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तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
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२. ववहारो (व्यवहार) :___ इस शब्द की व्याख्या अभयदेवसूरि ने श्रेणी व्यवहार आदि पाटीगणित के रूप में तथा दत्त महोदय ने अंकगणित के व्यवहार रूप में की है । ब्रह्मगुप्त ने व्यवहार के ८ प्रकार बताये
१. मिश्रक व्यवहार,
५. चिति व्यवहार, २. श्रेणी व्यवहार,
६. क्रकचिका व्यवहार, ३. क्षेत्र व्यवहार,
७. राशि व्यवहार, ४. खात व्यवहार,
८. छाया व्यवहार महावीराचार्य के गणितसारसंग्रह में भी सभी प्रकरण उपलब्ध हैं उससे इनकी विषयवस्तु का सुगमता से निर्धारण किया जा सकता है । श्रेणी व्यवहार गणितके क्षेत्र में जैन-मतावलम्बियों का लाघव श्लाघनीय है, तिलोयपण्णत्ति एवं धवला के साथ ही त्रिलोकसार के अन्तःसाक्ष्य' के अनुसार प्राचीन काल में मात्र धाराओं पर ही एक विस्तृत ग्रन्थ उपलब्ध था । फलतः विभिन्न व्यवहारों में श्रेणी व्यवहार के प्रमुख होने के कारण शब्द के स्पष्टीकरण में उसको प्रमुखता देते हुए लिखना स्वाभाविक प्रतीत होता है। पाटीगणित शब्द तो जैन गणित सहित सम्पूर्ण भारतीय गणित में प्रचलित है। श्रीधर (७५० ई०) कृत पाटीगणित, गणितसार, गणिततिलक; भास्कर (११५० ई०) कृत लीलावती, नारायण (१३५६ ई०) कृत गणितकौमुदी; मुनीश्वर (१६५८ ई०) कृत पाटीसार इस विषय के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों में बीस परिकर्म एवं आठ व्यवहारों का वर्णन है । अतः कहा जा सकता है कि गणितसारसंग्रह की सम्पूर्ण सामग्री परिकर्म एवं व्यवहार इन दोनों में ही समाहित है। ___ वर्तमान में व्यवहारगणित शब्द का प्रयोग पाटीगणित की उस प्रक्रिया के लिए होता है जिसमें गुणक संख्या के योगात्मक खण्ड करके गुण्य से गुणा किया जाये । जिस समय बडी संख्याओं की गुणनविधि का प्रचलन नहीं हुआ था उस समय गुणक संख्या को कई समतुल्य खण्डों में विभाजित कर पृथक्-पृथक् गुणा करके उस गुणनफल को जोड दिया जाता था, किन्तु जैनों की गुणन क्रिया में दक्षता एवं गणितीय ज्ञान की परिपक्वता को दृष्टिगत करते यह अनुमान करना निरर्थक ही है कि व्यवहार गणित गुणन के इस सन्दर्भ में आया हो सकता है । उपाध्याय, व्यवहार गणित का अर्थ Practical Arithmatics करते हैं । जब कि Srinivas lengar ने लिखा है कि "Vyavahar means applications of arithmatics to concrete problems (Applied Mathematics)' संक्षेप में ववहारो का अर्थ पाटीगणित के व्यवहार करना उपयुक्त है ।
१. त्रिलोकसार, गाथा-९१ । २. धारा का अर्थ Sequence है । ३. देखें सं०-१३, पृ०३२ ।
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