Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयद्योतिका टीका प्रति० २
नपुंसकानां स्थितिनिरूपणम् ५५१
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'बेदिय इंदिय चरिंदिय णपुंसगाण य' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियनपुंसकानाञ्च जहनेणं अंतो मुहुत्तं' जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् ' उक्कोसेणं संखेज्जं कालं' उत्कर्षेण संख्येयं कालम्, स च संख्येयः कालः, संख्येयानि वर्षसहस्राणीति संख्येय सहस्रवर्षपरिमितः प्ररिपत्तव्य इति ।। पंचिंदिय तिरिक्खजोणियण पुंसएणं भंते' पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकः खलु भदन्त पंचिंदिय तिरिक्खजोणियणपुंसत्ति कालओ केवच्चिरं होई' पच्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक इति कालतः कियच्चिरं भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम : जहन्नेणं अतो मुहुत्तं' जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् ' उक्कोसेणं पुव्वकोडिपुहुत्तं' उत्कर्षेण पूर्वकोटिपृथक्त्वम् तच्च पूर्वकोटिपृथक्त्वं निरन्तरं सप्तभवान् पूर्व कोट्यायुष्कान् नपुंसकत्वेनानुभवतः पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकनपुंसकस्य ज्ञातव्यम् । ततः परमवश्यं वेदान्तरे विलक्षणभवान्तरे संक्रमणं भवजाते हैं । 'बेइंदिय तेइंदिय चउरिंदिय णपुंसगाण य जहन्नेणं अंतो मुहुत्तं उक्कोसेणं संखेज्जंकालं" दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय नपुंसकों की कायस्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से संख्यात काल की है । यह संख्यात काल संख्याते हजारों वर्षों का होता है। पंचिंदियतिरिक्खजोणिय णपुंसए णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणि
नपुंसएत्ति कालओ केवचिरं होइ" गौतम ने इस सूत्र द्वारा पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक नपुंसक जीव की कायस्थिति कितने काल की है ? ऐसा पूछा है— इसके उत्तर में प्रभु ने ऐसा कहा है — “गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं पुव्वकोडिपुहुत्तं" हे गौतम ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक नपुंसक जीव की कायस्थिति जघन्य से तो एक अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व की है- दो पूर्व कोटि से लेकर नौ पूर्व कोटि तक की है । यह पूर्व कोटि पृथक्त्व पूर्व कोटि आयुष्य के सात भव नपुंसकपन के अनुभव करने वाले तिर्यग्योनिक नपुंसक की अपेक्षा से समझना चाहिये क्योंकि तदनन्तर उसका अवश्य दूसरे वेद - स्त्रीवेद अथवा सभाप्त था लय छे “बेइंदिय तेइंदिय चउरिदिय णपुंसगाणय जहण्णेणं अतोमुहुत्त उक्कोसेणं संखेज्जं काल” थे इंद्रियवाणा, त्राणू द्रियवाजा यार 5 द्रियवाजा नपुसोनी अयસ્થિતિ જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂત ની છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી અસંખ્યાતકાળના છે. આ અસંખ્યાતકાળ स ंज्यात उन्नरो वर्षने। होय छे. 'पंचिदिय तिरिक्ख जोणिय णपुंसपणं भंते ! पंचिदिय तिरिक्ख जोणिय नपुंसपत्ति कालओ केवच्चिरं होइ" गौतमस्वामी या सूत्रद्वारा पांच ઇન્દ્રિયવાળા તિર્યં ગ્યેાનિક નપુંસક જીવેાની કાયસ્થિતિ કેટલાકાળની છે ? આ પ્રમાણેના પ્રશ્ન पूछयो छे. या प्रश्नना उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामीने हे छे. - "गोयमा ! जहणेण अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेण पुव्वको डिपुहुत्त" हे गौतम! पांथ द्रियमाणा तिर्यग्योनि नपुं सलवानी अयસ્થિતિ જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂતની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂર્વ કાર્ટિ પૃથત્વની છે. એટલે કે એ પૂર્વ કાટિથી લઈને નવપૂવ કાટિ સુધીની છે. આ પૂર્વકૈાર્ટિ પૃથક્ત્વ પૂર્વકાટિ આયુષ્યના સાતભવ નપુંસકપણાના અનુભવ કરવાવાળા તિર્યંગ્યાનિક નપુંસકની અપેક્ષાથી સમજવું જોઇએ, કેમકે—તે પછી તેનું સંક્રમણ બીજા વેદમાં એટલેકે વેદ અથવા પુરૂષવેદ્યમાં અથવા કોઈ જુદા જ પ્રકારના ભવમાં અવશ્ય થઈ જાય છે.
જીવાભિગમસૂત્ર