Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan
View full book text
________________
卐 (४) सम-कर्म, (५) सम-वर्ण, (६) सम-लेश्या, (७) सम-वेदना, (८) सम-क्रिया, (९) समायुष्क, तथा + (१०) समोपपन्नक। इन सूत्रों में आई विशेष अवधारणाओं की व्याख्या इस प्रकार हैॐ छोटा-बड़ा शरीर आपेक्षिक-प्रस्तुत में नैरयिकों का छोटा और बड़ा शरीर अपेक्षा से है। नारकों का छोटे से क छोटा शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना है और बड़े से बड़ा ५०० धनुष के बराबर है। ये दोनों प्रकार
के शरीर भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से हैं। उत्तरवैक्रिय शरीर जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग तक और
उत्कृष्ट शरीर एक हजार धनुष का हो सकता है। म नारक : अल्पकर्मी एवं महाकर्मी-जो नारक पहले उत्पन्न हो चुके, उन्होंने नरक का आयुष्य तथा अन्य कर्म
बहुत-से भोग लिए हैं, अतएव उनके बहुत से कर्मों की निर्जरा हो चुकी है. इस कारण वे अल्पकर्मी हैं। जो ॐ नारक बाद में उत्पन्न हुए हैं, उन्हें आयु और सात कर्म बहुत भोगने बाकी हैं, इसलिए वे महाकर्मी (बहुत कर्म वाले) हैं।
संज्ञीभूत-असंज्ञीभूत-वृत्तिकार ने संज्ञीभूत के अनेक अर्थ बताए हैं-(१) संज्ञा का अर्थ है-सम्यग्दर्शन; म सम्यग्दृष्टि जीव को संज्ञीभूत कहते हैं। अथवा जो पहले असंज्ञी (मिथ्यादृष्टि) था, और अब संज्ञी (सम्यग्दृष्टि) हो ॥ + गया है, अर्थात्-जो नरक में ही मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यग्दृष्टि हुआ है, वह संज्ञी संज्ञीभूत कहलाता है।
असंज्ञीभूत का अर्थ मिथ्यादृष्टि है। संज्ञीभूत (सम्यग्दृष्टि) को नरक में जाने पर पूर्वकृत अशुभ कर्मों का विचार ॐ करने से घोर पश्चात्ताप होता है-इस प्रकार की मानसिक वेदना के कारण वह महावेदना का अनुभव करता है। 卐 असंज्ञीभूत-मिथ्यादृष्टि को स्वकृत कर्मफल के भोग का कोई ज्ञान या विचार तथा पश्चात्ताप नहीं होता, और न ॥
ही उसे मानसिक पीड़ा होती है, इस कारण असंज्ञीभूत नैरयिक अल्पवेदना का अनुभव करता है। (२) इसी
प्रकार संज्ञीभूत यानी संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव में तीव्र अशुभ परिणाम हो सकते हैं, फलतः वह सातवीं नरक तक ॐ जा सकता है। जो जीव आगे की नरकों में जाता है, उसे अधिक वेदना होती है। अंसज्ञीभूत (नरक में जाने से
पूर्व असंज्ञी) जीव रत्नप्रभा के तीव्र वेदनारहित स्थानों में उत्पन्न होता है, इसलिए उसे अल्पवेदना होती है। 5
(३) इसी प्रकार संज्ञिभूत अर्थात्-पर्याप्त को महावेदना और असंज्ञीभूत अर्थात् अपर्याप्त को अल्पवेदना होती है। 卐 असुरकुमारों का आहार मानसिक होता है। आहार ग्रहण करने का मन होते ही इष्ट, कान्त आदि । पुद्गल आहार के रूप में परिणत हो जाते हैं।
असुरकुमारों का आहार और श्वासोच्छ्वास-एक असुरकुमार एक दिन के अन्तर से आहार करता है, और दूसरा असुरकुमार देव सातिरेक (साधिक) एक हजार वर्ष में एक बार आहार करता है। अतः सातिरेक एक
हजार वर्ष में एक बार आहार करने वाले की अपेक्षा एक दिन के अन्तर से आहार करने वाला बार-बार # आहार करता है, ऐसा कहा जाता है। यही बात श्वासोच्छ्वास के सम्बन्ध में समझ लेनी चाहिए। सातिरेक एक के पक्ष में श्वासोच्छ्वास लेने वाले असुरकुमार की अपेक्षा सात स्तोक में श्वासोच्छ्वास लेने वाला असुरकुमार बार-बार श्वासोच्छ्वास लेता है, ऐसा कहा जाता है।
असुरकुमार के कर्म, वर्ण और लेश्या का कथन नारकों से विपरीत क्यों ?-इस विपरीतता का कारण यह है 9 कि पूर्वोपपन्नक असुरकुमारों का चित्त अतिकन्दर्प और दर्प से युक्त होने से वे नारकों को बहुत त्रास देते हैं।
त्रास सहन करने से नारकों के तो कर्मनिर्जरा होती है, किन्तु असुरकुमारों के नये कर्मों का बन्ध होता है। वे ॐ अपनी क्रूर भावना एवं विकारादि के कारण अशुद्धता बढ़ाते हैं। उनका पुण्य क्षीण होता जाता है। पापकर्म 卐 बढ़ता जाता है, इसलिए वे महाकर्मी होते हैं।
a55555555 5 $ $$ $$$$$ $$$$$$$$$$ $$$$ $$$$$$$$$$$$$ $$$$ $
卐क卐5555555555
| भगवतीसूत्र (१)
(66)
Bhagavati Sutra (1)
ऊधमकी
555555555555550
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org