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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान [६ उक्ति का वैचित्र्य, उक्तिभङ्गी का लोकोत्तर चमत्कार ही अलङ्कार है। इस व्यापक स्वरूप में ही अलङ्कार भामह के 'काव्यालङ्कार' में काव्यसौन्दर्य का आवश्यक तत्त्व माना गया है । वक्रोक्ति से अनुप्राणित होने के कारण अलङ्कार काव्यार्थ को भास्वर बनाते हैं। अनलङ कृत या प्रकृत उक्ति वार्ता-मात्र होती है, काव्य नहीं।' अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य का आवश्यक उपादान मानने के कारण भामह अलङ्कार-सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने गये हैं। रुय्यक के शब्दों में वे अलङ्कारतन्त्र-प्रजापति हैं ।
आचार्य दण्डी ने अलङ्कार के व्यापक अर्थ में उसे काव्य-सौन्दर्य का हेतु कहा है।२ स्पष्टतः दण्डी के उस अलङ्कार में काव्य में शोभा का आधान करनेवाले गुण आदि धर्म भी सन्निहित हैं। दण्डी ने विशिष्ट अर्थ में उपमा आदि अलङ्कार को श्लेष, प्रसाद आदि दश गुणों से पृथक् कर जहाँ दोनों का सापेक्ष महत्त्व निर्धारित करना चाहा है वहाँ अलङ्कार की अपेक्षा गुण पर ही उनका विशेष आग्रह जान पड़ता है। समाधि गुण को 'काव्यसर्वस्व' कहकर दण्डी ने काव्य में गुण का अपेक्षाकृत विशेष महत्त्व स्वीकार किया है। उन्होंने यह भी कहा कि यद्यपि शब्द और अर्थ के सभी अलङ्कार काव्य में रस का परिपोष करते हैं, फिर भी यह कार्य विशेष रूप से अग्राम्यता (ग्राम्यत्व दोषरहित माधुर्य आदि) ही करती है। इस कथन से स्पष्ट है कि काव्य में रस के उत्कर्ष में दण्डी अलङ्कार की अपेक्षा अग्राम्यता तथा गुण आदि को ही अधिक आवश्यक मानते थे। ध्यातव्य है कि दण्डी के इस कथन में रस का अर्थ सामान्य रूप से काव्य का सौन्दर्य ही है। रस शब्द अपने आस्वाद-रूप पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। रस ध्वनि आदि को दण्डी ने भामह आदि की तरह अलङ्कार में ही अन्तभुक्त माना है। इसीलिए उन्होंने रसवत् अलङ्कार को रसपेशल कहकर उसी प्रसङ्ग में भट्टलोल्लट के मतानुसार रस के स्वरूप का निरूपण किया है। निष्कर्ष रूप में दण्डी की मान्यता का सार यह है कि व्यापक अर्थ में काव्य-सौन्दर्य के हेतुभूत सभी धर्म (गुण, अलङ्कार आदि) अलङ्कार हैं। गुण आदि के साथ सापेक्ष रूप में अलङ्कार (शब्दालङ्कार एवं १. गतोऽस्तमर्को भातीन्दुर्यान्ति वासाय पक्षिणः ।
इत्येवमादि किं काव्यं वार्तामेनां प्रचक्षते ॥-वही, २, ८७ २. काव्यशोभाकरान् धर्मानलङ्कारान् प्रचक्षते ।-दंडी, काव्याद०, २, १ ३. तदेतत्काव्यसर्वस्वं समाधिर्नाम यो गुणः । -वही, १, १०० ४. कामं सर्वोऽप्यलङ्कारो रसमर्थे निषिञ्चति ।
तथाप्यग्राम्यतैवैनं भारं वहति भूयसा ।।-वही, १, ६२