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स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
हो सकती है -नौवीं शताब्दी में सम्पन्न हुई माथुरी और वल्लभी वाचना की परम्परा के जो श्रमण बचे थे, उन्हें जितना स्मृति में था, उतना ही देवर्द्धिगणि ने संकलन किया था, सम्भव है वे श्रमण बहुत सारे आलापक भूल ही गये हों, जिससे भी विसंवाद हुये हैं ।
ज्योतिषकरण्ड की वृत्ति में यह प्रतिपादित किया गया है कि इस समय जो अनुयोगद्वार सूत्र उपलब्ध है, वह माथुरी वाचना का है। ज्योतिषकरण्डक ग्रन्थ के लेखक आचार्य वल्लभी वाचना की परम्परा के थे । यही कारण है कि अनुयोगद्वार और ज्योतिषकरण्डक के संख्यास्थानों में अन्तर है। अनुयोगद्वार के शीर्षप्रहेलिका की संख्या एक सौ छानवे (१९६) अंको की है और ज्योतिषकरण्ड में शीर्षप्रहेलिका की संख्या २५० अंको की है।
___ इस प्रकार हम देखते हैं कि आगमों को व्यवस्थित करने के लिए समय-समय पर प्रयास किया गया है । व्याख्याक्रम और विषयगत वर्गीकरण की दृष्टि से आर्यरक्षित ने आगमों को चार भाग में विभक्त किया है- (१) चरणकरणानुयोग- कालिकश्रुत, (२) धर्मकथानुयोग- ऋषिभाषित उत्तराध्ययन आदि, (३) गणितानुयोग- सूर्यप्रज्ञप्ति आदि । (४) द्रव्यानुयोग- दृष्टिवाद या सूत्रकृत आदि । प्रस्तुत वर्गीकरण विषय-सादृश्य की दृष्टि से है । व्याख्याक्रम की दृष्टि से आगमों के दो रूप हैं- (१) अपृथक्त्वानुयोग, (२) पृथक्त्वानुयोग । आर्य रक्षित से पहले अपृथक्त्वानुयोग प्रचलित था । उसमें प्रत्येक सूत्र का चरण-करण, धर्मकथा, गणित और द्रव्य दृष्टि से विश्लेषण किया गया था । यह व्याख्या अत्यन्त ही जटिल थी। इस व्याख्या के लिए प्रकृष्ट प्रतिभा की आवश्यकता होती थी । आर्यरक्षित ने देखा- महामेघावी दुर्बलिका पुष्पमित्र जैसे प्रतिभासम्पन्न शिष्य भी उसे स्मरण नहीं रख पा रहे हैं, तो मन्दबुद्धि वाले श्रमण उसे कैसे स्मरण रख सकेंगे। उन्होंने पृथक्त्वानुयोग का प्रवर्तन किया, जिससे चरण-करण प्रभृति विषयों की दृष्टि से आगमों का विभाजन हुआ । जिनदासगणि महत्तर ने लिखा है कि अपृथक्त्वानुयोग के काल में प्रत्येक सूत्र का विवेचन चरणकरण आदि चार अनुयोगों तथा ७०० नयों में किया जाता था । पृथक्त्वानुयोग के काल में चारों अनुयोगों की व्याख्या पृथक्-पृथक् की जाने लगी।
नन्दीसूत्र में आगम साहित्य को अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य, इन दो भागों में विभक्त किया है। अंगबाह्य के आवश्यक, आवश्यकव्यतिरिक्त, कालिक, उत्कालिक आदि अनेक भेद-प्रभेद किये हैं । दिगम्बर परम्परा के तत्त्वार्थसूत्र की श्रुतसागरीय वृत्ति में भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो १. सामाचारीशतक, आगम स्थापनाधिकार-३८ ।। २. (क) सामाचारीशतक, आगम स्थापनाधिकार-३८, (ख) गच्छाचार, पत्र ३ से ४ ।। ३. “अपुहुत्ते अणुओगो चत्तारि दुवार भासई एगो । पहुत्ताणुओगकरणे ते अत्था तवो उ वुच्छिन्ना ।। देविंदवंदिएहिं महाणुभावेहिं रक्खिअ अज्जेहिं । जुगमासज्ज विहत्तो अणुओगो तो कओ चउहा ॥" -आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७७३-७७४ ।। ४. “जत्थ एते चत्तारि अणुयोगा पिहप्पिहं वक्खाणिज्जंति पहुत्ताणुयोगो, अपुहुत्ताणुजोगो पुण जं एक्ककं सुत्तं एतेहिं चउहिं वि अणुयोगेहिं सत्तहिं णयसतेहिं वक्खाणिज्जंति ।" -सूत्रकृताङ्गचूर्णि, पत्र -४ ।। ५. “तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तं जहा- अंगपविढं अंगबाहिरं च ।" -नन्दीसूत्र, सूत्र ७७ ।।
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