Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Author(s): Abhaydevsuri, Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 493
________________ १५२ तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि रूप में करते हुए बताया गया कि यदि पहले जो संख्या सोची जाती है उसे गच्छ, इच्छानुसार गुणन करने वाली संख्या वाञ्च्छ या इष्ट संख्या कहें तो पहले गच्छ संख्या को इष्ट संख्या से गुणा करते हैं, उसमें फिर इष्ट को मिलाते हैं, उस संख्या को पुनः गच्छ से गुणा करते हैं । तदनन्तर गुणनफल में इष्ट के दुगुने से भाग देने पर गच्छ का योग आ जाता है । अर्थात् यदि गच्छ = n, इष्ट = x तो प्राकृतिक संख्याओं का योग । S = n(nx + x) 2x इसी को विविच्छित, यादृच्छा, वाञ्च्छा, यावत्-तावत् राशि कहते हैं । इस सम्पूर्ण क्रिया को यावत्-तावत् कहते हैं । ___ जैन ने लिखा है कि इस शब्द का प्रयोग उन सीमाओं को व्यक्त करता है जिन परिणामों को विस्तृत करना होता है; अथवा सरल समीकरण की रचना करनी होती है । इसका अर्थ जहाँ तक वहाँ तक भी होता है ।'' ....हिन्दू बीजगणित में इस पारिभाषिक शब्द का बडा महत्व है, इस शब्द का उद्भव या तो यदृच्छा अर्थात् विवक्षित राशि से अथवा वाच्छा (अर्थात् इच्छित) राशि से हुआ है । वक्षाली हस्तलिपि में इसका प्रयोग कूटस्थिति नियम को ध्वनित करने हेतु हुआ है। यह भी सुझाव प्राप्त हुआ है कि इसका सम्बन्ध अनिर्धत (Indeterminate) अथवा अपरिभाषित अथवा अपरिभाषित इकाइयों की राशि से भी है । इस प्रकार जावं तावं से एक यह अर्थ भी ध्वनित होता प्रतीत होता है कि कोई भी संख्या को परिमित सीमा से लेकर उत्कृष्ट संख्येय तक ले जाते हैं तो जघन्य परीत असंख्येय के केवल एक कम होता ___आयंगर (१९६७ ई०) भी इस शब्द की व्याख्या करते समय जटिलता का अनुभव करते हैं, वे लिखते हैं कि The Word Yavat Tavat is the word for the unknown quantity in ancient Hindu Mathematics and provides the algebric symbol Ya (IT). It is difficult to account for this except by saying that it means the Science of Algebra in however redimentom form it may have existed. Besides the problem on indices in a general form. This subject may have included solutions of the problems of Arithmetics by assuming unknown quantities simple Summations." अग्रवाल ने अपने शोध-प्रबंध में इस गाथा के ९ विषयों की विवेचना तो की है किन्तु यावत् तावत् को स्पर्श भी नहीं किया । आखिर क्यों ? १. देखें सं० ८, पृ० ३७ । २. वहीं पृ० ४६ । ३. देखें सं०-१३, पृ० २६ । ४. देखें सं०-१०, पृ० ४८,४९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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