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ऐसे ही है जैसे कोई चलनी को पानी से भरने का दावा करे ( 60 ) 1 मूच्छित मनुष्य संसाररूपी प्रवाह में तैरने के लिए बिल्कुल समर्थन नहीं होता है ( 37 ) । वह भोगों का अनुमोदन करने वाला होता है तथा दुःखों के भँवर में ही फिरता रहता है ( 38 ) । वह दिन-रात दुःखी होता हुआ जीता है । वह काल अकाल में तुच्छ वस्तुओं की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता रहता है । वह केवल स्वार्थपूर्ण संबंध का अभिलाषी होता है । वह धन का लालची होता है तथा व्यवहार में ठगने वाला होता है । वह बिना विचार किए कार्यों को करने वाला होता है तथा विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए बार-बार शस्त्रों / हिंसा का प्रयोग को ही महत्व देता है ( 26 ) ।
श्राध्यात्मिक प्रेरक तथा उनसे प्राप्त शिक्षा :
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यह मूच्छित मनुष्यों का जगत् है ऐसा होते हुए भी यह जगत् मनुष्य को ऐसे अनुभव प्रदान करने के लिए सक्षम है, जिनके द्वारा वह अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए प्रेरणा प्राप्त कर सकता है । मनुष्य कितना ही मूच्छित क्यों न हो फिर भी बुढ़ापा, मृत्यु और धनवैभव की अस्थिरता उसको एक बार जगत् के रहस्य को समझने के लिए बाध्य कर ही देते हैं । यह सच है कि कुछ मनुष्यों के लिए यह जगत् इन्द्रिय-तुष्टि का ही माध्यम बना रहता है ( 74 ), किन्तु कुछ मनुष्य ऐसे संवेदनशील होते हैं कि यह जगत् उनकी मूर्च्छा को खिर तोड़ ही देता है ।
मनुष्य देखता है कि प्रति क्षरण उसकी श्रायु क्षीण हो रही है । अपनी बीती हुई आयु को देखकर वह व्याकुल होता है और बुढ़ापे में उसका मन गड़बड़ा जाता है। जिनके साथ वह रहता है, वे ही आत्मीय जन उसको बुरा-भला कहने लगते हैं और वह भी उनको बुरा-भला कहने लग जाता है। बुढ़ापे की अवस्था में वह मनोरंजन
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