Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Author(s): Abhaydevsuri, Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 486
________________ तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि १४५ होती है । उन्होंने उपर्युक्त दस शब्दों की व्याख्या निम्न प्रकार दी । १. अंक गणित के परिकर्म [Fundamental Operation] २. अंक गणित के व्यवहार [Subject to Treatment] ३. रेखागणित [Geometry] ४. राशियों का आयतन आदि निकालना [Mensuration of Solid bodies] ५. भिन्न [Fraction] ६. सरल समीकरण [Simple Equation] ७. वर्ग समीकरण [Quadratic Equation] ८. घन समीकरण [Cubic Equation] ९. चतुर्थ घात समीकरण [Biquadratic Equation] १०. विकल्प गणित या क्रमचय-संचय [Combination & Permutation] दत्त द्वारा विषय की व्यापक रूप से समीक्षा किये जाने के उपरांत सर्वप्रथम कापडिया [१९३७ ई०] ने इस विषय का स्पर्श किया किन्तु निर्णय हेतु अतिरिक सामग्री प्राचीन जैन गणितीय ग्रन्थों आदि के अभाव में आपने अपना निर्णय सुरक्षित रखा । आपने लिखा किः It is extremely difficult to reconcile these two views especially when we have at present neither any acess to a commentary prior to the one mentioned above nor to any mathematical works of Jaina authorship which is earlier to Ganita Sara Samgraha. So under these circumstances I shall be excused if I reserve this matter for further research.' __ आयंगर [१९६७ ई०] उपाध्याय [१९७१ ई०] अग्रवाल [१९७२ ई०] जैन लक्ष्मीचंद] [१९८० ई०] ने अपनी कृतियों/लेखों में इस विषय का ऊहापोह किया है । स्थानांगसूत्र के विगत २-३ दशकों में प्रकाशित अनेक सटीक संस्करणों में अभयदेवसूरि की ही मान्यता का पोषण किया गया है। जैन विश्व भारती, लाडनूं से प्रकाशित संस्करण में ३ पृष्ठीय विस्तृत परिशिष्ट में इस विषय की विवेचना की गई है किन्तु वह भी परंपरानुरूप ही है । हम यहाँ क्रमिक रूप से परिकर्म, व्यवहार आदि शब्दों की अद्यावधि प्रकाशित व्याख्याओं की समीक्षा कर निष्कर्ष निकालने का प्रयास करेंगे । परिकम्म [परिकर्म] परिक्रियते अस्मिन् इति परिकर्म । अर्थात् जिसमें गणित की मूल क्रिया सम्पन्न की जाये उसे परिकर्म कहते हैं। परिकर्म शब्द जैन वाङ्मय के लिये नया नहीं है | अंग साहित्य के १. देखें सं०-१०, पृ० १३ । २. देखें सं०-१३, पृ० २५-२७ । ३. देखें सं०-११, पृ० २६ । ४. देखें सं०-१, पृ० ३०-५७ । ५. देखें सं०-८, पृ० ३७-४१, ४२ । ६. देखें सं०-१, पृ० ३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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