Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयद्योतिका टीका प्रति० २
स्त्रीणामन्तरद्वारनिरूपणम् ४३१ स च वनस्पतिकालः' एवं वक्तव्यस्तथाहि 'अणंताओ उस्सप्पिओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा ते ण पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइ भागो' अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः असंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः, ते खलु पुद्गलपरिवर्ताः आवलिकाया असंख्येयभाग इति एतावान् कालो वनस्पतिकालशब्देन कथ्यते, एतावत्कालपर्यन्तं पुरुषवेदनपुंसकवेदमद्भावाद् उत्कर्षतः स्त्रियाः स्त्री त्वस्यान्तर भवति ततः परं स्त्रीत्वस्यावश्यंभावात् । ' एवं सव्वासिं तिरिक्खत्थीणं' एवम्
औधिकस्त्रीवदेव सर्वासां जलचरस्थलचरखेचरतिर्यस्त्रीणां तथा-औधिकमनुष्यस्त्रीणां च का व्यवधान कहा गया है वह अनन्त काल कितने प्रमाण का होता है इस पर कहते हैं'वणस्सइ कालो' वनस्पति काल की अपेक्षा से कहा गया हैं और यह वनस्पतिकाल असंख्यात पुद्गल परावर्तन रूप होता है, इसके बाद पुनः नियम से स्त्रीत्व पर्याय की उसे प्राप्ति हो जाती है। इस वनस्पति काल रूप अनन्त काल में 'अणताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ खेत्तो अणता लोगा, असंखेज्जा पोगलपरियट्टा" कालकी अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणियां और अवसर्पिणियां समाप्त हो जाती हैं, क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त लोक आजाते हैं और असंख्यात पुद्गल परावर्त भी हो जाते हैं । और ये असंख्यात पुद्गल परावर्त्त आवलिका के असंख्यातवें भाग रूप होते हैं ऐसा यह इतना काल वनस्पति शब्द से कहा गया है। इतने अधिक काल तक स्त्रीत्व का अन्तर व्यवच्छेद हो जाता हैं, और इसके व्यतीत होने पर पुनः स्त्री स्त्री रूप से उत्पन्न हो जाती है "एवं सव्वासिं तिरिक्खत्थीण" इसी प्रकार से सामान्य रूप से कहे गये स्त्रीत्व के विरह काल के अनुसार ही समस्त जलचरस्थलचरखेचर तिर्यग् स्त्रियों का और औधिक
मन ट सा प्रभार न होय छे १ त माटे हे छ है-"वणस्सइकालो" વનસ્પતિકાળની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવેલ છે. અને તે વનસ્પતિકાળ અસંખ્યાત પુદ્ગલ પરાવર્તરૂપ હોય છે. તે પછી પુનઃ નિયમથી સ્ત્રીપણાના પર્યાયની તેને પ્રાપ્તિ થઈ જાય છે. या वनस्पति ३५ मनमा “अणंताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीणीओ कालओ खेत्तओ अणंता लोगा असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा" अनी अपेक्षाथी सनत सपियो અને અનંત અવસર્પિણી સમાપ્ત થઈ જાય છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી અનંતક આવી જાય છે. અને અસંખ્યાત પુદગલ પરાવર્ત પણ થઈ જાય છે. અને આ અસંખ્યાત પુદ્ગલપરાવત આવલિકાના અસંખ્યાતમાં ભાગરૂપ હોય છે. આ રીતને આટલેકાળ “વનસ્પતિકાળ એશબ્દથી કહેવામાં આવેલ છે. આટલા અધિકકાળ સુધી સ્ત્રી પણાનું અંતર-વ્યવછેદ થઈ जय छे.
सन व्यतीत लय त्या शथी खी खी पाथी उत्पन्न / जय छे. "एवं सव्वासिं तिरिक्वत्थीणं" से प्रमाणे सामान्य शत उवामां आवस स्त्रीयाना वि२७ કાલ અનુસારજ સઘળા જલચર, સ્થલચર ખેચર તિર્યંમ્ સ્ત્રિનું અને ઔધિક સામાન્ય
જીવાભિગમસૂત્રા