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प्राकृत भारती पुष्प - 23
आचारांग - चयनिका
सम्पादक :
डॉ. कमलचन्द सोमाणी प्रोफेसर, दर्शन-विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर (राजस्थान)
प्राकृत भारती अकादमी जयपुर
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प्रकाशक :
देवेन्द्रराज मेहता
सचिव, प्राकृत भारती अकादमी
जयपुर
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द्वितीय संस्करण: 1987
मूल्य : सजिल्द २५.००; अजिल्द १८.००
सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन
प्राप्ति-स्थान :
प्राकृत भारती अकादमी
3826, यति श्यामलालजी का उपाश्रय
मोतीसिंह भोमियों का रास्ता जयपुर-302003 (राजस्थान)
एम. एल. प्रिण्टर्स, जोधपुर
Acharanga Chayamika/Philosophy Kamal Chand Sogani/Udaipur/1987.
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अहिंसा-समता के
माध्यम
से
जन-जन को जगाने वाले
आचार्यों
को सादर समर्पित
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अनुक्रमणिका
i-xxiii 1-75 76-77 78--152
153
1. प्रकाशकीय 2. प्राक्कथन 3 प्रस्तावना 4. आचारांग चयनिका के सूत्र एवं हिन्दी अनुवाद 4. संकेत-सूची 5. व्याकरणिक-विश्लेषण एवं शब्दार्थ 6. टिप्पण
(क) द्रव्य-पर्याय (ख) जीव अथवा आत्मा (ग) लोक
(घ) कर्म-क्रिया 7. आचारांग चयनिका के विषयों की रूप-रेखां (i) आचारांग की दार्शनिक पृष्ठ-भूमि और
धर्म का स्वरूप (i) मूच्छित मनुष्य की अवस्था (iii) मूर्छा कैसे टूट सकती है ? (iv) जीवन-विकास के सूत्र (v) जागृत मनुष्य की अवस्था
(vi) महावीर का साधनामय जीवन 8. आचारांग-चयनिका एवं आचारांग का सूत्र-क्रम 9. सहायक पुस्तकें एवं कोश
153-155 155-156 156
157-158
158-159 159-160 160-161 161-162 162 163-165 166-167
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प्रकाशकीय
प्राकृत भारती अकादमी के 23 वें पुष्प के रूप में 'आचारांगचयनिका' का द्वितीय संस्करण पाठकों के कर-कमलों में समर्पित करते हुए प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है । प्राकृत भाषा में रचित श्रागम - साहित्य विशाल है । भारतीय जन-जीवन श्रीर संस्कृति के प्रवाह को समझने के लिए इसका श्रध्ययन महत्त्वपूर्ण है । श्रहिंसा और समता के आधार पर व्यक्ति और समाज के उत्थान के लिए इसका मार्ग-दर्शन अनूठा है । ऐसा साहित्य सर्वसाधारण के लिए सुलभ हो सके, इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही दर्शन के विद्वान् डॉ. कमलचन्द सोगाणी ने ग्रागमों की चयनिकाएँ तैयार की हैं । इन चयनिकाओं में से सर्व प्रथम 'आचारांग - चयनिका' प्रकाशित की जा रही है । इसमें श्राचारांग से चयनित सूत्र, उनका मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद और उनका व्याकरणिक- विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है । इस तरह पाठकों को विभिन्न प्रकार से इसका लाभ मिल सकेगा । शीघ्र ही उत्तराध्ययन- चयनिका श्रीर दशवेकालिक चयनिका प्राकृत भारती से प्रकाशित होगी । सम्भवतया श्रागम-चयनिकाओं का अध्ययन बृहदाकार श्रागमों के अध्ययन के प्रति रुचि जागृत कर सकेगा । प्राकृत भारती प्रकादमी का विश्वास है कि श्रागमों के अध्ययन को मुलभ बनाने से व्यक्ति में सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा उत्पन्न हो सकेगी और समाज में एक नयी चेतना का उदय हो सकेगा ।
अकादमी के संयुक्त सचिव एवं निदेशक तथा जैन विद्या के प्रकांड विद्वान् महोपाध्याय श्री विनयसागरजी के ग्रामारी हैं, जिनके सतत प्रयत्न से यह पुस्तक शोभन रूप में प्रकाशित हो रही है ।
प्रूफ संशोधन के लिए डॉ. सुषमा गांग एवं पुस्तक की सुन्दर छपाई के लिए कादमी एम. एल. प्रिण्टर्स, जोधपुर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन करता है ।
देवेन्द्रराज मेहता सचिव
राजरूप टांक
अध्यक्ष
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प्राक्कथन
गरिपिटक को ही द्वादशांगी कहते हैं । द्वादशांनी में वारहवाँ श्रंग दृष्टिवाद विलुप्त / विच्छिन्न होने से अंग-प्रविष्ट ग्रागमों में एकादशांग ही माने गये हैं । ग्यारह अंगों में भी आचारांग का सर्वप्रथम स्थान है । श्राचारांगसूत्र प्रचार-प्रधान ग्रागम होते हुए भी गूढ़ श्रात्म-दर्शनात्मक और अध्यात्मप्रधान भी है ।
श्रमण जीवन की मूल भित्ति भी प्राचार ही है, श्रमण-जीवन को साघना भी आचार पर ही निर्भर है और संघीय व्यवस्था भी प्राचार पर ही अवलम्बित है । यही कारण है कि श्राचार की श्रतिशय महत्ता का प्रतिपादन करते हुए आचारांग के चूर्णिकार' प्रोर वृत्तिकार' लिखते हैं कि "प्रतीत, वर्तमान और भविष्य में जितने भी तीर्थकर हुए हैं, विद्यमान हैं और होंगे, उन सभी ने सर्वप्रथम याचार का ही उपदेश दिया है, देते हैं और देंगे ।"
आचारांग नियुक्तिकार प्रचार को ही सिद्धिसोपान / श्रव्यावाघ सुख की भूमिका मानते हुए प्रश्नोत्तरात्मक शैली में कहते हैं कि, "अंग सूत्रों का सार प्राचार है, ग्राचार का सार अनुयोगार्थ है, अनुयोगार्थं का सार प्ररूपणा है, प्ररूपरणा का सार सम्यक् चारित्र है, सम्यक् चारित्र का सार निर्वाण है और निर्वाण का सार अव्यावाध सुख है ।"
नियुक्तिकार के मतानुसार आचारांग के पर्यायवाची दश नाम प्राप्त होते हैं - 1. आयार, 2. ग्रचाल, 3, आगाल, 4. आगर, 5. आसास, 2. आयरिस, 7. अंग, 8. आइण्ण, 9. आजाइ और 10. आमोक्ख ।
आचारांग सूत्र दो श्रुतस्कन्धों में उद्देशकों सहित 9 अध्ययन हैं और
1.
