Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 7
________________ अनेकान्त/55/1 यहां पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने शुद्धोपयोगी तथा शुभोपयोगी दोनों प्रकार के श्रमणों (मुनियों) को जैन-धर्म-सम्मत माना है। जिनमें से एक अनास्रवी और दूसरा साम्रवी होता है, अर्हन्तादि में भक्ति और प्रवचनाभियुक्तों में वत्सलता को मुनियों की शुभचर्या बतलाया है; शुद्धोपयोगी श्रमणों के प्रति वन्दन, नमस्करण, अभ्युत्थान और अनुगमन द्वारा आदर-सत्कार की प्रवृत्ति को, जो सब शुद्धात्मवृत्ति के संत्राण की निमित्त-भूत होती है सरागचारित्र की दशा में मुनियों की चर्या में सम्यग्दर्शन-ज्ञान के उपदेश, शिष्यों के ग्रहण-पोषण और जिनेन्द्र पूजा के उपदेश को भी विहित बतलाया है। साथ ही यह भी बतलाया है कि जो मुनि काय-विराधना से रहित हुआ नित्य ही चातुर्वर्ण्य श्रमण संघ का उपकार करता है वह प्रधानता को लिए हुए श्रमण होता है, परन्तु वैयावृत्त्य में उद्यमी हुआ मुनि यदि काय-खेद को धारण करता है तो वह श्रमण नहीं रहता, किन्तु गृहस्थ (श्रावक) बन जाता है; क्योंकि उस रूप में वैयावृत्त्य करना श्रावकों का धर्म है; जैसा कि प्रवचनसार की निम्न गाथाओं से प्रकट है: समण सुद्धवजुत्ता य होंति समयम्हि। तेसु वि सुद्धमजुत्ता अणासवा सासवा सेसा॥३-४५॥ अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु। विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया।।४६॥ वंदण-णमंसरेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती। समणेसु समावण ओ ण णिदिदा रायचरियम्हि॥४७॥ दंसण-णाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं। चरिया हि सरागाणं जिणिंदपूजोवदेसो य॥ ४८॥ उवकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स कायविराधणरहिंदं सो वि सरागप्पधाणो सो॥४९॥ जदि कुणदि कायखेदं वेज्जाविज्जत्थमुज्जदो समणो। ण हवदि, हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से॥५०॥ श्री कुन्दकुन्दाचार्य के इन वचनों से स्पष्ट है कि जैन-धर्म या जिनशासन से शुभ भावों को अलग नहीं किया जा सकता और न मुनियों तथा श्रावकों -४५॥Page Navigation
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