Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 6
________________ अनेकान्त/55/1 पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो॥ ८३॥ __इस गाथा में पूजा-दान-व्रतादिक के धर्ममय होने का कोई निषेध नहीं, 'पुण्णं' पद के द्वारा उन्हें पुण्य प्रसाधक धर्म के रूप में उल्लेखित किया गया है। धर्म दो प्रकारका होता है- एक वह जो शुभ भावों के द्वारा पुण्य का प्रसाधक है और दूसरा वह जो शुद्ध भावों के द्वारा अच्छे या बुरे किसी भी प्रकार के कर्मास्रव का कारण नहीं होता। प्रस्तुत गाथा में दोनों प्रकार के धर्मों का उल्लेख है। यदि श्री कुन्द-कुन्दाचार्यकी दृष्टि में पूजा दान व्रतादिक धर्म कार्य न होते तो वे रयणसार की निम्न गाथा में दान तथा पूजा की श्रावकों का मुख्य धर्म और ध्यान तथा अध्ययन को मुनियों का मुख्य धर्म न बतलातेदाणं पूजामुक्खं सावयधम्मो ण सावगो तेण विणा झाणाज्झयणं मुक्खं जइधम्मो तं विणा सोवि॥११॥ और न चारित्रप्राभूत की निम्नगाथा में अहिंसादिव्रतों के अनुष्ठानरूप संयमाचरण को श्रावक धर्म तथा मुनिधर्म का नाम ही देते एवं सावयधम्म संजमचरणं उदेसियं सयलं। सुद्धं संजमचरणं जइधर्म णिक्कलं वोच्छे॥२६॥ उन्होंने तो चारित्रप्राभृत के अन्त में सम्यक्त्व-सहित इन दोनों धर्मों का फल अपनर्भव (मुक्त-सिद्ध) होना लिखा है। तब वे दान-पूजा-व्रतादिक को धर्म की कोटि से अलग कैसे रख सकते हैं? यह सहज ही समझा जा सकता स्वामी समन्तभद्र ने अपने समीचीन धर्मशास्त्र (रत्नकरण्डश्रावकाचार) में "सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः' इस वाक्य के द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र को वह समीचीन धर्म बतलाया। जिसे धर्म के ईश्वर तीर्थकरादिकों ने निर्दिष्ट किया है, उस धर्म की व्याख्या करते हुए सम्यक्चारित्र के वर्णनमें 'वैयावृत्त्य' को शिक्षाव्रतों में अन्तर्भूत धर्म का एक अंग बतलाया है, जिसमें दान तथा संयमियों की अन्य सब सेवा और देव-पूजा ये तीनों शमिल हैं; जैसा कि उक्त ग्रन्थ के निम्न वाक्यों से प्रकट है:

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