चूर्णि पृष्ठ
3. गाथा 16-17
3
विभक्त है । प्रथम श्रुतस्कन्ध में अनेक द्वितीय श्रुतस्कन्ध में चार चूलिकानों
2. शीलांक टीका पृष्ठ 6
4. गाथा 290
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सहित 16 अध्ययन हैं । रचना गद्य और पद्य में होते हुए भी गद्यःबहुल है । भापा-शास्त्र की रष्टि से प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीनतम है और द्वितीय श्रुतस्कन्ध कुछ परवर्तीकाल का है।
याचारांग सूत्र का प्रारम्भ ही प्रात्म-जिज्ञासा से होता है। इसमें प्रात्मइप्टि, अहिंसा, समता, वैराग्य, अप्रमाद, अनासक्ति, निस्पृहता, निस्संगता, सहिष्णुता, अचेलत्व, ध्यानसिद्धि, उत्कृष्ट संयम-साधना, तप की आराधना, मानसिक पवित्रता और प्रात्मशुद्धि-मूलक पवित्र जीवन का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है। इसके साथ ही इसमें श्रमण भगवान महावीर के छमस्य काल को उच्चतम जीवन/संयम साधना के वे विलुप्त अंग भी प्राप्त होते हैं जो आगम-साहित्य में अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं हैं । इस ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का अवलोकन करने पर यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि यदि साधनामय तपोपूत जीवन जीने की कला का शिक्षण प्राप्त करना हो तो साधक इस पागम ग्रन्थ-का अध्ययन अवश्यमेव करे ।
प्राचारांगसूत्र प्राकृत भाषा में होने के साथ-साथ दुरूह एवं विशाल भी है। इसका संस्कृत और हिन्दी प्रादि भाषात्मक व्याख्या साहित्य भी वृहदाकार होने से सामान्य पाठकों/जिज्ञासुओं के लिये इस अागम-ग्रन्थ का अध्ययन और रहस्य को समझ पाना अत्यन्त दुरुह नहीं होने पर भी कठिन तो अवश्य ही है।
प्राकृत भापा के सामान्य अभ्यासी अथवा अनभिज्ञ पाठक भी प्राचारांग मूत्र की महत्ता, इसमें प्रतिपादित जीवन के शाश्वत मूल्यों एवं प्रात्मविकासोन्मुखी प्रमुस-प्रमुख विशेषतानों को हृदयंगम कर सकें, जीवन-साधना के पवित्र रहस्य तथा इसके प्रत्येक पहलुओं को समझ सकें, इसी भावना के वशीभूत होकर डॉ. कमलचन्दजी सोगाणी ने इस चयनिका का संकलन/ निर्माण किया है।
प्रस्तुत चयनिका में प्राचारांगसूत्र के विशाल कलेवर में से वैशिष्ट्यपूर्ण केवल एक सौ उनतीस सूत्रों का चयन है और साथ ही प्रत्येक सूत्र का व्याकरण
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की दृष्टि से शाब्दिक हिन्दी अनुवाद भी । व्याकरणिक विश्लेषण में लेखक ने प्राकृत व्याकरण को दृष्टिपथ में रखते हुए प्रत्येक शब्द का मूल रूप, अर्थ विभक्ति यादि का जिस पद्धति से श्रालेखन / परीक्षण किया है वह उनकी स्वयं की ग्रनोखी शैली का परिचायक है । इस शैली से अध्ययन करने पर सामान्य पाठक / जिज्ञासु भी प्राकृत भाषा का सामान्य स्वरूप और प्रतिपाद्य विषय का हार्द सहज भाव से समझ सकता है ।
इस प्रशस्य और सफल प्रयास के लिये मेरे सन्मित्र डॉ. सोगाणी साधुवादार्ह हैं | मेरी मान्यता है कि इनकी यह शैली अनुवाद - विधा में एक नया आयाम अवश्य ही स्थापित करेगी ।
पाढ़ी पूर्णिमा, सं. 2040 जयपुर
म. विनयसागर
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प्रस्तावना
यह सर्व विदित है कि मनुप्य अपनी प्रारम्भिक अवस्था से ही रंगों को देखता है, ध्वनियों को सुनता है, स्पर्शो का अनुभव करता है, स्वादों को चखता है तथा गन्धों को ग्रहण करता है। इस तरह उसकी सभी इन्द्रियाँ सक्रिय होती हैं । वह जानता है कि उसके चारों ओर पहाड़ हैं, तालाव हैं, वृक्ष हैं, मकान हैं, मिट्टी के टीले हैं, पत्थर हैं इत्यादि । आकाश में वह सूर्य, चन्द्रमा और तारों को देखता है। ये सभी वस्तुएँ उसके तथ्यात्मक जगत् का निर्माण करती हैं । इस प्रकार वह विविध वस्तुओं के बीच अपने को पाता है। उन्हीं वस्तुओं से वह भोजन, पानी, हवा आदि प्राप्त कर अपना जीवन चलाता है । उन वस्तुओं का उपयोग अपने लिए करने के कारण वह वस्तुजगत् का एक प्रकार से सम्राट् वन जाता है। अपनी विविध इच्छाओं की तृप्ति भी बहुत सीमा तक वह वस्तु-जगत् से ही कर लेता है । यह मनुष्य की चेतना का एक आयाम है।
धीरे-धीरे मनुष्य की चेतना एक नया मोड़ लेती है । मनुष्य समझने लगता है कि इस जगत् में उसके जैसे दूसरे मनुष्य भी हैं, जो उसकी तरह हँसते हैं, रोते हैं, सुखी-दुःखी होते हैं । वे उसकी तरह विचारों, भावनाओं और क्रियाओं की अभिव्यक्ति करते हैं। चू कि मनुप्य अपने चारों ओर की वस्तुओं का उपयोग अपने लिए करने का अभ्यस्त होता है, अतः वह अपनी इस प्रवृत्ति के वशीभूत होकर चयनिका ]
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मनुष्यों का उपयोग भी अपनी आकांक्षाओं और श्राशाओं की पूर्ति के लिए ही करता है । वह चाहने लगता है कि सभी उसी के लिए जीएँ । उसकी निगाह में दूसरे मनुष्य वस्तुनों से अधिक कुछ नहीं होते हैं । किन्तु उसकी यह प्रवृत्ति वहुत समय तक चल नहीं पाती है । इसका कारण स्पष्ट है । दूसरे मनुष्य भी इसी प्रकार की प्रवृत्ति में रत होते हैं । इसके फलस्वरूप उनमें शक्ति - वृद्धि की महत्वाकांक्षा का उदय होता है । जो मनुष्य शक्ति वृद्धि में सफल होता है, वह दूसरे मनुष्यों का वस्तुयों की तरह उपयोग करने में समर्थ हो जाता है । पर मनुष्य की यह स्थिति घोर तनाव की स्थिति होती है । अधिकांश मनुष्य जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इस तनाव की स्थिति में से गुजर चुके होते हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह तनाव लम्बे समय तक मनुष्य के लिए असहनीय होता है । इस असहनीय तनाव के साथ-साथ मनुष्य कभी न कभी दूसरे मनुष्यों का वस्तुनों की तरह उपयोग करने में असफल हो जाता है । ये क्षरण उसके पुनर्विचार के क्षरण होते हैं । वह गहराई से मनुष्य - प्रकृति के विषय में सोचना प्रारम्भ करता है, जिसके फलस्वरूप उसमें सहसा प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्मान भाव का उदय होता है । वह अव मनुष्य मनुष्य की समानता और उसकी स्वतन्त्रता का पोषक वनने लगता है । वह ग्रव उनका अपने लिए उपयोग करने के बजाय अपना उपयोग उनके लिए करना चाहता है । वह उनका शोषण करने के स्थान पर उनके विकास के लिए चिंतन प्रारम्भ करता है । वह स्व-उदय के वजाय सर्वोदय का इच्छुक हो जाता है । वह सेवा लेने के स्थान पर सेवा करने को महत्त्व देने लगता है । उसकी यह प्रवृत्ति उसे तनाव से मुक्त कर देती है और वह एक प्रकार से विशिष्ट व्यक्ति बन जाता है । उसमें एक असाधारण अनुभूति का जन्म होता है । इस अनुभूति को ही हम मूल्यों की अनुभूति कहते हैं । वह अब वस्तु-जगत् में जीते
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ii ]
[ आचारांग
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हुए भी मूल्य - जगत् में जीने लगता है। उसका मूल्य-जगत् में जीना धीरे-धीरे गहराई की ओर बढ़ता जाता है। वह अब मानव मूल्यों की खोज में संलग्न हो जाता है। वह मूल्यों के लिए ही जीता है और समाज में उसकी अनुभूति बढ़ े इसके लिए अपना जीवनसमर्पित कर देता है । यह मनुष्य की चेतना का एक दूसरा आयाम है |
