________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि की सार्थकता इसमें है कि वह नासा, कण्ठ, उर, तालु, जिह्वा तथा दन्त इन छह स्थानों से उद्भूत होता है । 'ऋषभ' की सार्थकता इसमें है कि वह ऋषभ अर्थात् बैल के समान नाद करने वाला है । 'गांधार' नासिका के लिए गन्धावह होने के कारण अन्वर्थक बताया गया है । 'मध्यम' की अन्वर्थकता इसमें है कि वह उरस् जैसे मध्यवर्ती स्थान में आहत होता है । ‘पंचम' संज्ञा इसलिए सार्थक है कि इसका उच्चारण नाभि, उर, हृदय, कण्ठ तथा सिरइन पांच स्थानों में सम्मिलित रूप से होता है ।
१२. (सू.४१) नारदीशिक्षा में प्राणियों की ध्वनि के साथ सप्त स्वरों का उल्लेख नितान्त भिन्न प्रकार से मिलता है'- षड्ज स्वर-मयूर । ऋषभ स्वर-गाय । गांधार स्वर-बकरी । मध्यम स्वर - क्रौंच । पंचम स्वर-कोयल । धैवत स्वर-अश्व । निषाद स्वर-कुंजर ।
१५. नरसिंघा (सू.४२) एक प्रकार का बड़ा बाजा जो तुरही के समान होता है । यह फूंक से बजाया जाता है । जिस स्थान से फूंका जाता है वह संकडा और आगे का भाग क्रमश: चौडा होता चला जाता है ।
१६.ग्राम (सू.४४) यह शब्द समूहवाची है । संवादी स्वरों का वह समूह ग्राम है जिसमें श्रुतियां व्यवस्थित रूप में विद्यमान हों और जो मूर्च्छना, तान, वर्ण, क्रम, अलंकार इत्यादि का आश्रय हो । ग्राम तीन हैं
षड्जग्राम, मध्यमग्राम और गान्धारग्राम ।
षड्जग्राम-इसमें षड्ज स्वर चतुःश्रुति, ऋषभ त्रिश्रुति, गान्धार द्विश्रुति, मध्यम चतुःश्रुति, पञ्चम चतुःश्रुति, धैवत त्रिश्रुति और निषाद द्विश्रुति होता है। इसमें ‘षड्ज-पञ्चम', 'ऋषभधैवत', 'गान्धार-निषाद' और ‘षड्ज-मध्यम'-ये परस्पर संवादी हैं। जिन दो स्वरों में नौ अथवा तेरह श्रुतियों का अन्तर हो, वे परस्पर संवादी हैं। ___ शार्ङ्गदेव कहते हैं- षड्जग्राम नामक राग षड्जमध्यमा जाति से उत्पन्न सम्पूर्ण राग है । इसका ग्रह एवं अंशस्वर तार षड्ज है, न्यासस्वर मध्यम है, अपन्यासस्वर षड्ज है, अवरोही
और प्रसन्नान्त अलंकार इसमें प्रयोज्य हैं। इसकी मूर्च्छना षड्जादि(उत्तरमन्द्रा) है। इसमें काकलीनिषाद एवं अन्तर-गान्धार का प्रयोग होता है; वीर, रौद्र, अद्भुत रसों में नाटक की सन्धि में इसका विनियोग है । इस राग का देवता बृहस्पति है और वर्षाऋतु में, दिन के प्रथम प्रहर में, यह गेय है। यह शुद्ध राग है । १. भारतीय संगीत का इतिहास, पृष्ठ १२१। २. नारदीशिक्षा १।५।४,५: षड्जं मयूरो वदति, गावो रंभन्ति चर्षभम्। अजा वदति तु गान्धारम्, क्रौंचो वदति मध्यमम् ॥ पुष्पसाधारणे काले, पिको वक्ति च पंचमम् । अश्वस्तु धैवतं वक्ति, निषादं कुञ्जरः ॥ ३. मतङ्ग : भरतकोश, पूष्ठ १८६ ॥ ४. भरत : (बम्बई संस्करण) अध्याय २८ पृष्ठ ४३४ ॥ ५. संगीतरत्नाकर (अड्यार संस्करण) राग, पृष्ठ २६-२७ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org