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८] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण माधुर्य आदि गुणों के साथ सापेक्ष महत्त्व उससे स्पष्ट नहीं हो पाता। भामह ने काव्य के अलङ्कार को नारी के आभूषण की तरह मानकर कहा था कि जैसे रमणी का सुन्दर मुख भी भूषण के अभाव में सुशोभित नहीं होता, उसी प्रकार अलङ्कारहीन काव्य सुशोभित नहीं होता।' इस कथन की परीक्षा से जो तथ्य प्राप्त होता है वह यह है कि भामह नारी के मुख को सुशोभित करने के लिए आभूषण को जिस प्रकार अनिवार्य मानते थे, उसी प्रकार काव्य को सुशोभित करने के लिए काव्यालङ्कार को आवश्यक मानते थे। भामह के उक्त कथन का यह अंश विशेष रूप से ध्यातव्य है कि 'वनिता का सुन्दर मुख भी अलङ्कार के अभाव में सुशोभित नहीं होता।' स्पष्ट है कि भामह भूषण के अभाव में भी रमणी के मुख में कान्ति की स्थिति तो मानेंगे ही-भले ही वह मुख उन्हें बहुत मनोज्ञ न लगे। नारी के आभूषण उसके सौन्दर्य की सृष्टि नहीं करते, स्वाभाविक सौन्दर्य की वृद्धि ही कर सकते हैं। यदि काव्य के अलङ्कार को नारी के आभूषण की तरह माना जाय, तो उसे काव्य-सौन्दर्य की वृद्धि में सहायक-मात्र मानना होगा। तब यह तो रुचिभेद पर निर्भर करेगा कि आभूषणहीन नारी के कान्त मुख की तरह अलङ्कारहीन; किन्तु कान्त काव्य (शब्दार्थ) किसी को मनोज्ञ लगता है या अमनोज्ञ । भामह को कान्त मुख भी अनलङ कृत होने पर मनोरम नहीं लगेगा; पर कालिदास-जैसे रसज्ञ सहज सुन्दर रूप के लिए किसी विशेष आभूषण की आवश्यकता नहीं मानेंगे। उनके अनुसार तो कोई भी वस्तु–चाहे वह स्वयं सुन्दर हो या असुन्दर-सुन्दर रूप का आभूषण बन जाती है। भामह ने भी स्वीकार किया है कि आश्रय के सौन्दर्य से असुन्दर वस्तु भी सुन्दर बन जाती है । सुन्दर आँखों में काला अञ्जन भी सुन्दर लगने लगता है । ध्यातव्य है कि अलङ्कारवादी आश्रय में सौन्दर्य अलङ्कार के सद्भाव से ही सम्भव मानेंगे । अनलङ कृत वार्ता में सौन्दर्य वे नहीं मानते। भामह ने वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति को अलङ्कार का प्राणभूत तत्त्व मानकर उसके लिए विशेष आग्रह दिखाया है। १. न कान्तमपि निभूषं विभाति वनितामुखम् ।
-भामह, काव्यालं० १,१३ २. किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ।
-कालिदास, अभिज्ञानशाकुन्तलम् ३. किञ्चिदाश्रयसौन्दर्याद्धत्ते शोभामसाध्वपि । कान्ताविलोचनन्यस्तं मलीमसमिवाञ्जनम् ।।
___-भामह, काव्यालं० १,५५