आचारांग में मुख्य रूप से मूल्यात्मक चेतना की सबल अभिव्यक्ति हुई है । इसका प्रमुख उद्देश्य अहिंसात्मक समाज का निर्माण करने के लिए व्यक्ति को प्रेरित करना है, जिससे समाज में समता के आधार पर सुख, शान्ति और समृद्धि के बीज अंकुरित हो सकें । अज्ञान के कारण मनुष्य हिंसात्मक प्रवृत्तियों के द्वारा श्र ेष्ठ उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होता है । वह हिंसा के दूरगामी कुप्रभावों को, जो उसके और समाज के जीवन को विकृत करते हैं, नहीं देख पाता है । किसी भी कारण से की गई हिंसा श्राचारांग को मान्य नहीं है । हिंसा के साथ ताल-मेल आचारांग की दृष्टि में हेय है । वह व्यावहारिक जीवन की विवशता हो सकती है, पर वह उपादेय नहीं हो सकती । हिंसा का अर्थ केवल किसी को प्रारण- विहीन करना ही नहीं है, किन्तु किसी भी प्राणी की स्वतन्त्रता का किसी भी रूप में हनन हिंसा के अर्थ में ही सिमट जाता है । इसीलिए आचारांग में कहा है कि किसी भी प्राणी को मत मारो, उस पर शासन मत करो, उसको गुलाम मत बनाओ, उसको मत सताओ और उसे प्रशान्त मत करो । धर्म तो प्राणियों के प्रति समता भाव में ही होता है । मेरा विश्वास है कि हिंसा का इतना सूक्ष्म विवेचन विश्व - साहित्य में कठिनाई से ही मिलेगा । समता की भूमिका पर हिंसा अहिंसा के इतने विश्लेषण एवं विवेचन के कारण ही आचारांग को विश्वसाहित्य में सर्वोपरि स्थान दिया जा सकता है । आचारांग की
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चयनिका ]
[ iii
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घोषणा है कि प्राणियों के विकास में अन्तर होने के कारण किसी भी प्रकार के प्रारणी के अस्तित्व को नकारना ग्रपने ही अस्तित्व को नकारना है । प्राणी विविध प्रकार के होते हैं : एकेन्द्रिय, द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इन सभी प्राणियों को जीवन प्रिय होता है, इन सभी के लिए दुःख प्रिय होता है | श्राचारांग ने हिंसा - अहिंसा का विवेचन प्राणियों के सूक्ष्म निरीक्षण के आधार पर प्रस्तुत किया है, जो मेरी दृष्टि में एक विलक्षण प्रतिपादन है । ऐसा लगता है कि श्राचारांग मनुष्यों की संवेदनशीलता को गहरी करना चाहता है, जिससे मनुष्य एक ऐसे समाज का निर्माण कर सके जिसमें शोपरण, अराजकता, नियमहीनता, अशान्ति और आपसी संबंधों में तनाव विद्यमान न रहे। मनुष्य अपने दुःखों को तो ग्रनुभव कर ही लेता है, पर दूसरों के दुःखों के प्रति वह संवेदनशील प्रायः नहीं हो पाता है । यही हिंसा का मूल है । जब दूसरों के दुःख हमें अपने जैसे लगने लगें, जब दूसरों की चीख हमें अपनी चीख के समान मालूम हो, तो ही अहिंसा का प्रारम्भ हो सकता है । मनुष्य को अपने सार्वकालिक सूक्ष्म अस्तित्व में सन्देह न रहे, इस बात को समझाने के लिए पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त से ही ग्रंथ का प्रारम्भ किया गया है । अपने सूक्ष्म अस्तित्व में सन्देह नैतिक-प्राध्यात्मिक मूल्यों को ही सन्देहात्मक बना देगा, जिससे व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन की आधारशिला ही गड़बड़ा जायगी। इसीलिए श्राचारांग ने सर्वप्रथम स्व-अस्तित्व एवं प्राणियों के अस्तित्व के साथ क्रियाओं एवं उनसे उत्पन्न प्रभावों में विश्वास उत्पन्न किया है । ये सभी व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन को वास्तविकता प्रदान करते हैं और इनके ग्राधार पर ही मूल्यों की चर्चा सम्भव वन पाती है ।
iv ]
[ आचारांग
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श्राचारांग में 323 सूत्र हैं, जो नी' अध्ययनों में विभक्त हैं । इन विभिन्न अध्ययनों में जीवन - विकास के सूत्र बिखरे पड़े हैं। यहां मानववाद पूर्णरूप से प्रतिष्ठित है । श्राध्यात्मिक जीवन के लिए प्रेरणाएँ यहां उपलब्ध हैं । मूर्च्छा, प्रमाद, और ममत्व जीवन को दुःखी करने वाले कहे गए हैं । वस्तु-त्याग के स्थान पर ममत्व-त्याग को आचारांग में महत्त्व दिया गया है । वस्तु त्याग, ममत्व-त्याग से प्रतिफलित होना चाहिये । श्राध्यात्मिक जागृति मूल्यवान् कही गई है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य मान-अपमान, लाभ-हानि आदि द्वन्द्वों की निरर्थकता को समझ सकता है । अहिंसा, सत्य और समता के ग्रहण को प्रमुख स्थान दिया गया है । वुद्धि और तर्क जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी होते हुए भी, प्राध्यात्मिक अनुभव इनकी पकड़ से बाहर प्रतिपादित हैं । साधनामय मररण की प्रेरणा सूत्रों में व्याप्त है । आचारांग में भगवान् महावीर की साधना का प्रोजस्वी वर्णन किसी भी साधक के लिए मार्ग-दर्शक हो सकता है । यहां यह ध्यान देने योग्य है कि आचारांग की रचना - शैली और विषय की गम्भीरता को देखते हुए यह कहा गया है कि श्राचारांग उपलब्ध श्रागमों में सबसे प्राचीन है । "आचारांग ग्रागम - साहित्य में सर्वाधिक प्राचीन है । उसमें वरिणत श्राचार मूलभूत है और वह महावीर युग के अधिक सन्निकट है । "2
श्राचारांग के इन 323 सूत्रों में से ही हमने 129 सूत्रों का चयन 'आचारांग चयनिका' शीर्षक के अन्तर्गत किया है । इस चयन का उद्देश्य पाठकों के समक्ष प्राचारांग के उन कुछ सूत्रों को प्रस्तुत करना है, जो मनुष्यों में अहिंसा, सत्य, समता और जागृति
1. वर्तमान में 8 अध्ययन ही प्राप्त हैं, 7वीं अध्ययन अनुपलब्ध है । 2. जैन आगम - साहित्य : मनन और मीमांसा, पृष्ठ, 60.
चयनिका ]
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(अनासक्ति) की मूल्यात्मक भावना को दृढ़ कर सकें, जिससे उनमें नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की चेतना सघन वन सके । अब हम इस चयनिका की विषय-वस्तु की चर्चा करेंगे । पूर्वजन्म और पुनर्जन्म :
मनुष्य समय-समय पर मनुष्यों को मरते हुए देखता है । कभी न कभी उसके मन में स्व-ग्रस्तित्व की निरन्तरता का प्रश्न उपस्थित हो ही जाता है । जीवन के गम्भीर क्षरणों में यह प्रश्न उसके मानस पटल पर गहराई से अंकित होता है । यतः स्व ग्रस्तित्व का प्रश्न मनुष्य का मूलभूत प्रश्न है । आचारांग ने सर्वप्रथम इसी प्रश्न से चिन्तन प्रारम्भ किया है । आचारांग का यह विश्वास प्रनीत होता है कि इस प्रश्न के समाधान के पश्चात् ही मनुष्य स्थिर मन से अपने विकास की वातों की ओर ध्यान दे सकता है । यदि स्वअस्तित्व ही त्रिकालिक नहीं है तो मूल्यात्मक विकास का क्या प्रयोजन ? स्व-अस्तित्व में ग्रास्था उत्पन्न करने के लिए श्राचारांग पूर्वजन्म- पुनर्जन्म की चर्चा से शुरू होता है । श्राचारांग का कहना है कि यहाँ कुछ मनुष्यों में यह होश नहीं होता है कि वे अमुक दिशा से इस लोक में ग्राएँ हैं (1) 1 वे यह भी नहीं जानते हैं कि वे ग्रागामी जन्म में किस अवस्था को प्राप्त करेंगे ( 1 ) ? यहाँ प्रश्न यह है कि क्या स्व-अस्तित्व की निरन्तरता का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है ? कुछ लोग तो पूर्वजन्म में स्व-ग्रस्तित्व का ज्ञान अपनी स्मृति के माध्यम से कर लेते हैं । कुछ दूसरे लोग प्रतीन्द्रिय ज्ञानियों के कथन से इसको जान पाते हैं तथा कुछ और लोग उन लोगों से जान लेते हैं जो अतीन्द्रिय ज्ञानियों के सम्पर्क में आए हैं ( 2 ) इस तरह से पूर्वजन्म में स्व-ग्रस्तित्व का ज्ञान स्वयं के देखने से अथवा अतीन्द्रिय ज्ञानियों के देखने से होता है । पूर्व जन्मों के ज्ञान से ही पुनर्जन्म के होने का विश्वास उत्पन्न हो सकता है । आचारांग ने पुनर्जन्म में
vi ]
[ श्राचारांग
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विश्वास को पूर्व जन्म के ज्ञान पर ग्राश्रित किया है । ऐसा लगता है कि महावीर - युग में व्यक्ति को पूर्वजन्म की स्मृति में उतारने की क्रिया वर्तमान थी और यह आध्यात्मिक उत्थान के प्रति जागृति का सवल माध्यम था । जन्मों-जन्मों में स्व-प्रस्तित्व के होने में विश्वास करने वाला ही श्राचारांग की दृष्टि में आत्मा को मानने वाला होता हैं । जन्मों-जन्मों पर विश्वास से देश-काल में तथा पुद्गलात्मक लोक में विश्वास उत्पन्न होता है । इसी से मन-वचन-काय की क्रियाओं और उनमें उत्पन्न प्रभावों को स्वीकार किया जाता है । आचारांग का कहना है कि जो मनुष्य पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को नमक लेता है वह ही व्यक्ति श्रात्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी श्रीर क्रियावादी कहा गया है ( 3 ) । इसी आधार पर समाज में नैतिकआध्यात्मिक मूल्यों का भवन खड़ा किया जा सकता है और सामाजिक उत्थान को वास्तविक बनाया जा सकता है ।
