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गवालियरमें जैनशासन ( संकलनकर्ता-श्री. प्रभुलाल न 'प्रेम' )
गवालियरका किला भारतवर्ष के प्रति प्रसिद्ध प्राचीन मिहिरकुल हूणने छटी शताब्दीके श्रारम्भमें बनवाया था। दुर्गोमंसे है। उंची पहाड़ीपर बनाये जानेके कारण इसकी दूसरा महत्वपूर्ण लेग्व चतुर्भुज मन्दिरमें है। इसका स्थिति बड़े ऐतिहासिक महत्वकी है। दक्षिण-पथपर स्थित निर्माण-काल सम्बत् ६३२ है, और इसको कनौज नरेश होने के कारण यह दक्षिण भारतका द्वार कहा जाता है। भुनदेव परिहारने बनवा | था । दशवीं शताब्दीमें इस पुरातन कालसे ही दक्षिण के लिये गवालियर होकर ही दुर्गको कछवाहोंने जीन लिया। उनको परिहारोंने इराकर जाना पड़ता है। मुसलमान इतिहासकारोंने इसे भारतके ग्यारहवीं शताब्दी में अपना श्राधिपत्य इस किलेपर जमा किलोके हारका मोती कहा है । यह दुर्ग यथार्थमें ही इम लिया । सन् ११६६ में कुतुबुद्दीनने परि दागेको हराकर कथनकी एक जीती जागती प्रतिमा है। पहिले इसे गोपाद्रि, गवालियरको दिल्ली-राज्यमें मिला लिया । मन् १२३२ ईसवी गोरगिरि, गोपाचल, गोलगढ़ तथा गवालियार कहते में अल्तमश बडी विशाल सेना एकत्रिनकर फिर गवालियर आये हैं। ये ही नाम पुगनी कृतियों तथा शिलालेखों में पाये पर चढ़ पाया । गजा सारंगदेवने यथाशक्ति इम अपार जाते हैं । यी भारतकी चार बड़ी देशी रियासतोंमें इसका सेनाका सामना किया, पर अन्तमें उसे नीचा देखना पड़ा। चतुर्थ नम्बर है, पर सैम्पशक्ति में यह अपनी सानी नहीं किलेकी स्त्रियाँ "जोदर" करके जल मरी । इम भयानक रखता है।
जौहरका स्मृनिस्वरूप जौहर-तालाब अब तक किलेम इस दुर्गके निर्माण के विषयमें अनेक दनकथायें विद्यमान है। प्रचलित है। उनमें से सर्वाधिक विश्वसनीय किम्बदन्ती सन् १३६८ ई. तक यह दुर्ग तुक बादशाहाके हाथ में महाराज सूर्यसेन वाली घटना है। कहा जाना है कि किले रहा। उनके शामनके समय में यह श्रानी ऐमी दृढ़ स्थितिके वाली पाडीपर एक समय गानब ऋषि तपस्या करत थे। कारण राजकीय बन्दी-गृह था । इममे भाग निकलना ऋपिकी तपस्थलीके पास ही शीतल और मीठे जल का एक असम्भव था । किन चारों ओर से पूर्ण सुरक्षित था। बहुत सोता था। इसका जल बड़ा स्वास्थ्य-प्रद था। कुष्ट रोगसे से सच्चे सीधे और भोले-भाले गजकुमाराको इसका पानी पीड़ित राजा सूर्यसेन आखेट खेलते हुए एक दिन उधर पीना पड़ा, और अपने जीवनको अन्तिम घड़ियाँ गिननी जा निकले। महर्षिने उसका कुष्ठ जलाशयके साधारण जल पड़ीं। तैमूरके श्राक्रमाने भारतके इतिहामका परदा ही के उपयोगसे ही ठीक कर दिया। दयाल ऋषिने राजाको बदल दिया । देश में अनेक छोटे २ राज्य स्थापित होगये। आशीर्वाद देकर जलके सोतेको चौड़ा करने तथा उस वीरसिहदेवने गवालियरपर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। पहाडीपर एक विशाल दुर्ग बनानेकों कहा । धनाभावकी इस वंशमें डूंगरसिंह बहुत प्रसिद्ध गजा हुए। बे सैन्यसमस्याको हल करनेके निमित्त राजाको एक सुवर्ण थेली संचालन में अद्वितीय समझे जाने थे । उन्होने भुजानाके भी प्रदान की और ऋषि अन्तर्धान हो गये। राजाने ऋषि बलसे ही नरवर जीन लिया और दूर तक अपने राज्यका की आज्ञाका पालन किया । सोतेको जलाशयमें परिणतकर विस्तार किया। गासिंह जैन थे। किले में प्रात जैन मूर्तियां दिया, जो सूर्यकुंड कहलाने लगा और गढ़का नाम उन्हीके समयकी हैं। अनेक प्रकारकी छोटी बड़ी मूनियां "गोपाद्रि" रखा गया। ईसाकी तीमरी शतान्दी में इस किले पहाड़ीमें बनी हुई है । मुमलमान बादशाहोंने मूर्तियों का की नीव पड़ी थी।
विध्वंस करके प्राचीन भारतीय कानाको घोर धक्का पहुँचाया किले में सर्वप्रथम प्राचीन शिलालेख सूरजकुण्डके पूर्वी है। इन पहाड़ों की सुन्दर, सुडौल तथा विशाल मूर्तियाँ किनारेपर स्थित सूर्यमन्दिरमें मिलता है। इस मन्दिरको प्राचीन कालकी श्रेष्ठता तथा राजाओंके ललित-फलानोंके