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तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
भी किया जा सकता है कि हेमराज ने संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त विषयक गणित पर १७वीं शताब्दी में गणितसार नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की । असंख्यात एवं अनन्त के जटिल विषयों को परिकर्म के अन्तर्गत मानना किंचित् भी उचित नहीं, क्योंकि परिकर्म में तो गणित ( लौकिक गणित ) की मूलभूत क्रियायें आती हैं ।
रज्जु, पल्य आदि की गणना सामान्य परिकर्मो से असंभव है ।
घनांगुल, जगश्रेणी एवं पल्य को अपने सामान्य अर्थ में प्रयुक्त करने पर - पल्योपम के अर्हच्छेद
असंख्यात
श्रेणी = ७ राजू =
घनांगुल
यदि पल्योपम P हो तो log2p/ असंख्यात
", घनांगुल
स्पष्टतः राजू (रज्जु) एक असंख्यात राशि हुई । असंख्यात संकेन्द्री वलयाकार वृत्तों की शृंखला में अन्तिम स्वयंभूरमण द्वीप का व्यास रज्जु बताया गया है । फलतः इस विधि से भी इसका मान असंख्यात ही मिलता है ।
राजू =
प्रो० घासीराम जैन ने आइंस्टीन के विवादास्पद संख्यात फैलने वाले लोक की त्रिज्या के आधार से प्राप्त घनफल की लोक के आयतन से तुलना करके रज्जु (राजू) का मान प्राप्त किया ।
यह मान
१.४५ x १०२१ मील एवं
१.६३ x १०२१ मील है । एक अन्य रीति से यह मान
१.१५ x १०२१ मील प्राप्त होता है
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किन्तु घासीराम जैन द्वारा उद्धृत मान अपूर्ण है, क्योंकि ये सभी कल्पनाओं एवं अभिधारणाओं पर आश्रित हैं । रज्जु को तो असंख्यात रूप में ही स्वीकार करना उपयुक्त है । यह स्वीकार करने में किंचित् भी संकोच नहीं होना चाहिये कि रज्जु शुल्व काल के तुरन्त बाद से भारतीय गणित में क्षेत्रगणित के सन्दर्भ में आया है । भले ही वह मापने वाली रस्सी रहा हो या मापन क्रिया । यह शब्द रेखागणित तथा त्रिभुज, चतुर्भुज की चारों भुजाओं के योग के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है। तथापि यह आवश्यक नहीं है कि यह इस गाथा या सिद्धान्त ग्रन्थों में भी इसी अर्थ में आया हो । इस विषय के विस्तार में न जाकर हम यहाँ इतना कहना उचित समझते हैं कि प्रस्तुत गाथा में रज्जु शीर्षक हमें उस विषय की ओर इंगित करता है जिसमें लोक के विस्तार, लोक संरचना, जघन्य परीत एवं जघन्य युक्त एवं जघन्य असंख्यात १. देखें सं०-६, पृ० २२-२३ । २. देखें सं०-५, पृ० ९२ । ३. देखें सं०-११ पृ० २१५, २१६ ।
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