क्रियाओंों की विपरीतता :
श्राचारांग इस बात पर खेद व्यक्त करता है कि मनुष्य के द्वारा मन-वचन-काय की क्रिया की सही दिशा समझी हुई नहीं है । इसीलिए उनसे उत्पन्न कुप्रभावों के कारण वह थका देने वाले एक जन्म से दूसरे जन्म में चलता जाता है श्रोर अनेक प्रकार की योनियों में सुख-दुःखों का अनुभव करता रहता है ( 4 ) । मनुष्य की क्रियाओं के प्रयोजनों का विश्लेषण करते हुए श्राचारांग का कहना है कि मनुष्य के द्वारा मन-वचन-काय की क्रियाएँ जिन प्रयोजनों से की जाती हैं वे हैं: (i) वर्तमान जीवन की रक्षा के प्रयोजन से, (ii) प्रशंसा, आदर तथा पूजा पाने के प्रयोजन से, (iii) भावी जन्म की उपेड़-बुन के कारण, वर्तमान में मरण भय के कारण तथा परम शान्ति प्राप्त करने तथा दुःखों को दूर करने के प्रयोजन से (5,6 ) । जिसने क्रियायों के इतने शुरुआत जान लिए हैं उसने ही क्रियाओं
चयनिका ]
[ vii
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का ज्ञान प्राप्त किया है ( 7 ) | किन्तु दुःख की बात यह है कि मनुष्य इन विभिन्न प्रयोजनों की प्राप्ति के लिए विभिन्न जीवों की हिंसा करता है, उनकी हिंसा करवाता है तथा उनकी हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है ( 8 से 15 ) । श्राचारांग का कहना है कि क्रियाओं की यह विपरीतता जो हिंसा में प्रकट होती है मनुष्य के हित के लिए होती है, वह उसके अध्यात्महीन बने रहने का कारण होती है ( 8 से 15 ) यह हिंसा - कार्य निश्चित ही बन्धन में डालने वाला है, मूर्च्छा में पटकने वाला है, और मंगल में धकेलने वाला है ( 16 ) | अतः क्रियाओं की विपरीतता का माप दण्ड है, हिंसा । जा क्रिया हिंसात्मक है वह विपरीत है । यहां हिंसा को व्यापक अर्थ में समझा जाना चाहिए। किसी प्राणी को मारना, उसको गुलाम बनाना, उस पर शासन करना आदि सभी क्रियाएँ हिंसात्मक हैं ( 72 ) । जव मन-वचन-काय की क्रियायों की विपरीतता समाप्त होती हैं, तव मनुष्य न तो विभिन्न जीवों की हिंसा करता है, न हिंसा करवाता है और न ही हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है (17) | उसके जीवन में अहिंसा प्रकट हो जाती है अर्थात् न वह प्राणियों को मारता है, न उन पर शासन करता है, न उनको गुलाम बनाता है, न उनको सताता है और न ही उन्हें कभी किसी प्रकार से प्रशान्त करता है ( 72 ) । अतः कहा जा सकता है कि यदि क्रियाओं की विपरीतता का मापदण्ड हिंसा है तो उनकी उचितता का मापदण्ड अहिंसा होगा । जिसने भी हिंसात्मक क्रियाओं को दृष्टाभाव से जान लिया, उसके हिंसा समझ में आ जाती है और धीरे धीरे वह उससे छूट जाती है ( 17 ) ।
क्रियानों का प्रभाव :
मन-वचन-काय की क्रियाओंों की विपरीतंता और उनकी उचितता का प्रभाव दूसरों पर पड़ता भी है और नहीं भी पड़ता है,
viii]
[ आचारांग
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किन्तु अपने आप पर तो प्रभाव पड़ ही जाता है । वे क्रियाएँ मनुष्य के व्यक्तित्व का अंग वन जानी हैं। इसे ही कर्म - बन्धन कहते हैं । यह कर्म - बन्धन ही व्यक्ति के सुखात्मक और दुःखात्मक जीवन का आधार होता है । इस विराट् विश्व में हिंसा व्यक्तित्व को विकृत कर देती है और अपने तथा दूसरों के दुःखात्मक जीवन का कारण बनती है और अहिंसा व्यक्तित्व को विकसित करती हैं और अपने तथा दूसरों के सुखात्मक जीवन का कारण बनती है। हिंसा विराट् प्रकृति के विपरीत है । अतः वह हमारी ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी होने से रोकती है और ऊर्जा को ध्वंस में लगा देती है, किन्तु श्रहिंसा विराट् प्रकृति के अनुकूल होने से हमारी ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए मार्ग प्रशस्त करती है और ऊर्जा को रचना में लगा देती है । हिमात्मक क्रियाएँ मनुष्य की चेतना को सिकोड़ देती हैं और उसको ह्राम की ओर ले जाती हैं, ग्रहिंसात्मक क्रियाएँ मनुष्य की चेतना को विकास की ओर ले जाती हैं। इस प्रकार इन क्रियाओं का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है । अतः आचारांग ने कहा है कि जो मनुष्य कर्म-बन्धन और कर्म से छुटकारे के विषय में खोज करता है वह शुद्ध बुद्धि होता है | (50) 1
मूच्छित मनुष्य की दशा :
वास्तविक स्व-प्रस्तित्व का विस्मरण ही मूर्च्छा है । इसी विस्मरण के कारण मनुष्य व्यक्तिगत श्रवस्थाओं और सामाजिक परिस्थितियों से उत्पन्न सुख-दुःख से एकीकरण करके सुखी - दुःखी होता रहता है । मूच्छित मनुष्य स्व-अस्तित्व ( श्रात्मा) के प्रति जागरुक नहीं होता है, वह शांति से पीड़ित होता है, समता-भाव से दरिद्र होता है, उसे ग्राहसा पर आधारित मूल्यों का ज्ञान देना कठिन होता है तथा वह अध्यात्म को समझने वाला नहीं होता है
चयनिका ]
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(18)। मूच्छित मनुष्य इन्द्रिय-विपयों में ही ठहरा रहता है (22)। वह आसक्ति-युक्त होता है और कुटिल आचरण में ही रत रहता है (22) । वह हिंसा करता हुआ भी दूसरों को अहिंसा का उपदेश देता रहता है । (25)। इस तरह से वह अर्हत् (जीवन-मुक्त) की आज्ञा के विपरीत चलने वाला होता है (22, 96) । स्व-अस्तित्व के प्रति जागरूक होना ही अर्हत् की आज्ञा में रहना है । इस जगत् में यह विचित्रता है कि सुख देने वाली वस्तु दुःख देने वाली बन जाती है
और दुःख देने वाली वस्तु सुख देने वाली बन जाती है। मूच्छित (आसक्ति-युक्त) मनुष्य इस बात को देख नहीं पाता है (39)। इसलिए वह सदैव वस्तुओं के प्रति आसक्त वना रहता है, यही उसका अज्ञान है (44) । विपयों में लोलुपता के कारण वह संसार में अपने लिए वैर की वृद्धि करता रहता है (45) और बार-बार जन्म-धारण करता रहता है (53) । अतः कहा जा सकता है कि मूच्छित (अज्ञानी) मनुष्य सदा सोया हुआ अर्थात् सत्मार्ग को भूला हुआ होता है (52) । जो मनुष्य मूर्छारूपी अंधकार में रहता है वह एक प्रकार से अंधा ही है । वह इच्छाओं में आसक्त बना रहता है और उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह प्राणियों की हिंसा में संलग्न होता है (98) । वह प्राणियों को मारने वाला, छेदने वाला, उनकी हानि करने वाला तथा उनको हैरान करने वाला होता है (29)। इच्छाओं के तृप्त न होने पर वह शोक करता है, क्रोध करता है, दूसरों को सताता है और उनको नुकसान पहुंचाता है (43) । यहाँ यह समझना चाहिए कि सतत हिंसा में संलग्न रहने वाला व्यक्ति भयभीत व्यक्ति होता है । आचारांग ने ठीक ही कहा है कि प्रमादी (मूच्छित) व्यक्ति को सव ओर से भय होता है (69) । वह सदैव मानसिक तनावों से भरा रहता है । चूकि उसके अनेक चित्त होते हैं, इसलिए उसका अपने लिए शांति (तनाव-मुक्ति) का दावा करना
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ऐसे ही है जैसे कोई चलनी को पानी से भरने का दावा करे ( 60 ) 1 मूच्छित मनुष्य संसाररूपी प्रवाह में तैरने के लिए बिल्कुल समर्थन नहीं होता है ( 37 ) । वह भोगों का अनुमोदन करने वाला होता है तथा दुःखों के भँवर में ही फिरता रहता है ( 38 ) । वह दिन-रात दुःखी होता हुआ जीता है । वह काल अकाल में तुच्छ वस्तुओं की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता रहता है । वह केवल स्वार्थपूर्ण संबंध का अभिलाषी होता है । वह धन का लालची होता है तथा व्यवहार में ठगने वाला होता है । वह बिना विचार किए कार्यों को करने वाला होता है तथा विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए बार-बार शस्त्रों / हिंसा का प्रयोग को ही महत्व देता है ( 26 ) ।
