Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1143
________________ ११२८ प्रज्ञापनासूत्रे ते अस्त्ये सिध्यन्ति बुध्यन्ते मुच्यन्ते, परिनिर्वान्ति सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति, वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकसौधर्मेशानाश्च यथा असुरकुमाराः, नवरं ज्योतिष्काणाञ्च वैमानिकानाञ्च च्यवन्ति इति अभिलापः कर्तव्यः, सनत्कुमारदेवानां पृच्छा ? गौतम ! यथा असुरकुमाराः, नवरम् - एकेन्द्रियेषु न उपपद्यन्ते, एवं यावत् सहस्रारकदेवाः, आनत यावत् अनुत्तरौपपातिका देवा एवञ्चैव, नवरं-नो तिर्यग्योनिकेषु उपपद्यन्ते, मनुष्येषु पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क कर्मभूमिगगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्येषु उपपद्यन्ते द्वारम् । गतिया) कोई-कोई (सिज्यंति) सिद्ध होते हैं (बुज्झंति) केवलबोध प्राप्त करते हैं मुच्चति) मुक्त होते हैं (परिनिव्वाति) परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं (सव्वदुक्खाणं अंतं करें ति) सब दुखों का अन्त करते हैं ( वाणमंतर - जोईसिय—वेमाणिय सोहम्मीसाणा य जहा असुरकुमारा) वानव्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म, ईशान के वैमानिक असुरकुमारों के समान (नवरं) विशेष (जोइसियाण य वेमाणियाण य) ज्योतिष्कों और वैमानिकों के लिए (चयंतीति अभिलावो कायव्वो) च्यवन करते हैं, ऐसा बोलना चाहिए (सकुमारदेवार्ण पुच्छा ?) सनत्कुमार देवों संबंधि प्रश्न ? (गोयमा ! जहा असुरकुमारा) गौतम ! असुरकुमारों के समान (नवरं ) विशेष (एगिदिए न उववज्जंति) एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते ( एवं जाव सहस्सारगदेवा) इसी प्रकार यावत् सहस्रार देव (आणय थाय छे, (परिनिव्वायंति) परिनिर्वाण प्राप्त उरे छे. (सव्वदुक्खाणं अंत करेंति) સર્વ દુ:ખાના અંત કરે છે. ( वाणमंतर जोइसिय- वेमाणिय सोहम्मीसाणा य जहा असुरकुमारा) वानव्यन्तर, ज्योतिष्ठ, सौधर्म, ईशानना वैभानि असुरसुभारोना समान (नवरं) विशेष ( जोइसियाण य वैमाणियाण य) ज्योतिष्ठा भने वैभानिओना भाटे (चयन्तीति अभिलावो कायव्वो) य्यवन रेछे म अहेवु लेखे. (सर्णकुमारदेवाणं पुच्छा ) सनत्कुभाराना देवे। समन्धी प्रश्न ! ( गोयमा ! जहा असुरकुमारा) गौतम ! असुरशुभारोना समान (नवरं) विशेष (एगिदिए न उवज्जति) येडेन्द्रियोभां उत्पन्न नथी थता, ( एवं जाव सहत्सार देवा ) येन रीते यावत् सडुखार हेव (आणय जाव अणुत्तरोववाइया देवा) मानत यावत् अनुत्तरोपपाति देव ( एवं चेत्र) मे प्रारे (नवरं ) विशेष (नो तिरिक्खजोणिए उपवज्जति) तिर्ययामां नन्भता नथी. ( मणुस्सेसु पज्जतसंखेज्ज• શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર :૨

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