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१०] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण . अर्थालङ्कार) के महत्त्व पर विचार करने से अलङ्कार भी काव्य-सौन्दर्य का उत्कर्ष करते हैं; पर अग्राम्यत्व माधुर्य, समाधि आदि का इस कार्य में अधिक योग रहता है। दण्डी अलङ्कार को काव्य का आभ्यन्तर धर्म ही स्वीकार करते हैं; पर गुण आदि की तुलना में उसका कम मूल्य मानते हैं ।
वामन ने अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य का पर्याय मानकर काव्य को अलङ्कार के सद्भाव से ही ग्राह्य कहा था।' सौन्दर्यहीन काव्य अग्राह्य है, इस मान्यता में किसे आपत्ति होगी? यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि वामन ने जिस अलङ्कार के सद्भाव में काव्य को ग्राह्य और अभाव में काव्य को अग्राह्य माना था, उसका अर्थ उपमा आदि विशिष्ट अलङ्कारों तक ही सीमित नहीं था। वह अलङ्कार शब्द सामान्य रूप से काव्य-सौन्दर्य के व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ था। वामन रीति को काव्य की आत्मा मानते थे। अतः, यह स्वाभाविक था कि वे रीति के विधायक गुण को काव्य में विशेष महत्त्व देते । यही कारण है कि उन्होंने काव्य-सौन्दर्य का हेतु गुण को ही माना है। 3 अलङ्कार काव्यसौन्दर्य की वृद्धि करते हैं। स्पष्ट है कि गुण के अभाव में अलङ्कार से काव्यत्व नहीं आ सकता। अलङ्कार सौन्दर्य की सृष्टि नहीं कर सकते। अलङ्कार के अभाव में भी गुण से काव्य में सौन्दर्य की सृष्टि हो सकती है और काव्य ग्राह्य हो सकता है। यह बात दूसरी है कि अलङ्कार के रहने से गुण द्वारा उद्भूत काव्य-सौन्दर्य जितना उत्कृष्ट होगा उतना उसके अभाव में नहीं। अतः वामन की दृष्टि में उपमा आदि अलङ्कार का काव्य में इतना ही महत्त्व है कि वे काव्य की स्वाभाविक शोभा की अभिवृद्धि कर काव्य को अधिकाधिक चारुता प्रदान करते हैं। गुण की तुलना में अलङ्कार का महत्त्व गौण है; क्योंकि गुण काव्य-सौन्दर्य के लिए, काव्य को ग्राह्य बनाने के लिए और अन्ततः काव्य की आत्मा रीति के स्वरूप-विधान के लिए अनिवार्य हैं; पर अलङ्कार काव्य-सौन्दर्य के लिए अनिवार्य नहीं, काव्य-सौन्दर्य की वृद्धि के लिए अपेक्षित होते हैं । भामह तथा दण्डी की तरह वामन ने भी रस, ध्वनि आदि को अलङ्कार में अन्तर्भूत माना है। काव्य में अलङ्कार के सापेक्ष महत्त्व की दृष्टि से वामन और दण्डी का मत प्रायः मिलता-जुलता है। १. काव्यं ग्राह्यमलङ्कारात् । तथा—सौन्दर्यमलङ्कारः ।
-वामन, काव्यालं० सू० वृ० १, १, १ तथा १, १, २ २. रीतिरात्मा काव्यस्य । —वही, १, २, ६ ३. काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः । -वही, ३, १, १ ४. तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः । -वही, ३, १, २