________________
अन्तकृद्दशा-३/८/१३
से यावत् भ्रमण करने लगे ।
उन तीन संघाटको में से एक संघाटक द्वारका नगरी के ऊँच-नीच-मध्यम घरो में, एक घर से, दूसरे घर, भिक्षाचर्या के हेतु भ्रमण करता हुआ राजा वसुदेव की महारानी देवकी के प्रासाद में प्रविष्ट हुआ । उस समय वह देवकी रानी उन दो मुनियों के एक संघाडे को अपने यहाँ आता देखकर हृष्टतुष्ट होकर यावत् आसन से उठकर वह सात-आठ कदम मुनियुगल के सम्मुख गई । सामने जाकर उसने तीन बार दक्षिण की ओर से उनकी प्रदक्षिणा की । प्रदक्षिणा कर उन्हें वन्दन-नमस्कार किया । जहाँ भोजनशाला थी वहाँ आई । भोजनशाला में आकर सिंहकेसर मोदकों से एक थाल भरा और थाल भर कर उन मुनियों को प्रतिलाभ दिया। पुनः वन्दन-नमस्कार करके उन्हें प्रतिविसर्जित किया । पश्चात् उन छह सहोदर साधुओं में से दूसरा संघाटक भी देवकी के प्रासाद में आया यावत् उन्हे प्रति विसर्जित किया । इसके बाद मुनियों का तीसरा संघाटक आया यावत् उसे भी देवकी देवी प्रतिलाभ देकर वह इस प्रकार बोली-“देवानुप्रियो ! क्या कृष्ण वासुदेव की इस बारह योजन लम्बी, नव योजन चौड़ी प्रत्यक्ष स्वर्गपुरी के समान द्वारका नगरी में श्रमण निर्ग्रन्थों को यावत् आहार-पानी के लिये जिन कुलों में पहले आ चुके हैं, उन्हीं कुलों में पुनः आना पड़ता है ?"
देवकी द्वारा इस प्रकार कहने पर वे मुनि इस प्रकार बोले-“देवानुप्रिये ! ऐसी बात तो नहीं है कि कृष्ण वासुदेव की यावत् प्रत्यक्ष स्वर्ग के समान, इस द्वारका नगरी में श्रमण-निर्ग्रन्थ उच्च-नीच-मध्यम कुलों में यावत् भ्रमण करते हुए आहार-पानी प्राप्त नहीं करते । और मुनिजन भी जिन घरों से एक बार आहार ले आते हैं, उन्हीं घरों से दूसरी या तीसरी बार आहारार्थ नहीं जाते हैं । "देवानुप्रिये ! हम भहिलपुर नगरी के नाग गाथापति के पुत्र और उनकी सुलसा भार्या के आत्मज छह सहोदर भाई हैं । पूर्णतः समान आकृति वाले यावत् हम छहों भाइयों ने अरिहंत अरिष्टनेमि के पास धर्म-उपदेश सुनकर संसार-भय से उद्विय एवं जन्ममरण से भयभीत हो मुंडित होकर यावत् श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की । उसी दिन अरिहंत अरिष्टनेमि को वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार का अभिग्रह करने की आज्ञा चाही हे भगवन् ! आपकी अनुज्ञा पाकर हम जीवन पर्यन्त बेले-बेले की तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरना चाहते हैं ।" यावत् प्रभु ने कहा-“देवानुप्रियो ! जिससे तुम्हें सुख हो वैसा करो, प्रमाद न करो ।" उसके बाद अरिहंत अरिष्टनेमि की अनुज्ञा प्राप्त होने पर हम जीवन भर के लिये निरंतर बेले-बेले की तपस्या करते हुए विचरण करने लगे । आज हम छहों भाई वेले की तपस्या के पारणा के दिन यावत् अरिष्टनेमि की आज्ञा प्राप्त कर, तीन संघाटकों में भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए तुम्हारे घर आ पहुंचे हैं । तो देवानुप्रिये ! ऐसी बात नहीं है कि पहले दो संघाटकों में जो मुनि तुम्हारे यहाँ आये थे वे हम नहीं हैं । वस्तुतः हम दूसरे हैं।" उन मुनियों ने देवकी देवी को इस प्रकार कहा और यह कहकर वे जिस दिशा से आये थी उसी दिशा की ओर चले गये।
इस प्रकार की बात कहकर उन श्रमणों के लौट जाने के पश्चात् देवकी देवी को इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, प्रार्थित, मनोगत और संकल्पित विचार उत्पन्न हुआ कि "पोलासपुर नगर में अतिमुक्त कुमार नामक श्रमण ने मुझे बचपन में इस प्रकार कहा था-हे देवानुप्रिये देवकी ! तुम आठ पुत्रों को जन्म दोगी, जो परस्पर एक दूसरे से पूर्णतः समान