Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan
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16. When Vaishalik Shravak ascetic Pingal again repeated the aforesaid questions to Parivrajak Skandak of Katyayan clan two-three times, the latter was filled with shanka, kanksha, vichikitsa, bhed and kalushya. He failed to reply to Vaishalik Shravak ascetic Pingal's questions and remained silent. स्कन्दक का भगवान की सेवा में आगमन SKANDAK APPROACHES BHAGAVAN
१७. तए णं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग जाव महापहेसु महया जणसम्महे इ वा जणवूहे इ वा परिसा निग्गच्छइ।
तए णं तस्स खंदयस्स कच्चायणसगोत्तस्स बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म इमेयासवे 5 अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-‘एवं खलु समणे भगवं महावीरे, कयंगलाए
नयरीए बहिया छत्तपलासए चेइए सर्जमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तं गच्छामि णं, समणं भगवं महावीरं वदामि नमसामि सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता णमंसित्ता सक्कारेत्ता सम्माणित्ता
कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासित्ता इमाइं च णं एयारूवाइं अट्ठाई हेऊ इं पसिणाई कारणाई वागरणाई 卐 पुच्छित्तए' त्ति कटु। म एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणेव परिव्वायावसहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिदंडं च कुंडियं च कंचणियं
च करोडियं च भिसियं च केसरियं च छन्नालयं च अंकुसयं च पवित्तयं च गणेत्तियं च छत्तयं च वाहणाओ य ज' पाउयाओ य धाउरत्ताओ य गेण्हइ, गेण्हइत्ता परिवायावसहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तिदंड# कुंडिय-कंचणिय-करोडिय-भिसिय-केसरिय-छत्रालय-अंकुसय-पवित्तय-गणेत्तियहत्थगए 5 छत्तोवाहणसंजुत्ते धाउरत्तवत्थपरिहिए सावत्थीए नगरीए मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कयंगला नगरी जेणेव छत्तपलासए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
१७. उस समय श्रावस्ती नगरी में जहाँ तीन मार्ग, चार मार्ग और बहुत से मार्ग मिलते हैं, वहाँ तथा महापथों में जनता की भारी भीड़ समूह रूप में चल रही थी, लोग इस प्रकार बातें कर रहे थे कि 'श्रमण भगवान महावीर स्वामी कृतंगला नगरी के बाहर छत्रपलाशक नामक उद्यान में पधारे हैं।' जनता
भगवान महावीर को वन्दना करने के लिए निकली। उस समय बहुत से लोगों के मुँह से भगवान ॐ महावीर के पदार्पण की बात सुनकर उस कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक तापस के मन में इस प्रकार का म अध्यवसाय, चिन्तन, अभिलाषा एवं संकल्प उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान महावीर कृतंगला नगरी के है
बाहर छत्रपलाशक उद्यान में तप-संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विराजमान हैं। अतः मैं म उनके पास जाऊँ, उन्हें वन्दना-नमस्कार करूँ। मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान महावीर
को वन्दना-नमस्कार करके, उनका सत्कार-सम्मान करके, उन कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप और ॐ चैत्यरूप भगवान महावीर स्वामी की पर्युपासना करूँ, तथा उनसे इन और इस प्रकार के अर्थों, हेतुओं, के प्रश्नों, कारणों और व्याख्याओं आदि को पूछू।
भगवतीसूत्र (१)
(240)
Bhagavati Sutra (1)
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