Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 4
________________ 6934 श्री महावीर - स्तवन प्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताऽभयप्रदम् । मांगल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥ जगत्रैका युगपदखिलाऽनन्तविषयं, यदेतत्प्रत्यक्षं तव न च भवान् कस्यचिदपि । अनेनैवाऽचिन्त्य-प्रकृति-रस- सिद्धेस्तु विदुषां समीक्ष्यैतद्द्वारं तवगुण कथोत्कावयमपि ॥ नाऽर्थान् विवित्ससि न वेत्स्यसि ना, ऽप्यवेत्सीर्न ज्ञातवानसि न तेऽच्युत! वेद्यमस्ति । त्रैकाल्य- नित्य-विषमं युगपच्च विश्वं पश्यस्यचिन्त्य - चरिताय नमोऽस्तु तुभ्यम् ॥ दूरामाप्तं यदचिन्त्य - भूतिज्ञानंत्वया जन्मजराऽन्तकर्तृ । तेनाऽसि लोकानभिभूय सर्वान्सर्वज्ञ ! लोकोत्तमतामुपेतः ॥ क्रियां च संज्ञान-वियोग-निष्फलां क्रियाविहीनं च विबोधसंपदम् । निरस्यता क्लेशसमूह - शान्तये त्वया शिवाया लिखितेव पद्धतिः ।। य एव षड्जीव - निकाय-विस्तरः परैरनालीढ पथस्त्वयोदितः । अनेक सर्वज्ञ-परीक्षण क्षमास्त्वयि प्रसादोदय सोत्सवाः स्थिताः ॥ - सिद्धसेनाचार्यः अर्थ - जिनकी प्रशान्त मूर्ति के दर्शन मात्र से समस्त प्राणी अभय प्राप्त करते हैं, वह भगवान् प्रशस्त मगलरूप एवं कल्याणमयी शोभायमान हैं। अखिल विश्व के अनन्त विषय और उनकी समस्त पर्यायें जिसके प्रत्यक्ष हैं, अन्य किसी को नहीं, और प्रकृति-रस-सिद्धविद्वानों के लिए भी जो अचिन्त्य है, ऐसे उक्त सर्वज्ञद्वार की समीक्षा करके मैं आपका गुणगान करने को उत्सुक हुआ हूँ। विश्व के त्रिकालवर्ती समस्त साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म- स्थूल, दृष्ट- अदृष्ट, ज्ञात-अज्ञात, व्यवहित-अव्यवहित आदि पदार्थ अपनी अनेक अनन्त पर्यायो सहित आप को युगपत् प्रत्यक्ष हैं, हे भगवान् अच्युत! आपको नमस्कार हो ! हे सर्वान्सर्वज्ञ ! कठिनाई से प्राप्त होने वाली अचिन्त्य तत्त्वज्ञान द्वारा आपने जन्म-जरा-मृत्यु को जीत कर लोक को अभिभूत किया और लोकोत्तमता प्राप्त की । हे प्रभु! आपके सन्मार्ग में सम्यग्ज्ञानरहित क्रिया को तथा क्रियाविहीन ज्ञान को क्लेश समूह की शान्ति और शिवप्राप्ति के अर्थ निष्फल बताया है। हे वीर जिन ! छ : काय के जीवों का जो विस्तार आपने प्रतिपादित किया है, वैसा कोई अन्य नहीं कर सका। अतएव जो लोग सर्वज्ञत्व की परीक्षा करने में समर्थ हैं, वे बड़े प्रसन्न चित्त से आपके भक्त बने हैं।

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