Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Author(s): Abhaydevsuri, Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 495
________________ १५४ तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि क्रिया की पुनरावृत्ति के समतुल्य है । जैनाचार्य वर्ग एवं घन करने की अपेक्षा अधिक जटिल क्रियाओं वर्गमूल एवं घनमूल निकालने में विशेष सिद्धहस्त थे । यदि वर्ग एवं घन को स्वतंत्र विषय की मान्यता दी गई तो उन्हें भी दी जानी चाहिये । लेकिन ऐसा नहीं किया गया । आखिर क्यों ? संभवतः उपर्युक्त प्रश्नों एवं अन्य कारणों को ही दृष्टिगत करते हुए दत्त ने भी लिखा कि "I have no doubt in my mind that "Varga' refers to quadratic equation "Ghan' refers to cubic equation and "Vargavarga' to biquadratic equation'. यद्यपि आज के उपलब्ध आगमों में हमें घन समीकरण एवं चतुर्थघात समीकरण के स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलते किन्तु वर्तमान में अनुपलब्ध ग्रन्थों में उनका पाया जाना अस्वाभाविक नहीं है । आगमिक ज्ञान के आधार पर रचित गणितसार संग्रह में तो ऐसे उल्लेख प्रचुर हैं अतः दत्त का कथन असत्य नहीं कहा जा सकता है । आयंगर एवं जैन ने भी उनका समर्थन किया १०. कप्पो (कल्प)-पाठ को स्वीकार करते हुए अभयदेवसूरि ने इसकी व्याख्या में लिखा है कि इससे लकडी की चिराई एवं पत्थरों की चिनाई का ज्ञान होता है । पाटीगणित में इसे क्रकचिका व्यवहार कहते हैं । अभयदेव ने इसको उदाहरण से भी समझाया है । स्थानांगसूत्र के सभी उपलब्ध संस्करणों में हमें यही पाठ एवं अर्थ मिलता है किन्तु दत्त, कापडिया, उपाध्याय, अग्रवाल एवं जैन आदि सभी ने इसे विकप्पो रूप में उद्धृत किया है एवं इसका अर्थ विकल्प (गणित) किया है । विकल्प एवं भंग जैन साहित्य में क्रमचय एवं संचय के लिये आये हैं । जैन ग्रन्थों में इस विषय को विशुद्धता एवं विशिष्टता के साथ प्रतिपादित किया गया है। क्रकचिका व्यवहार, व्यवहारों का ही एक भेद होने तथा विकल्प (अथवा भंग) गणित के विषय का दार्शनिक विषयों की व्याख्या में प्रचुरता एवं अत्यन्त स्वाभाविक रूप से प्रयोग, यह मानने को विवश करता है कि विकल्पगणित जैनाचार्यो में ही नहीं अपितु प्रबुद्ध श्रावकों के जीवन में भी रच-पच गया था, तभी तो विषय के उलझते ही वे विकल्पगणित के माध्यम से उसे समझाने लगते थे । ऐसी स्थिति में विकल्पगणित को गणित विषयों की सूची में भी समाहित न करना समीचीन नहीं कहा जा सकता। उल्लेखनीय है कि विकल्प गणित कोई सरल विषय नहीं था तभी तो अन्य समकालीन लोगों ने इसका इतना उपयोग नहीं किया । जैन ही इसमें लाघव को प्राप्त थे । अतः विकप्पो त का अर्थ विकल्प (गणित) ही है । विषय के समापन से पूर्व विषय से सम्बद्ध कतिपय अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख भी १. देखें सं० १३, पृ०२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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