श्राध्यात्मिक प्रेरक तथा उनसे प्राप्त शिक्षा :
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यह मूच्छित मनुष्यों का जगत् है ऐसा होते हुए भी यह जगत् मनुष्य को ऐसे अनुभव प्रदान करने के लिए सक्षम है, जिनके द्वारा वह अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए प्रेरणा प्राप्त कर सकता है । मनुष्य कितना ही मूच्छित क्यों न हो फिर भी बुढ़ापा, मृत्यु और धनवैभव की अस्थिरता उसको एक बार जगत् के रहस्य को समझने के लिए बाध्य कर ही देते हैं । यह सच है कि कुछ मनुष्यों के लिए यह जगत् इन्द्रिय-तुष्टि का ही माध्यम बना रहता है ( 74 ), किन्तु कुछ मनुष्य ऐसे संवेदनशील होते हैं कि यह जगत् उनकी मूर्च्छा को खिर तोड़ ही देता है ।
मनुष्य देखता है कि प्रति क्षरण उसकी श्रायु क्षीण हो रही है । अपनी बीती हुई आयु को देखकर वह व्याकुल होता है और बुढ़ापे में उसका मन गड़बड़ा जाता है। जिनके साथ वह रहता है, वे ही आत्मीय जन उसको बुरा-भला कहने लगते हैं और वह भी उनको बुरा-भला कहने लग जाता है। बुढ़ापे की अवस्था में वह मनोरंजन
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के लिए, क्रीड़ा के लिए तथा प्रेम के लिए नीरसता व्यक्त करता है (27) । अतः आचारांग का शिक्षण है कि ये प्रात्मीय-जन मनुप्य के सहारे के लिए पर्याप्त नहीं होते हैं और वह भी उनके सहारे के लिए पर्याप्त नहीं होता है (27) इस प्रकार मनुप्य बुढ़ापे को समझकर आध्यात्मिक प्रेरणा ग्रहण करे तथा संयम के लिए प्रयत्नशील बने। और वर्तमान मनुष्य-जीवन के संयोग को देखकर आसक्ति-रहित बनने का प्रयास करे (28)। प्राचारांग का कथन है कि हे मनुष्यों! आयु वीत रही है, यौवन भी वीत रहा है, अत: प्रमाद (आसक्ति) में मत फैसो (28)। और जब तक इन्द्रियों की शक्ति क्षीण न हो, तव तक ही स्व-अस्तित्व के प्रति जागरूक होकर आध्यात्मिक विकास में लगो (30)।
आचारांग सर्व-अनुभूत तथ्य को दोहराता है कि मृत्यु के लिए किसी भी क्षण न पाना नहीं है (36)। इसी बात को रखते हुए आचारांग फिर कहता है कि मनुष्य इस देह-संगम को देखे । यह देहसंगम छूटता अवश्य है। इसका तो स्वभाव ही नश्वर है। यह अध्र व है, अनित्य है और अशाश्वत है (85)। आचारांग उनके प्रति आश्चर्य प्रकट करता है जो मृत्यु के द्वारा पकड़े हुए होने पर भी संग्रह में आसक्त होते हैं (74)। मृत्यु की अनिवार्यता हमारी आध्यात्मिक प्रेरणा का कारण बन सकती है। कुछ मनुप्य इससे प्रेरणा ग्रहण कर अनासक्ति की साधना में लग जाते हैं।
धन-वैभव में मनुष्य सबसे अधिक आसक्त होता है । चूकि जीवन की सभी आवश्यकताएँ इसी से पूरी होती हैं, इसलिए मनुष्य इसका संग्रह करने के लिए सभी प्रकार के उचित-अनुचित कर्म में संलग्न हो जाता है । आचारांग आसक्त मनुष्य का ध्यान धन-वैभवं के नाश की ओर आकर्षित करते हुए कहता है कि कभी चोर धन
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[ प्राचारांग
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वैभव का अपहरण कर लेते हैं, कभी राजा उसको छीन लेता है
और कभी वह घर-दहन में जला दिया जाता है (37) । धन-वैभव का नाश कुछ मनुष्यों को प्राध्यात्मिक प्रेरणा देकर उनको आत्मजागृति की स्थिति में लाने के लिए समर्थ हो सकता है।
इस तरह से जब मूच्छित मनुष्य को संसार की निस्सारता का भान होने लगता है (61), तो उसकी मूर्छा की सघनता धीरे-धीरे कम होती जाती है और वह अध्यात्म-मार्ग की ओर चल पड़ता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि यदि अध्यात्म में प्रगति किया हुआ व्यक्ति मिल जाए, तो भी मूच्छित मनुष्य जागृत स्थिति में छलांग लगा सकता है (93)। इस तरह से बुढ़ापा, मृत्यु, धन-वैभव का नाश, संसार की निस्सारता और जागृत मनुष्य के दर्शन-ये सभी मूच्छित मनुष्य को प्राध्यात्मिक प्रेरणा देकर उसमें स्व-अस्तित्व का वोध पैदा कर सकते हैं। आन्तरिक रूपान्तरण और साधना के सूत्र :
यात्म-जागृति अथवा स्व-अस्तित्व के वोध के पश्चात् आचारांग मनुप्य को चारित्रात्मक आन्तरिक रूपान्तरण के महत्त्व को बतलाते हुए साधना के ऐसे सारभूत सूत्रों को बतलाता है जिससे उसकी साधना पूर्णता को प्राप्त हो सके। कहा है कि हे मनुष्य ! तू ही तेरा मित्र है (66), तू अपने मन को रोक कर जी (61)। जो सुन्दर चित्तवाला है, वह व्याकुलता में नहीं फँसता है (68)। तू मानसिक विषमता (राग-द्वेप) के साथ ही युद्ध कर, तेरे लिए बाहरी व्यक्तियों से युद्ध करने से क्या लाभ (99) ? बंध (अशांति)
और मोक्ष (शान्ति) तेरे अपने मन में ही है (97) । धर्म न गाँव में होता है और न जंगल में, वह तो एक प्रकार का आन्तिरिक रूपान्तरण है (96)। कहा गया है कि जो ममतावाली वस्तु-बुद्धि को चयनिका ]
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छोड़ता है, वह ममतावाली वस्तु को छोड़ता है, जिसके लिए कोई ममतावाली वस्तु नहीं है, वह ही ऐसा ज्ञानी है, जिसके द्वारा अध्यात्म-पथ जाना गया है (46)।
आन्तरिक रूपान्तरण के महत्त्व को समझाने के वाद आचारांग ने हमें साधना की दिशाएँ बताई हैं। ये दिशाएँ ही साधना के सूत्र हैं। (i) अज्ञानी मनुष्य का वाह्य जगत् से सम्पर्क उसमें आशाओं और इच्छाओं को जन्म देता है। मनुष्यों से वह अपनी आशाओं की पूर्ति चाहने लगता है और वस्तुओं की प्राप्ति के द्वारा वह इच्छाओं की तृप्ति चाहता है। इस तरह से मनुष्य प्राशाओं
और इच्छाओं का पिण्ड बना रहता है। ये ही उसके मानसिक तनाव, अशान्ति और दुःख के कारण होते हैं (39)। इसलिए आचारांग का कथन है कि मनुष्य आशा और इच्छा को त्यागे (39) । (ii) जो व्यक्ति इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होता है, वह बहिर्मुखी ही बना रहता है, जिसके फल-स्वरूप उसके कर्म-बंधन नहीं हटते हैं और उसके विभाव-संयोग (राग-द्वेषात्मक भाव) नष्ट नहीं होते हैं (78)। अतः इन्द्रिय-विषय में अनासक्ति साधना के लिए आवश्यक है । यहीं से संयम की यात्रा प्रारम्भ होती है (53)।
आचारांग का कथन है कि हे मनुष्य ! तू अनासक्त हो जा और अपने को नियन्त्रित कर (76) । जैसे अग्नि जीर्ण (सूखी) लकड़ियों को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार अनासक्त व्यक्ति राग-द्वैप को नष्ट कर देती है (76)। (iii) कषाएँ मनुष्य की स्वाभाविकता को नष्ट कर देती हैं । कषायों का राजा मोह है । जो एक मोह को नष्ट कर देता है, वह बहुत कषायों को नष्ट कर देता है (69) । अहंकार मृदु सामाजिक सम्वन्धों तथा आत्म-विकास का शत्रु है। कहा है कि उत्थान का अहंकार होने पर मनुष्य मूढ वन जाता है (91)। जो क्रोध आदि कषायों को तथा अहंकार को नष्ट करके चलता है, xiv ]
