजा-दान-व्रतादि के शुभ भावों को 'धर्म' बतलाते हैं। तब कानजी महाराज ने उन्हें 'लौकिक जन' ही नहीं, किन्तु 'अन्यमती' तक बतलाकर जो उनके प्रति गुरुतर अपराध किया है। उसका प्रायश्चित उन्हें स्वयं करना चाहिए। ऐसे वचनाऽनय के दोष से दूषित निरर्गल वचन कभी-कभी मार्ग को बहुत बड़ी हानि पहुँचाने के कारण बन जाते है। शुद्धभाव यदि साध्य है तो शुभभाव उसकी प्राप्ति का मार्ग है-साधन है। साधन के बिना साध्य की प्राप्ति नहीं होती, फिर साधन की अवहेलना कैसी? साधनरूप मार्ग ही जैन तीर्थंकरों का तीर्थ है, धर्म है, और उस मार्ग का निर्माण व्यवहारनय करता है। शुभभावों के अभाव में अथवा उस मार्ग के कटजाने पर कोई शुद्धत्व को प्राप्त नहीं होता।Page Navigation
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