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स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन नहीं हैं । टीकाकार ने स्पष्टीकरण में यह सूचित किया है कि प्रथम वर्ग में दश अध्ययन हैं । पर यह निश्चित है कि क्षत-विक्षत आगम-निधि का ठीक समय पर संकलन कर आचार्य नागार्जुन ने जैन शासन पर महान् उपकार किया है ! इसलिए आचार्य देववाचक ने बहुत ही भावपूर्ण शब्दों में नागार्जुन की स्तुति करते हुए लिखा है- मृदुता आदि गुणों से सम्पन्न, सामायिक श्रुतादि के ग्रहण से अथवा परम्परा से विकास की भूमिका पर क्रमशः आरोहणपूर्वक वाचकपद को प्राप्त ओघश्रुतसमाचारी में कुशल आचार्य नागार्जुन को में प्रणाम करता हूं ।२ ।
दोनों वाचनाओं का समय लगभग समान है। इसलिए सहज ही यह प्रश्न उबुद्ध होता है कि एक ही समय में दो भिन्न-भिन्न स्थानों पर वाचनाएं क्यों आयोजित की गईं ? अनेक संभावनाएं की जा सकती हैं । पर उनका निश्चित आधार नहीं है। यही कारण है कि माथुरी और वल्लभी वाचनाओं में कई स्थानों पर मतभेद हो गये । यदि दोनों श्रुतधर आचार्य परस्पर मिल कर विचारविमर्श करते तो संभवतः वाचनाभेद मिटता । किन्तु परिताप है कि न वे वाचना के पूर्व मिले और न बाद में मिले । वाचनाभेद उनके स्वर्गस्थ होने के बाद भी बना रहा, जिससे वृत्तिकारों को 'नागार्जुनीया पुनः एवं पठन्ति' आदि वाक्यों का निर्देश करना पड़ा ।
पञ्चम वाचना :- वीर-निर्वाण की दशवीं शताब्दी (९८० या ९९३ ई.सन् ४५४-४६६) में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में पुनःश्रमण-संघ एकत्रित हुआ । स्कन्दिल और नागार्जुन के पश्चात् दुष्काल ने हृदय को कम्पा देने वाले नाखूनी पंजे फैलाये । अनेक श्रुतधर श्रमण कालकवलित हो गये । श्रुत की महान् क्षति हुयी । दुष्काल परिसमाप्ति के बाद वल्लभी में पुनः जैन संघ सम्मिलित हुआ । देवर्द्धिगणि ग्यारह अंग और एक पूर्व से भी अधिक श्रुत के ज्ञाता थे । श्रमणसम्मेलन में त्रुटित और अत्रुटित सभी आगमपाठों का स्मृति-सहयोग से संकलन हुआ । श्रुत को स्थायी रूप प्रदान करने के लिए पुस्तकारूढ किया गया । आगम-लेखन का कार्य आर्यरक्षित के युग में अंश रूप से प्रारम्भ हो गया था । अनुयोगद्वार में द्रव्यश्रुत और भावश्रुत का उल्लेख है । पुस्तक लिखित श्रुत को द्रव्यश्रुत माना गया है ।
आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन के समय में आगमों को लिपिबद्ध किया गया था, ऐसा उल्लेख मिलता है। किन्तु देवर्द्धिगणि के कुशल नेतृत्व में आगमों का व्यवस्थित संकलन और लिपिकरण हुआ है, इसलिये आगम-लेखन का श्रेय देवर्द्धिगणि को प्राप्त है । इस सन्दर्भ में एक प्रसिद्ध गाथा १. अन्तकृद्दशा, प्रस्तावना -पृ.२१ से २४ तक ।। २. (क) मिउमद्दवसंपण्णे अणपव्विं वायगत्तणं पत्ते । ओहसुयसमायारे णागज्जुणवायए वंदे ।। -नन्दीसूत्र-गाथा ३५, (ख) लाइफ इन ऐन्श्येंट इंडिया एज डेपिक्टेड इन द जैन कैन्ससपृ.३२-३३ -ला. इन ए.इ.) डा. जगदीशचन्द्र जैन बम्बई, १९४७, (ग) योगशास्त्रवृत्ति प्र.३, पृ.२०७ ॥ ३. “से किं तं.....दव्वसुअं? पत्तयपोत्थयलिहिअं' -अनुयोगद्वार सूत्र ॥ ४. “जिनवचनं च दुष्षमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुनस्कन्दिलाचार्य्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् ।” -योगशास्त्रवृत्ति, प्रकाश ३, पत्र २०७॥
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