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स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
किन्तु माथुरी वाचना के समय बिहार से हटकर उत्तर प्रदेश केन्द्र हो गया था। मथुरा से ही कुछ श्रमण दक्षिण की ओर आगे बढ़े थे। जिसका सूचन हमें दक्षिण में विश्रुत माथुरी संघ के अस्तित्व से प्राप्त होता है ।
नन्दीसूत्र की चूर्णि और मलयगिरि वृत्ति के अनुसार यह माना जाता है कि दुर्भिक्ष के समय श्रुतज्ञान कुछ भी नष्ट नहीं हुआ था । केवल आचार्य स्कन्दिल के अतिरिक्त शेष अनुयोगधर श्रमण स्वर्गस्थ हो गये थे । एतदर्थ आचार्य स्कन्दिल ने पुनः अनुयोग का प्रवर्तन किया, जिससे सम्पूर्ण अनुयोग स्कन्दिल-सम्बन्धी माना गया ।
चतुर्थ वाचना :- जिस समय उत्तर-पूर्व और मध्य भारत में विचरण करने वाले श्रमणों का सम्मेलन मथुरा में हुआ था, उसी समय दक्षिण और पश्चिम में विचरण करने वाले श्रमणों की एक वाचना वीरनिर्वाण संवत् ८२७ से ८४० के आस-पास वल्लभी में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई । इसे 'वल्लभीवाचना' या 'नागार्जुनीयवाचना' की संज्ञा मिली। इस वाचना का उल्लेख भद्रेश्वर रचित कहावली ग्रन्थ में मिलता है, जो आचार्य हरिभद्र के बाद हुये । स्मृति के आधार पर सूत्र-संकलना होने के कारण वाचनाभेद रह जाना स्वाभाविक था। पण्डित दलसुख मालवणिया ने प्रस्तुत वाचना के सम्बन्ध में लिखा है “कुछ चूर्णियों में नागार्जुन के नाम से पाठान्तर मिलते हैं। पण्णवणा जैसे अंगबाह्य सत्र में भी पाठान्तर का निर्देश है। अत एव अनुमान किया गया कि नागार्जुन ने भी वाचना की होगी। किन्तु इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मौजूदा अंग आगम माथुरीवाचनानुसारी हैं, यह तथ्य है। अन्यथा पाठान्तरों में स्कन्दिल के पाठान्तरों का भी निर्देश मिलता ।अंग और अन्य अंगबाह्य ग्रन्थों की व्यक्तिगत रूप से कई वाचनाएं होनी चाहिए थीं । क्योंकि आचारांग आदि आगम साहित्य की चूर्णियों में जो पाठ मिलते हैं उनसे भिन्न पाठ टीकाओं में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। जिससे यह तो सिद्ध है कि पाटलिपुत्र की वाचना के पश्चात् समय-समय पर मूर्धन्य मनीषी आचार्यों के द्वारा वाचनाएँ होती रही हैं। उदाहरण के रूप में हम प्रश्नव्याकरण को ले सकते हैं। समवायाङ्ग में प्रश्नव्याकरण का जो परिचय दिया गया है, वर्तमान में उसका वह स्वरूप नहीं है । आचार्य श्री अभयदेव ने प्रश्नव्याकरण की टीका में लिखा है कि अतीत काल में वे सारी विद्याएँ इसमें थी। इसी तरह अन्तकृत्दशा में भी दश अध्ययन १. (क) नन्दीचूर्णि, पृ.९ (ख) नन्दीसूत्र गाथा ३३, मलयगिरि वृत्ति-पृ.५९ ।। २. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ.७पं. दलसुख मालवणिया ॥ ३. “इह हि स्कन्दिलाचार्यप्रवृत्तौ दुष्षमानुभावतो दुर्भिक्षप्रवृत्या साधूनां पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत् । ततो दुर्भिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघयोर्मेलापकोऽभवत् । तद्यथा एको वल्लभ्यामेको मथुरायाम्। तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परवाचनाभेदो जातः । विस्मृतयोर्हि सूत्रार्थयोः संघटने भवत्यवश्यवाचनाभेदो न काचिदनुपपत्तिः।" -ज्योतिष्करण्डक टीका ॥ ४. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ.७ ।। ५. वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना, पृ.११४ -गणि कल्याणविजय।। ६. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ.७ ।। ७. जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, पृ.१७० से १८५ -देवेन्द्रमुनि, प्र.-श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर ॥
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