Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 512
________________ 步步步步步步步步步步步步牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙 विवेचन : क्रिया प्रथम क्यों ?-क्रिया कर्म की जननी है, क्योंकि कर्म का बंधन क्रिया से ही होता है। पहले कर्म होगा, तभी उसकी वेदना-अनुभव (कर्मफल भोग) होगी। अतः क्रिया और वेदना में कार्य-कारण भाव का सम्बन्ध है। (वृत्ति, पत्रांक १८२) श्रमणनिर्ग्रन्थ की क्रिया : प्रमाद और योग से-सर्वथा विरत श्रमणों को भी प्रमाद और योग के निमित्त से क्रिया लगती है; इसका तात्पर्य यह है कि श्रमण जब उपयोगरहित (असावधान) अथवा प्रमादयुक्त (ईर्ष्यासक्त) होकर गमनादि क्रियाएँ करता है, तब वह क्रिया प्रमादजन्य कहलाती है। तथा जब कोई श्रमण उपयोगयुक्त एवं अप्रमत्त होकर गमनादि क्रियाएँ मन-वचन-काय (योग) से करता है तब वह ऐर्यापथिकी क्रिया योगजन्य कहलाती है। ___Elaboration-Why kriya first ?-Kriya (action) is the source of karma because bondage of karmas is caused only by kriya (action), Bondage of karmas comes first, only then its fruits (pain) can be experienced. Thus there is a cause and effect relationship between kriya and pain. (Vritti, leaf 182) ___Kriya of Shraman-nirgranths (Jain ascetics)-Even completely detached ascetics acquire karmas due to stupor and association. This means that when such an ascetic indulges in movement and other actions negligently or in stupor it is called action due to stupor and association. When he does so carefully and free of stupor it is called action exclusively due to association (Iryapathiki kriya). सक्रिय-अक्रिय जीवों की अन्तक्रिया TERMINAL ACTIVITY OF ACTIVE AND INACTIVE BEINGS ११. [प्र. ] जीवे णं भंते ! सया समियं एयइ वेयइ चलइ फंदइ घट्टइ खुभइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ ? [उ. ] हंता, मंडियपुत्ता ! जीवे णं सया समियं एयइ जाव तं तं भावं परिणमइ। ११. [प्र. ] भगवन् ! क्या जीव सदा समित (प्रतिक्षण या परिमित) रूप से काँपता है, विविध रूप से काँपता है, चलता है (एक स्थान से दूसरे स्थान जाता है), स्पन्दन क्रिया करता (थोड़ा या धीमा चलता है) घट्टित होता (सर्व दिशाओं में जाता-घूमता) है, क्षुब्ध (चंचल) होता है, उदीरित (प्रबल रूप से प्रेरित) होता या करता है; और आकुंचन-प्रसारणरूप उन-उन भावों में परिणत होता है ? [उ. ] हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा समित-(परिमित) रूप से काँपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है। ___11. [Q.] Bhante ! Does a living being (jiva) tremble always every moment, tremble various ways, move (from one place to another), pulsate (move little or slowly), move in all directions (ghattit), get agitated (kshubdh), gets intensely inspired (udirit) and accordingly change its state (bhaava) or transform (shrink or expand)? भगवतीसूत्र (१) (446) Bhagavati Sutra (1) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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