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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
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कहीं रस, भाव आदि के बाधक भी बन जाते हैं, पर काव्य में रस, भाव आदि के उपकारक अलङ्कार ही ग्राह्य हैं, वे ही सच्चे अर्थ में काव्य के अलङ्कार हैं। निष्कर्ष यह कि अलङ्कार शब्द, अर्थ के ही आभूषण हैं । वे प्रत्यक्षतः काव्य के वाच्यार्थ का उपस्कार करते हैं। अलङ्कार की उपादेयता इस बात में है कि उससे वर्ण्य वस्तु के रूप, गुण आदि का उत्कर्ष होता है तथा रस, भाव आदि के सहज सौन्दर्य की वृद्धि होती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने काव्य में अलङ्कार के इन्हीं कार्यों को दृष्टि में रखकर कहा है-"भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होनेवाली युक्ति अलङ्कार है।" रसवादी शुक्लजी की अलङ्कार-विषयक यह मान्यता मम्मट आदि रसवादी आचार्यों की मान्यता से अभिन्न है । काव्य में अलङ्कार का स्थान
काव्य में अलङ्कार के स्थान तथा अन्य काव्य-तत्त्वों के साथ उसके सापेक्ष महत्त्व के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के मत प्रकट किये गये हैं। काव्य के स्वरूप के सम्बन्ध में दृष्टिभेद के कारण अलङ्कार के विषय में यह मतभेद स्वाभाविक था। काव्य के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न मत स्थापित करनेवाले छह प्रस्थान भारतीय काव्यशास्त्र में प्रसिद्ध हैं। वे हैं-अलङ्कार-प्रस्थान, रीति-प्रस्थान (रोति को गुणात्मा स्वीकार करने के कारण, गुण को ही रीति का विधायक मानने के कारण इसे गुण-प्रस्थान भी कहा जा सकता है। ) वक्रोक्ति-प्रस्थान, रस-प्रस्थान, ध्वनि-प्रस्थान और औचित्य-प्रस्थान। ध्वनि-प्रस्थान के आचार्यों ने वस्तु ध्वनि तथा अलङ्कार ध्वनि की अपेक्षा रस ध्वनि को विशेष महत्त्व दिया है । अतः ध्वनि-प्रस्थान और रस-प्रस्थान के काव्य-चिन्तन में विशेष मौलिक भेद नहीं है । अस्तु ! प्रसङ्गानुरोध से उक्त प्रस्थानों के आचार्यों की काव्य-दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में काव्य में अलङ्कार के स्थान तथा सापेक्ष महत्त्व के सम्बन्ध में उनकी मान्यता का हम परीक्षण करेंगे।
भामह और उद्भट ने काव्य के शब्दार्थ को अलङ्कार्य मानकर उनमें सौन्दर्य का आधान करनेवाले सभी तत्त्वों को अलङ्कार कहा है।' इस प्रकार यह तो स्पष्ट है कि भामह, उद्भट आदि अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य के लिए काव्य का अनिवार्य धर्म मानते थे; पर विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त उपमा आदि का १. इह हि तावद् भामहोद्भटप्रभृतयश्चिरन्तनालङ्कारकाराः प्रतीयमानमर्थ वाच्योपस्कारितयालङ्कारपक्षनिक्षिप्तं मन्यन्ते ।
-रुय्यक, अलं० सर्वस्व पृ० ४