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वह संसार-प्रवाह को नष्ट कर देता है (62-70)। (vi) मानव-समाज में न कोई नीच है और न कोई उच्च है (34)। सभी के साथ समतापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए । आचारांग के अनुसार समता में ही धर्म है (88)। (v) इस जगत् में सव प्राणियों के लिए पीड़ा अशान्ति है, दुःख-युक्त है (23)। सभी प्राणियों के लिए यहाँ सुख अनुकूल होते हैं, दुःख प्रतिकूल होते हैं, वध अप्रिय होते हैं तथा जिन्दा रहने की अवस्थाएँ प्रिय होती हैं । सब प्राणियों के लिए जीवन प्रिय होता है (36) । अतः पाचारांग का कथन है कि कोई भी प्राणी मारा नहीं जाना चाहिए, गुलाम नहीं बनाया जाना चाहिए, शासित नहीं किया जाना चाहिए, सताया नहीं जाना चाहिए और प्रशान्त नहीं किया जाना चाहिए। यही धर्म शुद्ध है, नित्य है, और शाश्वत है (72) । जो अहिंसा का पालन करता है, वह निर्भय हो जाता है (69) | हिंसा तीन से तीन होती है, किन्तु अहिंसा सरल होती है (69)। अतः हिंसा को मनुष्य त्यागे। प्राणियों में तात्विक समता स्थापित करते हुए आचारांग अहिंसाभावना को दृढ़ करने के लिए कहता है कि जिसको तू मारे जाने योग्य मानता है; वह तू ही है, जिसको तू शासित किए जाने योग्य मानता है- वह तू ही है, जिसको तू सताए जाने योग्य मानता है, वह तू ही है, जिसको तू गुलाम बनाए जाने योग्य मानता है, वह तू ही है, जिसको तू अशान्त किए जाने योग्य मानता है, वह तू ही है। (94) 1 इसलिए ज्ञानो, जीवों के प्रति दया का उपदेश दे और दया पालन की प्रशंसा करे (101) । (vi) आचारांग ने समता और अहिंसा की साधना के साथ सत्य की साधना को भी स्वीकार किया है। प्राचारांग का शिक्षण है कि हे मनुष्य ! तू सत्य का निर्णय कर, सत्य में धारणा कर और सत्य की आज्ञा में उपस्थित रह (59, 68)। (vii) संग्रह, समाज में आर्थिक विषमता पैदा करता है।
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अत: आवारांग का कयन है कि मनुष्य अपने को परिग्रह ने दर रन्ने (42)। बहुत भी प्राप्त करके वह उसमें ग्रामक्तियुक्त न बने (42) । (viii) आत्रारांग में समतादर्शी (अहं) की पानापालन को कर्तव्य कहा गया है (99)1 कहा है कि कुछ लोग समतादशी की अनाना में भी नत्पन्ना सहित होते हैं, कुछ लोग उसकी आजा में भी पालनी होते हैं। ऐसा नहीं होना त्राहिए (96) । यहाँ यह पूछा जा सकता है कि क्या मनुष्य के द्वारा पाना पालन किए जाने को महत्व देना उनकी स्वतन्त्रता का हनन नहीं है ? उत्तर में कहा जा सकता है कि स्वतन्त्रता का हनन तब होता है जब बुद्धि या नर्क से मुलझाई जाने वाली समस्याओं में भी पाजापालन को महत्व दिया जाए। किन्तु, जहाँ वृद्धि की पहुंच न हो ऐसे आध्यात्मिक रहस्यों के क्षेत्र में प्रात्मानुभवी (समतादी) की मात्रा का पालन ही साधक के लिए यात्म-विकास का माध्यम बन सकता है। संसार को जानने के लिये संशय अनिवार्य है (83), पर समाधि के लिए श्रद्धा अनिवार्य है (92)। इससे भी आगे चलें तो समाधि में पहुंचने के लिये समतादी की पाना में चलना आवश्यक है। संशय से विज्ञान जन्मता है, पर यात्मानुभवी की आना में चलने से ही समाधि-अवस्था तक पहुँचा जा सकता है। अतः प्राचारांग ने अहंन की प्राज्ञा-पालन को कर्तव्य कहकर आध्यात्मिक रहस्यों को जानने के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। (ix) मनुष्य लोक की प्रशंसा प्राप्त करना चाहता है, पर लोक असाधारण कार्यों की बड़ी मुश्किल से प्रशंसा करता है। उसकी पहुँच तो सामान्य कार्यों तक ही होती है। मूल्यों का साधक व्यक्ति असाधारण व्यक्ति होता है, अत: उसको अपने क्रान्तिकारी कार्यों के लिए प्रशंसा मिलना कठिन होता है। प्रशंसा का इच्छुक प्रशंसा न मिलने पर कार्यों को निश्चय ही छोड़ देगा। प्राचारांग ने मनुष्य की इस वृत्ति
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को समझकर कहा है कि मूल्यों का साधक लोक के द्वारा प्रशंसित होने के लिये इच्छा ही न करे (73)। वह तो व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में मूल्यों की साधना से सदैव जुड़ा रहे।
साधना की पूर्णता
साधना की पूर्णता होने पर हमें ऐसे महामानव के दर्शन होते • हैं जो व्यक्ति के विकास और सामाजिक प्रगति के लिये प्रेरणा-स्तम्भ होता है। प्राचारांग में ऐसे महामानव की विशेषताओं को बड़ी सूक्ष्मता से दर्शाया गया है। उसे द्रष्टा, अप्रमादी, जाग्रत, अनासक्त, वीर, कुशल आदि शब्दों से इंगित किया गया है। (i) द्रष्टा के लिए कोई उपदेश शेष नहीं है (38)। उसका कोई नाम नहीं है (71)। (ii) उसकी आँखें विस्तृत होती हैं अर्थात् वह सम्पूर्ण लोक को देखने वाला होता है (44)। (iii) वह बन्धन और मुक्ति के विकल्पों से परे होता है (50)। वह शुभ-अशुभ, आदि दोनों अन्तों से नहीं कहा जा सकता है, इसलिए वह द्वन्द्वातीत होता है (56,64) और उसका अनुभव किसी के द्वारा न छेदा जा सकता है, न भेदा जा सकता है, न जलाया जा सकता है तथा न नष्ट किया जा सकता है (64)। वह किसी भी विपरीत परिस्थिति में खिन्न नहीं होता है
और वह किसी भी अनुकूल परिस्थिति में खुश नहीं होता है । वास्तव में वह तो समता-भाव में स्थित रहता है (47)(iv) वह पूर्ण जागरूकता से चलने वाला होता है अतः वह वीर हिंसा से संलग्न नहीं किया जाता है (49) । वह सदैव ही आध्यात्मिकता में जागता है (51)। (v) वह अनुपम प्रसन्नता में रहता है (48)। (vi) वह कर्मों से रहित होता है । उसके लिए सामान्य लोक प्रचलित आचरणं आवश्यक नहीं होता है, (55)। किन्तु उसका आचरण व्यक्ति व समाज के लिए मार्ग-दर्शक होता है । वह मूल्यों से अलगाव चयनिका ]
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को तथा पशु-प्रवृत्तियों के प्रति लगाव को समाज के जीवन में सहन नहीं करता है ( 47 ) | आचारांग का शिक्षण है कि जिस काम को जाग्रत व्यक्ति करता है, व्यक्ति व समाज उसको करे (50) (vii) वह इन्द्रियों के विषयों को द्रष्टाभाव से जाना हुआा होता है, इसलिए वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् कहा जा सकता है ( 52 ) (viii) जो लोक में परम तत्त्व को देखने वाला है, वह वहाँ विवेक से जीने वाला होता है, वह तनाव से मुक्त, समतावान्, कल्याण करने वाला, सदा जितेन्द्रिय कार्यों के लिए उचित समय को चाहने वाला होता है तथा वह अनासक्तिपूर्वक लोक में गमन करता है (58) । (ix) उस महामानव के आत्मानुभव का वर्णन करने में सब शब्द लौट आते हैं, उसके विषय में कोई तर्क उपयोगी नहीं होता है, वुद्धि उसके विषय में कुछ भी पकड़ने वाली नहीं होती है ( 97 ) | आत्मानुभव की वह अवस्था ग्राभामयी होती है । वह केवल ज्ञाता - द्रष्टा - अवस्था होती है ( 97 ) ।
महावीर का साधनामय जीवन :
श्राचारांग ने महावीर के साधनामय जीवन पर प्रकाश डाला है । यह जीवन किसी भी साधक के लिए प्रेरणा-स्रोत वन सकता है । महावीर सांसारिक परतन्त्रता को त्यागकर श्रात्मस्वातन्त्र्य के मार्ग पर चल पड़े (103) उनकी साधना में ध्यान प्रमुख था । वे तीन घंटे तक विना पलक झपकाए आंखों को भीत पर लगाकर आन्तरिक रूप से ध्यान करते थे (104) । यदि महावीर गृहस्थों से युक्त स्थान में ठहरते थे तो भी वे उनसे मेल-जोल न बढ़ाकर ध्यान में ही लीन रहते थे । बाधा उपस्थित होने पर वे वहाँ से चले जाते थे । वे ध्यान की तो कभी भी उपेक्षा नहीं करते थे (105) । महावीर अपने समय को कथा - नाच-गान में, लाठी-युद्ध तथा
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मूठी युद्ध को
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थे (106) | हर्ष - शोक रहित
देखने में नहीं बिताते कामातुर इशारों में वे वे प्राणियों की हिंसा से बचकर विहार वे खाने-पीने की मात्रा को समभने वाले थे और रसों में कभी लालायित नहीं होते थे ( 109 ) । महावीर कभी शरीर को नहीं खुजलाते थे और आँखों में कुछ गिरने पर आँखों को पोंछते भी नहीं थे (110) । वे कभी शून्य घरों में, कभी लुहार, कुम्हार आदि के कर्मस्थानों में, कभी बगीचे में, मसारण में और कभी पेड़ के नीचे ठहरते थे और संयम में सावधानी बरतते हुए वे ध्यान करते थे ( 112, 113, 114 ) | महावीर सोने में श्रानन्द नहीं लेते थे । नींद आती तो अपने को खड़ा करके जगा लेते थे । वे थोड़ा सोते अवश्य थे पर नींद की इच्छा रखकर नहीं ( 115 ) । यदि रात में उनको नींद सतात, तो वे प्रवास से बाहर निकलकर इधर-उधर घूम कर फिर जागते हुए ध्यान में बैठ जाते थे (116) |
