Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयबोधिनी टीका पद ५ सू.५ पृथ्वीकायिकादीनां पर्यायनिरूपणम् ५८७ तुल्यः, प्रदेशार्थतया तुल्यः, अवगाहनार्थतया चतुःस्थानपतितः, स्थित्या त्रिस्थानपतितः, वर्णगन्धरसस्पर्शमत्यज्ञानश्रुताज्ञानाचक्षुर्दर्शनपर्यवैः षट्स्थानपतितः, वनस्पतिकायिकानां पृच्छा, गौतम ! अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः, तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-वनस्पतिकायिकानाम् अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! वनस्पतिकायिको वनस्पतिकायिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थतया तुल्यः, अवगाहनार्थतया चतु:स्थानपतितः, स्थित्या त्रिस्थानपतितः, वर्णगन्धरसस्पर्शअनन्त पर्याय हैं ? (गोयमा ! वाउकाइयस्स) हे गौतम ! एक वायुकायिक दूसरे वायुकायिक से (दव्वट्ठयाए तुल्ले) द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है (ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए) अवगाहना से चतुःस्थानपतित है (ठिईए तिहाणवडिए) स्थिति से त्रिस्थानपतित है (वण्ण-गंध-रस-फासमइअण्णाण-सुयअण्णाण-अचक्खुदंसण पज्जवेहिं छटाणवडिए) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, अचक्षुदर्शन के पर्यायों से षट्स्थानपतित है।
(वणस्सइकाइयाणं पुच्छा ?) वनस्पतिकायिकों के विषय में प्रश्न (गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं (से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-वणस्सइकाइयाणं अणंता पज्जया पण्णता ?) हे भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि वनस्पतिकायिकों के अनन्त पर्याय हैं ? (गोयमा! वणस्सइकाइए वण. स्सइकाइयस्स) हे गौतम ! एक वनस्पतिकायिक दूसरे वनस्पतिकायिक से (दव्वट्ठयाए तुल्ले) द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है (पएसट्टयाए तुल्ले)
उपाय छे वायुयाना मनन्त पर्याय छे ? (गोयमा ! वाउकाइए वाउकाइयस्स) गौतम ? वायु५ि४ मीत वायुय४थी (दव्वट्ठयाए तुल्ले) द्रव्यनी अपेक्षाये तुल्य छ (पएसठ्ठयाए तुल्ले) प्रशानी अपेक्षाये तुल्य छ (ओगाहणठ्ठयाए चउ ठाणवडिए) मानाथी यतु:स्थान पतित छे (वण्ण गंध रस फास मइअण्णाण सुय अण्णाण अचक्खुदंसण पज्जवेहिं छठाणवडिए) - -२ સ્પર્શ, મત્યજ્ઞાન-શ્રુતજ્ઞાન–અચક્ષુદર્શનના પર્યાયથી ષસ્થાન પતિત છે
(वणस्सइ काइयाणं पुच्छा ?) वनस्पतियाना विषयमा प्रश्न (गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता) गौतम ! मनन्त पर्याय हा छ (से केणठेणं भंते !) હે ભગવન્ ! કયા હેતુથી એમ કહેવાય છે કે વનસ્પતિકાચિકેના અનન્ત પર્યાય छ ? (गोयमा ! वणस्सइकाइए वणस्सइकाइयस्स) गौतम ! से वनस्पतिथि: मीन पन:५तियि४थी (दब्वयाए तुल्ले) द्रव्यनी अपेक्षा तुमय छे.
(पएसट्टयाए तुल्ले) प्रशानी अपेक्षा तुक्ष्य छ (ओगाहणटूठयाए चउट्ठाण
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