Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 358
________________ S ) )) )) ))) )))) ) )))))) )) ) )) ))) 卐)))))))))))))))) २३. तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ ॐ महावीरस्स अंतियाओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्त अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरतो रियं सोहेमाणे जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियं अडति। २३. इसके बाद भगवान गौतम स्वामी श्रमण भगवान महावीर के पास से तथा गुणशील चैत्य से निकले। फिर शीघ्रता, चपलता (चंचलता) और संभ्रम (आकुलता) से रहित होकर, युगान्तर-युग-गाड़ी फ़ का जुआ। (चलते समय अपने शरीर का भाग तथा दृष्टिगोचर होने वाले मार्ग का भाग; इन दोनों के बीच का अन्तर युगान्तर कहलाता है।) प्रमाण दूर तक की भूमि को देखते हुए, अपनी दृष्टि से आगेॐ आगे के गमन मार्ग पर ईयासमितिपूर्वक चलते हुए जहाँ राजगृह नगर था, वहाँ आये। वहाँ ऊँच, नीच और मध्यम कुलों के गृह-समुदाय में विधिपूर्वक भिक्षाचरी करने के लिए पर्यटन करने लगे। 23. After this Bhagavan Gautam Swami took leave of Bhagavan Mahavir and left Gunashila Chaitya. He moved without any haste, 9 hurry and eagerness. While walking on the path, he carefully observed the ground to a distance measuring one yoke (yugantar) and followed the code of care of movement (irya samiti). Walking thus he came to Rajagriha city and started visiting the houses of low, medium and high caste families to collect alms following the prescribed procedure." yi Ferfart og forura o for THI CURIOSITY ABOUT STHAVIRS २४. तए णं से भगवं गोयमे रायगिहे नगरे जाव (सु. २३) अडमाणे बहुजणसई निसामेइ-"एवं ॐ खलु देवाणुप्पिया ! तुंगियाए नगरीए बहिया पुष्फवतीए चेतिए पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो समणोवासएहिं # इमाई एतारूवाई वागरणाई पुच्छिया-संजमे णं भंते ! किंफले, तवे णं भंते ! किंफले ? तए णं ते थेरा भगवंता ते समणोवासए एवं वयासी-संजमे णं अज्जो ! अणण्हयफले, तवेणं वोदाणफले तं चेव जाव ज (सु. १७) पुवतवेणं पुवसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएसु उववजंति, सच्चे णं ॐ एसमठे, णो चेव णं आयभाववत्तब्वयाए" से कहमेयं मन्ने एवं ? २४. उस समय राजगृह नगर में भिक्षाटन करते हुए भगवान गौतम ने बहुत से लोगों के मुख से ॐ ऐसे शब्द सुने-“हे देवानुप्रिय ! तुंगिका नगरी के बाहर पुष्पवतिक नामक उद्यान में भगवान पार्श्वनाथ __की परम्परा के स्थविर भगवन्त पधारे थे, उनसे श्रमण भगवान महावीर के श्रमणोपासकों ने इस प्रकार के प्रश्न पूछे थे कि 'भगवन् ! संयम का क्या फल है, तप का क्या फल है ?' तब उन स्थविर भगवन्तों ॐ ने श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा था-"आर्यो ! संयम का फल अनास्रवता (संवर) है, और तप का फल व्यवदान (कर्मों का क्षय) है।" यह सारा वर्णन पहले (सू. १७) की तरह कहना चाहिए, यावत्-‘हे ॐ आर्यो ! पूर्वतप से, पूर्वसंयम से, कर्मिता-(कर्म शेष रहने से) और संगिता-(रागभाव या असक्ति) से ॐ देवता देवलोक में उत्पन्न होते हैं। यह बात सत्य है, इसलिए हमने कही है, हमने अपने अहंभाववश यह 9555555555555555555555555555555555555555 )) ज卐) भगवतीसूत्र (१) (302) Bhagavati Sutra (1) B) ))))) ))))))))) )5555555 58 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662