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काम-कथा
होते थे करते थे
तथा
(107) | (108)
महावीर ने लौकिक तथा अलौकिक कष्टों को समतापूर्वक सहन किया ( 117 118 ) । विभिन्न परिस्थितियों में हर्ष और शोक पर विजय प्राप्त करके वे समता-युक्त वने रहे ( 119 ) । लाढ देश के लोगों ने उनको वहुत हैरान किया । वहाँ कुछ लोग ऐसे थे जो महावीर के पीछे कुत्तों को छोड़ देते थे । कुछ लोग उन पर विभिन्न प्रकार से प्रहार करते थे (120, 121, 122 ) । किन्तु, जैसे कवच से ढका हुआ योद्धा संग्राम के मोर्चे पर रहता है, वैसे ही वे महावीर वहाँ दुर्व्यवहार को सहते हुए ग्रात्म-नियन्त्रित रहे (123) |
दो मास से अधिक अथवा छः मास तक भी महावीर कुछ नहीं खाते-पीते थे । रात-दिन वे राग-द्व ेष- रहित रहे (124) । कभी वे दो दिन के उपवास के बाद में, कभी तीन दिन के उपवास के बाद में कभी
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. चार अथवा पाँच दिन के उपवास के बाद में भोजन करते थे (125)। वे गृहस्थ के लिए बने हुए विशुद्ध आहार की ही भिक्षा ग्रहण करते थे और उसको वे समता-युक्त बने रहकर उपयोग में लाते थे (127) ।
महावीर कषाय रहित थे। वे शब्दों और रूपों में अनासक्त रहते थे। जब वे असर्वज्ञ थे, तव भी उन्होंने साहस के साथ संयम पालन करते हुए एक बार भी प्रमाद नहीं किया (128) । महावीर जीवन-पर्यन्त समता-युक्त रहे (129)।
चयनिका के उपर्युक्त विषय-विवेचन से स्पष्ट है कि आचारांग में जीवन के मूल्यात्मक पक्ष की सूक्ष्म अभिव्यक्ति हुई है। इसी विशेषता से प्रभावित होकर यह चयन (आचारांग चयनिका) पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है। सूत्रों का हिन्दी अनुवाद मूलानुगामी रहे ऐसा प्रयास किया गया है। यह दृष्टि रही है कि अनुवाद पढ़ने से ही शब्दों की विभक्तियाँ एवं उनके अर्थ समझ में आ जाएँ । अनुवाद को प्रवाहमय बनाने की भी इच्छा रही है। कहाँ तक सफलता मिली है, इसको तो पाठक ही वता सकेंगे। अनुवाद के अतिरिक्त शब्दार्थ एवं सूत्रों का व्याकरणिक विश्लेषण भी प्रस्तुत किया गया है। इस विश्लेषण में जिन संकेतों का प्रयोग किया गया है, उनका संकेत सूची में देख कर समझा जा सकता है। यह आशा की जाती है कि प्राकृत को व्यवस्थित रूप से सीखने में सहायता मिलेगी तथा व्याकरण के विभिन्न नियम सहज में ही सीखे जा सकेंगे। यह सर्व विदित है कि किसी भी भाषा को सीखने के लिए व्याकरण का ज्ञान अत्यावश्यक है। प्रस्तुत सूत्र एवं उनके व्याकरणिक विश्लेषण से व्याकरण के साथ-साथ शब्दों के प्रयोग भी सीखने में मदद मिलेगी। शब्दों की व्याकरण और उनका अर्थपूर्ण प्रयोग दोनों ही भाषा सीखने के आधार होते हैं । अनुवाद
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एवं व्याकरणिक विश्लेपण जैसा भी वन पाया है पाठकों के समक्ष है। पाठकों के सुझाव मेरे लिए बहुत ही काम के होंगे।
आचारांग चयनिका का विपय ठीक प्रकार से समझ में आ सके, इसके लिए इस संस्करण में चार टिप्पण दिए गये हैं। वे इस प्रकार हैं :
(1) द्रव्य-पर्याय, (2) जीव अथवा प्रात्मा, (3) लोक और (4) कर्म-क्रिया ।
आचारांग चयनिका के सूत्रों को छह भागों में विभक्त किया गया है । पुस्तक के अन्त में प्रत्येक भाग की रूपरेखा सूत्रों सहित दी गई है । ये छह भाग इस प्रकार है:
1. प्राचारांग की दार्शनिक पृष्ठ भूमि और धर्म का स्वरूप । 2. मूच्छित मनुष्य की अवस्था । 3. मूर्छा कैसे टूट सकती है। 4. जीवन-विकास के सूत्र ।
5. जागृत मनुष्य की अवस्था। . 6. महावीर का साधनामय जीवन ।
प्राभार:
आचारांग-चयनिका के लिए मुनि जम्बूविजयजी द्वारा सम्पादित अाचारांग के संस्करण का उपयोग किया गया। इसके
चयनिका ]
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xxi
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लिए मुनि जम्बूविजयजी के प्रति अपन कृतज्ञता व्यक्त करता है। आचारांग का यह संस्करण श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से सन् 1977 में प्रकाशित हुआ है।
आगम के प्रकाण्ड विद्वान् महोपाध्याय श्री विनयसागरजी ने आचारांग-चयनिका का प्राक्कथन लिखने की स्वीकृति प्रदान की, इसके लिए मैं उनका हृदय से कृतन हूँ। __ मेरे विद्यार्थी डॉ. श्यामराव व्यास, दर्शन-विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर का आभारी हूँ, जिन्होंने इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद एवं उसकी प्रस्तावना को पढ़कर उपयोगी सुझाव दिए । डॉ.प्रेम सुमन जैन, जैन-विद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, डॉ. उदयचन्द जैन, जैन-विद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, श्री मानमल कुदाल,
आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर तथा डॉ. हुकमचन्द जैन, जैन-विद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर के सहयोग के लिए भी आभारी हूँ।
मेरी धर्म-पत्नी श्रीमती कमलादेवी सोगाणी ने इस पुस्तक को तैयार करने में जो अनेक प्रकार से सहयोग दिया, उसके लिए
आभार प्रकट करता हूँ। ___ इस पुस्तक के द्वितीय संस्कृत को प्रकाशित करने के लिए प्राकृतभारती अकादमी, जयपुर के सचिव श्री देवेन्द्रराजजी मेहता एवं xxii ]
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संयुक्त सचिव महोपाध्याय श्री विनयसागरजी ने जो व्यवस्था की है, उसके लिये उनका हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। ___ एम. एल, प्रिण्टर्स, जोधपुर को सुन्दर छपाई के लिए धन्यवाद देता हूँ।
कमलचन्द सौगाणी
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष दर्शन-विभाग मोहनलाल सुसाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर (राजस्थान)
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आचारांग - चयनिका
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आचारांग - चयनिका
1 सुयं मे पाउसं! तेरणं भगवया एवमक्खायं-इहमेगेसि रणो
सण्णा भवति । तं जहापुरस्थिमातो वा दिसातो पागतो अहमंसि, दाहिरणानो वा दिसाम्रो प्रागतो अहमंसि, पच्चत्थिमातो वा दिसातो पागतो अहमंसि, उत्तरातो वा दिसातो पागतो अहमंसि, उड्ढातों वा दिसातो प्रांगतो अहमंसि, अधेदिसातो वा पागतो अहमंसि, अन्नतरीतो दिसातो वा अणु-दिसातो वा आगतो अहमंसि । एवमेगेसि रणो पातं भवति-अत्थि मे पाया उववाइए, पत्थि मे पाया उववाइए, के अहं आसी, के वा इमो चुते पेच्चा भविस्सामि ।
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प्राचारांग-चयनिका
हे आयुष्मन् (चिरायु)! मेरे द्वारा (यह) सुना हुआ (है) (कि) उन भगवान् के द्वारा इस प्रकार (यह) कहा गया (है)-यहां कई (मनुष्यों) में (यह) होश नहीं होता है। जैसे
मैं पूरवी दिशा से आया हूँ, या मैं दक्षिण दिशा से आया हूँ, या मैं पश्चिमी दिशा से आया हूँ, या में उत्तर दिशा से पाया हैं, या मैं ऊपर की दिशा से आया हूँ, या मैं नीचे की दिशा से आया है, या (मैं) अन्य ही दिशाओं से (आया हूँ), या मैं ईशान कोण आदि दिशाओं से आया हूँ।
इसी प्रकार कई (मनुष्यों) के द्वारा (यह) समझा हुआ नहीं होता है (कि) मेरी (स्वयं की) आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है, (या) मेरी (स्वयं को) आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली नहीं है, (पिछले जन्म में) मैं कौन था? या (जव) (मैं) (मरकर) इस लोक से अलग हुअा (हूँ), (तो) आगामी जन्म में (मैं) क्या होऊँगा?
