Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Author(s): Abhaydevsuri, Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 480
________________ तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि धम्मे सया मणो ॥११॥ व्या० धर्मः मङ्गलम् उत्कृष्टम् अहिंसा संयमः तपः देवाः अपि तं नमस्यन्ति यस्य धर्मे सदा मनः।" - दशवै० हारि० । [पृ०८५२ पं०१६] “वत्थगंधमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य। अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चइ ॥२॥२॥ व्या०-वस्त्रगन्धालङ्कारानिति, अत्र वस्त्राणि चीनांशुकादीनि, गन्धाः कोष्ठपुटादयः, अलङ्काराः कटकादयः, अनुस्वारोऽलाक्षणिकः, स्त्रियोऽनेकप्रकाराः, शयनानि पर्यङ्कादीनि, चशब्द आसनाद्यनुक्तसमुच्चयार्थः, एतानि वस्त्रादीनि किम् ?, अच्छन्दाः अस्ववशा ये केचन न भुञ्जते नासेवन्ते, किं बहुवचनोद्देशेऽप्येकवचननिर्देशः ? विचित्रत्वात्सूत्रगतेर्विपर्ययश्च भवत्येवेतिकृत्वा, आह-नासौ त्यागीत्युच्यते, सुबन्धुवन्नासौ श्रमण इति सूत्रार्थः ।।"- दशवै० हारि० । [पृ० ८५४ पं०२४] “गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा । ... उज्जुआयताए सेढीए उववज्जमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा [भगवती० ३४।१।५५] एगसमइएण व त्ति एकः समयो यत्रास्त्यसावेकसमयिकः तेन विग्गहेणं ति ... गतिरेव विग्रहः विशिष्टो वा ग्रहः विशिष्टस्थानप्राप्तिहेतुभूता गतिर्विग्रहः तेन'' - भगवती० अभयदेव० ३४।१।५५ ॥ “एवं सूत्रं व्याख्येयम्- एकसमयेन वा विग्रहेणोत्पद्येतेति, विग्रहशब्दोऽत्रावच्छेदवचनः, न वक्रताभिधायी, इत्यतोऽयमर्थः- एकसमयेन वा अवच्छेदेन विरामेण । कस्यावच्छेदेन इति चेत् ? सामर्थ्याद् गतेरेव । एकसमयपरिमाणगतिकालोत्तरभाविना अवच्छेदेनोत्पद्येत''- तत्त्वार्थ० सिद्धसेन० २।२९॥ [पृ०८५५ पं०१४] [अत्र ठाणं इत्यस्मिन् ग्रन्थे हिन्दीभाषायां तेरापंथीआचार्यश्री नथमलजीलिखितं टिप्पनमुद्धियते] "प्रस्तुत सूत्र में गणित के दस प्रकार निर्दिष्ट हैं १. परिकर्म - यह गणित की एक सामान्य प्रणाली है। भारतीय प्रणाली में मौलिक परिकर्म आठ माने जाते हैं- (१) संकलन [जोड़] (२) व्यवकलन [बाकी], (३) गुणन [गुणन करना], (४) भाग [भाग करना], (५) वर्ग [वर्ग करना] (६) वर्गमूल [वर्गमूल निकालना] (७) घन घन करना] (८) घनमूल [घनमूल निकालना] । परन्तु इन परिकर्मों में से अधिकांश का वर्णन सिद्धान्त ग्रन्थों में नहीं मिलता । __ ब्रह्मगुप्त के अनुसार पाटी गणित में बीस परिकर्म हैं- (१) संकलित (२) व्यवकलित अथवा व्युत्कलिक (३) गुणन (४) भागहर (५) वर्ग (६) वर्गमूल (७) घन (८) घनमूल [९-१३] पांच जातियां' [अर्थात् पांच प्रकार के भिन्नों को सरल करने के नियम] (१४) त्रैराशिक (१५) व्यस्तत्रैराशिक (१६) पंचराशिक (१७) सप्तराशिक (१८) नवराशिक (१९) एकदसराशिक (२०) भाण्ड-प्रति-भाण्ड । प्राचीन काल से ही हिन्दू गणितज्ञ इस बात को मानते रहे हैं कि गणित के सब परिकर्म १. पांच जातियां ये हैं - (१) भाग जाति, (२) प्रभाग जाति, (३) भागानुबन्ध जाति, (४) भागापवाद जाति, (५) भाग-भाग जाति ।। २. बाह्यस्फुटसिद्धान्त, अध्याय १२, श्लोक १ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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