Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan
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है तथा आत्मा ही व्युत्सर्ग का अर्थ है, तो आप क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करके क्रोधादि की गर्हा - निन्दा क्यों करते हैं ?"
[उ. ] हे कालास ! हम संयम के लिए क्रोध आदि की गर्ता करते हैं ।
[Q. 5] Kaalasyaveshiputra then asked further from the Sthavirs
O Arya ! If soul is Samayik ( equanimity) and soul is its meaning... and so on up to... soul is Vyutsarg (dissociation from the body) and soul is its meaning then why do you abstain from anger, conceit, deceit and greed, and censure (garha) them ?
[Ans.] O Kalas ! We censure (garha) anger and other passions for the sake of Samyam ( ascetic-discipline). [प्र. ६ ] से भंते ! किं गरहा संजमे ? अगरहा संजमे ?
[ उ. ] कालास ! गरहा संजमे, नो अगरहा संजमे, गरहा वि य णं सव्वं दोसं पविणेति, सव्वं बालियं परिणा एवं खुणे आया संजमे उवहिते भवति, एवं खु णे आया संजमे उवचिते भवति, एवं खुणे आया संजमे उद्विते भवति ।
[प्र. ६ ] तो 'हे भगवन् ! क्या गर्हा (करना) संयम है या अगर्हा (करना) संयम है ?'
[ उ. ] हे कालास ! गर्हा (पापों की निन्दा) संयम है, अगर्हा संयम नहीं है। गर्हा सब दोषों को दूर करती है - आत्मा समस्त मिथ्यात्व को जानकर गर्हा द्वारा दोषनिवारण करता है। इस प्रकार हमारी आत्मा संयम में पुष्ट होती है और इसी प्रकार हमारी आत्मा संयम में उपस्थित होती है।
[Q. 6] Then Bhante ! Is censure ascetic-discipline or non-censure ascetic-discipline ?
२२. [ १ ] एत्थ णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे संबुद्धे थेरे भगवंते वंदति णमंसति, २ एवं वयासी - एतेसि णं भंते ! पदाणं पुव्विं अण्णाणयाए असवणयाए अबोहीए अणभिगमेणं अदिट्ठाई अस्ताणं अमुयाणं अविण्णायाणं अव्वोगडाणं अव्वोच्छिन्नाणं अणिज्जूढाणं अणुवधारिताणं एयमट्ठे णो सद्दहिए, णो पत्तिए, णो रोइए । इदाणि भंते ! एतसिं पयाणं जाणयाए सवणयाए बोहीए अभिगमेणं दिट्ठाणं सुयाणं मुयाणं विण्णायाणं वोगडाणं वोच्छिन्नाणं णिज्जूढाणं उवधारियाणं एयमट्ठे सद्दहामि, पत्तियामि, रोमि । एवमेयं से जहेयं तुब्भे वदह ।
[Ans.] O Kalas! Censure (of sins) is ascetic-discipline and noncensure is not ascetic-discipline. Censure removes all faults. Knowing 5 all that is unrighteous, the soul removes all faults through censure. Thus our soul enhances discipline and thus our soul transcends into discipline.
भगवतीसूत्र (१)
(206)
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Bhagavati Sutra (1)
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