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स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
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धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और विवेकी पुरुषों ने बताया है । इस प्रकार जैन आगमों में पौरुषेयता और अपौरुषेयता का सुन्दर समन्वय हुआ है ।
यहाँ पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि तीर्थंकर अर्थ रूप में उपदेश प्रदान करते हैं, वे अर्थ के प्रणेता हैं । उस अर्थ को सूत्रबद्ध करने वाले गणधर या स्थविर हैं । गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं । अंगबाह्य आगम की रचना करने वाले स्थविर हैं । ३
जिस तीर्थंकर के जितने गणधर होते हैं, वे सभी एक ही अर्थ को आधार बनाकर सूत्र की रचना करते हैं । कल्पसूत्र की स्थविरावली में श्रमण भगवान् महावीर के नौ गण और ग्यारह गणधर । बताये हैं । उपाध्याय विनयविजय जी ने गण का अर्थ एक वाचना ग्रहण करने वाला 'श्रमणसमुदाय' किया है ।" और गण का दूसरा अर्थ स्वयं का शिष्य समुदाय भी है । कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने यह स्पष्ट किया है कि प्रत्येक गण की सूत्रवाचना पृथक् पृथक् थी । भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर और नौ गण थे । नौ गणधर श्रमण भगवान् महावीर के सामने ही मोक्ष पधार चूके थे और भगवान् महावीर के परिनिर्वाण होते ही गणधर - इन्द्रभूति गौतम केवली बन चुके थे। सभी ने अपने-अपने गण सुधर्मा को समर्पित किये थे, क्योंकि वे सभी गणधरों में दीर्घजीवी थे ! " आज जो द्वादशांगी विद्यमान है वह गणधर सुधर्मा की रचना है ।
सेनप्रश्न ग्रन्थ में तो आचार्य ने यह प्रश्न उठाया है कि भिन्न-भिन्न वाचना होने से गणधरों में साम्भोगिक सम्बन्ध था या नहीं ? और उन की समाचारी में एकरूपता थी या नहीं ? आचार्य
स्वयं ही उत्तर दिया है कि वाचना-भेद होने से संभव है समाचारी में भेद हो । और कथंचित् असाम्भोगिक सम्बन्ध हो । आगमतत्त्ववेत्ता मुनि जम्बूविजय जी ने ' आवश्यकचूर्णि को आधार बनाकर इस तर्क का खण्डन किया है । उन्होंने तर्क दिया है कि यदि पृथक-पृथक् वाचनाओं के आधार पर द्वादशांगी पृथक्-पृथक् थी तो श्वेताम्बर और दिगम्बर के प्राचीन ग्रन्थों में इस का उल्लेख होना
१. (क) आचारांग अ० ४ सूत्र १३६ (ख) सूत्रकृतांग २ / १ / १५, २/२/४१ ॥ २. आवश्यकनिर्युक्ति १९२॥ ३. (क) विशेषावश्यकभाष्य गा. ५५० (ख) बृहत्कल्पभाष्य गा. १४४ (ग) तत्त्वार्थभाष्य १-२० (घ) सर्वार्थसिद्धि १-२० ॥ ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा इक्कारस गणहरा हुत्था । - कल्पसूत्र ॥ ५. एकवाचनिको यतिसमुदायो गणः । - कल्पसूत्र सुबोधिका वृत्ति ॥ ६. “ एवं रचयतां तेषां सप्तानां गणधारिनाम् । परस्परमजायन्त विभिन्नाः सूत्रवाचनाः । अकम्पिताऽचलभ्रात्रोः श्रीमेतार्यप्रभासयोः । परस्परमजायन्त सदृक्षा एव वाचनाः ॥ श्री वीरनाथस्य गणधरेष्वेकादशस्वपि । द्वयोर्द्वयोर्वाचनयोः साम्यादासन् गणा नव ॥' - त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र - पर्व १०, सर्ग ५, श्लोक १७३ से १७५ ।। ७. “सामिस्स जीवंते णव कालगता, जो य कालं करेति सो सुधम्मसामिस्स गणं देति, इंदभूती सुधम्मो य सामिम्मि परिनिव्वुए परिनिव्वुता।” आवश्यकचूर्णि, पृ. ३३९ ।। ८. “तीर्थंकरगणभृतां मिथो भिन्नवाचनत्वेऽपि साम्भोगिकत्वं भवति न वा ? तथा सामाचार्यादिकृतो भेदो भवति न वा ? इति प्रश्न उत्तरम् - - गणभृतां परस्परं वाचनाभेदेन सामाचार्या अपि कियान् भेदः सम्भाव्यते, तद्भेदे च कथंचिदसाम्भोगिकत्वमपि सम्भाव्यते ।" - सेनप्रश्न, उल्लास २, प्रश्न ८९ ॥ ९ सूयगडंगसुत - प्रस्तावना, पृष्ठ २८ - ३० ॥
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