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तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
(४) मध्य
(१) षड्ज-नासा, कंठ, छाती, तालु, जिह्वा और दन्त-इन छह स्थानों से उत्पन्न होने वाले
स्वर को षड्ज कहा जाता है । (२) ऋषभ-नाभि से उठा हुआ वायु कंठ और शिर से आहत होकर वृषभ की तरह गर्जन
करता है, उसे ऋषभ कहा जाता है । गान्धार-नाभि से उठा हुआ वायु कण्ठ और शिर से आहत होकर व्यक्त होता है और इसमें एक विशेष प्रकार की गन्ध होती है, इसलिए इसे गान्धार कहा जाता है । मध्यम-नाभि से उठा हुआ वायु वक्ष और हृदय में आहत होकर फिर नाभि में जाता है।
यह काया के मध्य-भाग में उत्पन्न होता है, इसलिए इसे मध्यम स्वर कहा जाता है । (५) पंचम-नाभि से उठा हुआ वायु वक्ष, हृदय, कंठ और सिर से आहत होकर व्यक्त होता
है । यह पांच स्थानों से उत्पन्न होता है, इसलिए इसे पंचम स्वर कहा जाता है । (६) धैवत-यह पूर्वोत्थित स्वरों का अनुसन्धान करता है, इसलिए इसे धैवत कहा जाता है। (७) निषाद-इसमें सब स्वर निषण्ण होते हैं-इससे सब अभिभूत होते हैं, इसलिए इसे निषाद
कहा जाता है । बौद्ध परम्परा में सात स्वरों के नाम ये हैंसहर्घ्य, ऋषभ, गान्धार, धैवत, निषाद, मध्यम तथा कैशिक ।२ कई विद्वान् सहर्ण्य को षड्ज के पर्याय स्वरूप तथा कैशिक को पंचम स्थान पर मानते है ।
११.स्वर स्थान (सू.४०) स्वर के उपकारी-विशेषता प्रदान करने वाले स्थान को स्वर स्थान कहा जाता है । षड्जस्वर का स्थान जिह्वाग्र है। यद्यपि उसकी उत्पत्ति में दूसरे स्थान भी व्याप्त होते हैं और जिह्वाग्र भी दूसरे स्वरों की उत्पत्ति में व्याप्त होता है, फिर भी जिस स्वर की उत्पत्ति में जिस स्थान का व्यापार प्रधान होता है, उसे उसी स्वर का स्थान कहा जाता हैं।
प्रस्तुत सूत्र में सात स्वरों के सात स्वर स्थान बतलाए गए हैं । नारदी शिक्षा में ये स्वर स्थान कुछ भिन्न प्रकार से उल्लिखित हुए हैं
षड्ज कंठ से उत्पन्न होता है, ऋषभ सिर से, गांधार नासिका से, मध्यम उर से, पंचम उर, सिर तथा कंठ से, धैवत ललाट से तथा निषाद शरीर की संधियों से उत्पन्न से होता है ।
इन सात स्वरों के नामों की सार्थकता बताते हुए नारदीशिक्षा में कहा गया है कि- ‘षड्ज'संज्ञा १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७४ । २. लंकावतारसूत्र- अथ रावणो......सहयॆ-ऋषभ-गान्धार-धैवत-निषाद-मध्यमकैशिक-गीतस्वरग्राम-मूर्च्छनादियुक्तेन....... गाथाभिर्गीतैरनुगायति स्म ॥ ३. जरनल ऑफ म्यूजिक एकेडमी, मद्रास, सन १९४५, खंड १६, पृष्ठ ३७ ॥ ४. नारदीशिक्षा १।५।६,७ : कण्ठादुत्तिष्ठते षड्ज:, शिरसस्त्वृषभ: स्मृतः । गान्धारस्त्वनुनासिक्य, उरसो मध्यम: स्वरः ॥ उरस: शिरस: कण्ठादुत्थित: पंचम: स्वर: । ललाटाढैवतं विद्यान्निषादं सर्वसन्धिजम् ।।
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