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तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
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१०. कला गणित में इसे 'क्रकच-व्यवहार' कहते हैं । यह पाटीगणित का एक भेद है। इससे लकड़ी की चिराई और पत्थरों की चिनाई आदि का ज्ञान होता है । जैसे-एक काष्ठ मूल में २० अंगुल मोटा है और ऊपर में १६ अंगुल मोटा है । वह १०० अंगुल लम्बा है। उसको चार स्थानों में चीरा तो उसकी हस्तात्मक चिराई क्या होगी ? मूल मोटाई और ऊपर की मोटाई का योग किया- २० + १६ = ३६ । इसमें २ का भाग दिया ३६ , २ = १८। इसको लम्बाई से गुणा किया- १०० x १८ = १८०० । फिर इसे चीरने की संख्या से गुणा किया १८०० x ४ = ७२०० । इसमें ५७६ का भाग दिया ७२०० : ५७६ = १२ १/२। यह हस्तात्मक चिराई है ।
सूत्रकृतांग २।१ की व्याख्या के प्रारंभ में 'पौंडरीक' शब्द के निक्षेप के अवसर पर वृत्तिकार ने एक गाथा उद्धृत की है, उसमें गणित के दस प्रकारों का उल्लेख किया है। वहां नौ प्रकार स्थानांग के समान ही हैं । केवल एक प्रकार भिन्न रूप से उल्लिखित है । स्थानांग का कल्प शब्द उसमें नहीं है । वहां ‘पुद्गल' शब्द का उल्लेख है, जो स्थानांग में प्राप्त नहीं है ।"
स्थानाङ्गसूत्रे दशमेऽध्ययने ७४० तमे सूत्रे गणितविषयक एक उल्लेखः प्राप्यते । एतस्मिन् विषये आधुनिकैः विद्वद्भिः यथा विचार्यते तदुपदर्शनार्थं पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसंस्थानेन [P.V. Research Institute, I.T.I. Road, B.H.U. VARANASI-5 U.P.) 1987 A.D. aof yonifera जैन विद्या के आयाम ग्रन्थाङ्क १ Aspects of Jainology Vol.I मध्ये एको विस्तृतो निबन्धः प्रकाशितो वर्तते सोऽत्र यथायोगं संस्कार्य यथावदेवोपन्यस्यस्तेऽस्माभिः । अत्र पाठकैः क्षीरनीरविवेकन्यायेन स्वधिया विचार्यैव तत्त्वं ग्राह्यं त्याज्यं वा । किञ्च, लेखकैरशुद्धान् पाठानवलम्ब्य यच्चर्चितं तदस्मान्निबन्धादपसारितमस्माभिरित्यवश्यं विज्ञेयम्- सम्पादकः ।] ___ "जैन आगमों में निहित गणितीय अध्ययन के विषय
- अनुपम जैन एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल' जैन परम्परा में तीर्थंकरों के उपदेशों एवं उन उपदेशों की उनके प्रधान शिष्यों [गणधरों) द्वारा की गई व्याख्या को समाहित करने वाले समस्त शास्त्र आगम की संज्ञा से अभिहित किये जाते हैं । वर्तमान में उपलब्ध समस्त आगमों की रचना ५वीं शती ई० पू० से ५ वीं शती ई० के मध्य जैन परम्परा के वरिष्ठ आचार्यो द्वारा भगवान् महावीर के उपदेशों के आधार पर की गयी है । जैनधर्म की दोनों धाराएँ [दिगम्बर एवं श्वेताम्बर] आगमों की नामावली के सन्दर्भ में एकमत नहीं हैं । जहाँ दिगम्बर परम्परा षड्खंडागम, कषायप्राभृति एवं आचार्य कुन्दकुन्द
के साहित्य को आगम के रूप में मान्यता देती है, वहीं श्वेताम्बर परम्परा देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण . १. व्याख्याता (गणित) शासकीय महाविद्यालय, थ्यावरा (राजगढ) म० प्र० ४६५६७४). २. रीडर, गणित विभाग,
उच्चशिक्षा संस्थान, मेरठ, वि० वि० मेरठ (उ० प्र०)
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