________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
९
विभिन्न दिशाओं में बढ़ती हुई श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के आचार्यों की नामशृङ्खला एक केन्द्र पर आ पहुंची थी । अब पुनः वह शृङ्खला विशृङ्खलित हो गयी थी ।
द्वितीय वाचना :- आगमसंकलन का द्वितीय प्रयास वीर- निर्वाण ३०० से ३३० के बीच हुआ । सम्राट खारवेल उड़ीसा प्रान्त के महाप्रतापी शासक । उन का अपर नाम " महामेघवाहन" था । उन्होंने अपने समय में एक बृहद् जैन सम्मेलन का आयोजन किया था, जिसमें अनेक जैन भिक्षु, आचार्य, विद्वान तथा विशिष्ट उपासक सम्मिलित हुए थे । सम्राट खारवेल को उनके कार्यों की प्रशस्ति के रूप में “धम्मराज”, “भिक्खुराज”, “ खेमराज" जैसे विशिष्ट शब्दों से सम्बोधित किया गया है । हाथी गुफा (उड़ीसा) के शिलालेख में इस सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन है । हिमवन्त स्थविरावली के अनुसार महामेघवाहन, भिक्षुराज खारवेल सम्राट ने कुमारी पर्वत पर एक श्रमण सम्मेलन का आयोजन किया था । प्रस्तुत सम्मेलन में महागिरि - परम्परा के बलिस्सह, बौद्धिलिङ्ग, देवाचार्य, धर्मसेनाचार्य, नक्षत्राचार्य, प्रभृति दो सौ जिनकल्पतुल्य उत्कृष्ट साधना करने वाले श्रमण तथा आर्य सुस्थित, आर्य सुप्रतिबद्ध, उमास्वाति, श्यामाचार्य, प्रभृति तीन सौ स्थविरकल्पी श्रमण थे । आर्या पोइणी प्रभृति ३०० साध्वियाँ, भिखुराय, चूर्णक, सेलक, प्रभृति ७०० श्रमणोपासक और पूर्णमित्रा प्रभृति ७०० उपासिकाएँ विद्यमान थीं ।
बलिस्सह, उमास्वाति, श्यामचार्य प्रभृति स्थविर श्रमणों ने सम्राट खारवेल की प्रार्थना को सन्मान देकर सुधर्मा - रचित द्वादशांगी का संकलन किया । उसे भोजपत्र, ताडपत्र और वल्कल पर लिपिबद्ध कराकर आगम वाचना के ऐतिहासिक पृष्ठों में एक नवीन अध्याय जोड़ा । प्रस्तुत वाचना भुवनेश्वर के निकट कुमारगिरि पर्वत पर, जो वर्तमान में खण्डगिरि उदयगिरि पर्वत के नाम से विश्रुत है, वहाँ • हुई थी, जहाँ पर अनेक जैन गुफाएं हैं जो कलिंग नरेश खारवेल महामेघवाहन के धार्मिक जीवन की परिचायिका हैं । इस सम्मेलन में आर्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध दोनों सहोदर भी उपस्थित थे। कलिंगाधिप भिक्षुराज ने इन दोनों का विशेष सम्मान किया था । हिमवन्त थेरावली के अतिरिक्त अन्य किसी जैन ग्रन्थ में इस सम्बन्ध में उल्लेख नहीं है । खण्डगिरि और उदयगिरि में इस सम्बन्ध में जो विस्तृत लेख उत्कीर्ण है, उससे स्पष्ट परिज्ञात होता है कि उन्होंने आगम-वाचना के लिए सम्मेलन किया था ।
तृतीय वाचना :- आगमों को संकलित करने का तृतीय प्रयास वीर - निर्वाण ८२७ से ८४० के मध्य हुआ । वीर - निर्वाण की नवमी शताब्दी में पुन: द्वादशवर्षीय दुष्काल से श्रुत-विनाश का भीषण आघात जैन शासन को लगा । श्रमण - जीवन की मर्यादा के अनुकूल आहार की प्राप्ति अत्यन्त कठिन हो गयी । बहुत-से श्रुतसम्पन्न श्रमण काल के अंक में समा गये । सूत्रार्थग्रहण, परावर्त्तन १. “सुट्ठियसुपडिबुद्धे, अज्जे दुन्ने वि ते नम॑सामि । भिक्खुरायकलिंगाहिवेण सम्माणिए जिट्ठे ॥” - हिमवंत स्थविरावली, गा. १० ॥ २. (क) जर्नल आफ दी बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी, - भाग १३, पृ. ३३६ (ख) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग १, पृ. ८२ (ग) जैनधर्म के प्रभावक आचार्य, -साध्वी संघमित्रा, पृ.१०-११ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.