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तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि ___ मध्यमग्राम-इसमें 'ऋषभ-पञ्चम', 'ऋषभ-धैवत', 'गान्धार-निषाद' और 'षड्ज-मध्यम' परस्पर संवादी हैं । शार्ङ्गदेव का विधान है कि- मध्यमग्राम राग का विनियोग हास्य एवं श्रृंगार में है । यह राग गान्धारी, मध्यमा और पञ्चमी जातियों से मिलकर उत्पन्न हुआ है ।
काकली-निषाद का प्रयोग इसमें विहित है। इस राग का अंश-ग्रह-स्वर मन्द्र षड्ज, न्यायस्वर मध्यम और मूर्च्छना ‘सौवीरी' है । प्रसन्नादि और अवरोही के द्धारा मुखसन्धि में इसका विनियोग है । यह राग ग्रीष्म ऋतु के प्रथम प्रहर में गाया जाता है । महर्षि भरत ने सात शुद्ध रागों में इसे गिना है । इसमें षड्जस्वर चतुःश्रुति, ऋषभ त्रिश्रुति, गान्धार द्विश्रुति, मध्यम चतुःश्रुति, पञ्चम त्रिश्रुति, धैवत चतु:श्रुति और निषाद द्विश्रुति होता है ।।
गान्धार ग्राम-महर्षि भरत ने इसकी कोई चर्चा नहीं की है। उन्होंने केवल दो ग्रामों को ही माना है । कुछ आचार्यों ने गान्धार ग्राम और तज्जन्य रागों का वर्णन करके लौकिक विनोद के लिए भी उनके प्रयोग का विधान किया है ।
परन्तु अन्य आचार्यों ने लौकिक विनोद के लिए ग्रामजन्य रागों का प्रयोग निषिद्ध बतलाया है । नारद की सम्मति के अनुसार गान्धारग्राम का प्रयोग स्वर्ग में ही होता है। इसमें षड्ज स्वर त्रिश्रुति, ऋषभ द्विश्रुति, गान्धार चतुःश्रुति, मध्यम-पञ्चम और धैवत त्रि-त्रिश्रुति और निषाद चतुःश्रुति होता है । गान्धार ग्राम का वर्णन केवल संगीतरत्नाकर या उसके आधार पर लिखे गए ग्रन्थों में है। ___ इस ग्राम के स्वर बहुत टेढ़े-मेढ़े हैं अत:गाने में बहुत कठिनाइयां आती हैं। इसी दुरूहता के कारण इसका प्रयोग स्वर्ग में होता है'-ऐसा कह दिया गया है ।
वृत्तिकार के अनुसार ‘मंगी' आदि इक्कीस प्रकार की मूर्च्छनाओं के स्वरों की विशद व्याख्या पूर्वगत के स्वर-प्राभृत में थी । वह अब लुप्त हो चुका है। इस समय इनकी जानकारी उसके आधार पर निर्मित भरतनाट्य, वैशाखिल आदि ग्रन्थों से जाननी चाहिए ।
१७-१९. मूर्च्छना (सू.४५-४७) इसका अर्थ है-सात स्वरों का क्रमपूर्वक आरोह और अवरोह । महर्षि भरत ने इसका अर्थ सात स्वरों का क्रमपूर्वक प्रयोग किया है । मूर्च्छना समस्त रागों की जन्मभूमि है । यह चार प्रकार की होती है ।
१. पूर्णा, २. षाडवा, ३. औडुविता, ४. साधारणा ।६।। अथवा-१. शुद्धा, २. अंतरसंहिता, ३. काकलीसंहिता, ४. अन्तरकाकलीसंहिता । तीन सूत्रों (४५, ४६, ४७) में षड्ज आदि तीन ग्रामों की सात-सात मूर्च्छनाएं उल्लिखित हैं।
१. संगीतरत्नाकर (अड्यार संस्करण) राग, पृष्ठ ५६ ॥ २. प्रो.रामकृष्णकवि, भरतकोश, पृष्ठ ५४२ । ३. प्रो.रामकृष्ण कवि, भरतकोश, पृष्ठ ५४२ ॥ ४. वही, पृष्ठ ५४२॥ ५. संगीतरत्नाकर, स्वर प्रकरण, पृष्ठ १०३, १०४ ।। ६. वही, पृष्ठ ११४ ॥ ७. भरत अध्याय २८, पृष्ठ ४३५ ॥
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