चयनिका ]
[
3
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2 से ज्जं पुरण जाणेज्जा सहसम्मुइयाए परवागरणं प्रणेस
वा अंतिए सोच्चा।
3 से पायावादी लोगावादी कम्मावादी किरियावादी।
4 अपरिण्णायकम्मे खल अयं परिसे जो इमानो दिसानो वा
अर-दिसानो वा परपसंचरति, सन्वानो दिसाम्रो सन्वानो अणुदिसाओ सहेति, अणेगरुवाओ जोगीमो संघेति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदयति ।
' 5 तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता । इनस्स चेव जीवियस्स
4
]
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2. इसके विपरीत वह (कोई मनुष्य उपर्युक्त बातों को ) ( इन तरीकों से ) जान लेता है (1) स्वकीय स्मृति के द्वारा (2) दूसरों (प्रतीन्द्रिय ज्ञानियों) के कथन के द्वारा ( 3 ) अथवा दूसरों (प्रतीन्द्रिय ज्ञानियों के सम्पर्क से समझे हुए व्यक्तियों) के समीप सुनकर |
3. ( जो यह जान लेता है कि उसको श्रात्मा श्रमुक दिशा से आई है तथा वह पुनर्जन्म लेने वाली है)
4.
5.
वह (व्यक्ति) (ही) ग्रात्मा को मानने वाला (होता है), (प्रजीव - पुद्गलादि) लोक को मानने वाला (होता है), कर्म( बन्धन) को मानने वाला (होता है) (और) ( मन-वचनकाय की) क्रियाओं को मानने वाला (होता है) ।
सचमुच यह मनुष्य ( ऐसा है ) ( कि) (जिसके द्वारा ) ( मनवचन - काय की ) क्रिया समझी हुई नहीं (है), जो इन दिशाओं से या अनुदिशाओं (ईशान श्रादि कोणों) से (आकर ) ( संसार में) परिभ्रमरण करता है, (जो) सब दिशाओं से, सभी अनुदिशाओं से (दुःखों को) सहन करता है, (जो ) अनेक प्रकार को योनियों से (अपने को जोड़ता है, (तथा) (जो ) अनेक (मनोहर) रूपों (सुखों) को ( एवं ) स्पर्शो ( दुःखों) को अनुभव करता है ।
उस (मनुष्य) के लिए ही भगवान् के द्वारा ( इस प्रकार ) ज्ञान दिया हुग्रा ( है ) | ( मनुष्य के द्वारा मन-वचन-काय की क्रियाएँ इन बातों के लिए की जाती है) (1) इस ही ( वर्तमान) जीवन (की रक्षा) के लिए, ( 2 ) प्रशंसा, आदर तथा पूजा (पाने) के लिए, (3) (भावी) जन्म ( की उधेड़-बुन)
[ 5
चयनिका ]
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परिवंदरण - मारणरण - पूयणाए जाती - मरण - मोयगाए
दुक्खपडिधातहेतु। 6 एतावंति सव्वावंति लोगसि कम्मसमारंभा परिजारिणयव्वा
भवति ।
7 जस्सेते लोगंसि कम्मसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुरणी
परिणायकम्मे त्ति बेमि ।
8 इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-मारपण-पूयपाए जाती
मरण-मोयरणाय दुक्खपडिघातहेर्ड से सयमेव पुढविसत्थं समारंभति, अहिं वा पुढविसत्थं समारंभावेति, प्रपणे वा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणति । तं से अहिताए, तं से अवोहीए।
इमस्स चेव जीवितस्स परिवंदरण-माणण-पूयणाए जातीमरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतु से सयमेव उदयसत्थं
6
]
[ आचारांग
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के कारण, (वर्तमान में ) मरण - (भय) के कारण, तथा मोक्ष (परम - शान्ति) के लिए (और) दुःखों को दूर हटाने के लिए ।
6. सम्पूर्ण लोक (जगत) में ( मन-वचन-काय की ) क्रियाओं के इतने (उपर्युक्त) प्रारम्भ ( शरुत्रात) समझे जाने योग्य होते हैं ।
7.
जिसके द्वारा लोक में इन ( मन-वचन-काय संबंधी) क्रियाओं के प्रारंभ (शुरुआत) समझे हुए होते हैं, वह ही ज्ञानी (ऐसा ) है (जिसके द्वारा ) ( उपर्युक्त ) क्रिया - (समूह) (द्रष्टा भाव से ) जाना हुआ ( है ) । इस प्रकार ( मैं ) कहता हूँ ।
8. ( यह दुःख की बात है कि ) वह (कोई मनुष्य ) इस ही (वर्तमान) जीवन ( की रक्षा) के लिए, प्रशंसा, श्रादर तथा पूजा (पाने) के लिए, (भावी ) जन्म ( की उधेड़-बुन) के कारण, (वर्तमान में ) मरण - (भय) के कारण तथा मोक्ष ( परम शान्ति) के लिए (और) दुःखों को दूर हटाने के लिए स्वयं ही पृथ्वीकायिक जीव-समूह की हिंसा करता है या दूसरों के द्वारा पृथ्वीकायिक जीव-समूह की हिंसा करवाता है, या पृथ्वीकायिक जीव- समूह की हिंसा करते हुए (करने वाले) दूसरों का अनुमोदन करता है। वह (हिंसा कार्य ) उस (मनुष्य) के अहित के लिए (होता है), वह (हिंसाकार्य) उसके लिए अध्यात्महीन वने रहने का ( कारण ) (होता है) ।
9. ( यह दुःख की बात है कि ) वह (कोई मनुष्य ) इस ही (वर्तमान) जीवन ( की रक्षा) के लिए, प्रशंसा, आदर तथा
चयनिका ]
7
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समारंभति,
हि वा उदयसत्यं समारंभावेति, अण्णे वा उदयसत्थं समारंभंते समगुजाणति । तं से श्रहिताए, तं से श्रवोधीए ।
10 इमस्स चेव जीवियस्त परिवंदण- माणण-पूरणाए जातीमरण-मोयणाए दुक्खपरिघातहेतु से सयमेव श्रगणिसत्यं समारंभति, प्रगहि वा प्रगणिसत्यं समारंभावेति, प्रणे वा श्रगणिसत्यं समारंभमाणे समगुजाणति । तं से अहिताए, तं से श्रवोधीए ।
11 इमस्त चैव जीवियस्स परिवंदण माणण-पूरणाए जातीमरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतु से सयमेव वणस्सतिसत्यं
8 ]
[ आचारांग
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पूजा (पाने) के लिए, (भावी) जन्म ( की उधेड़-बुन) के कारण, (वर्तमान में ) मरण - (भय) के कारण तथा मोक्ष (परम शांति) के लिए (श्रीर) दुःखों को दूर हटाने के लिए स्वयं ही जलकायिक जीव- समूह की हिंसा करता है या दूसरों के द्वारा जलकायिक जीव- समूह की हिंसा करवाता है या जलकायिक जीव- समूह की हिंसा करते हुए ( करने वाले ) दूसरों का अनुमोदन करता है । वह (हिंसा - कार्य) उस (मनुष्य) के ग्रहित के लिए (होता है), वह ( हिंसा - कार्य ) उसके लिए श्रध्यात्महीन बने रहने का ( कारण) (होता है ) ।
10. ( यह दुःख की बात है कि ) वह (कोई मनुष्य ) इस ही (वर्तमान) जीवन ( की रक्षा) के लिए, प्रशंसा, आदर तथा पूजा (पाने) के लिए (भावी ) जन्म ( की उधेड़-बुन) के काररण, (वर्तमान में) मरण- (भय) के कारण तथा मोक्ष ( परम शान्ति) के लिए (और) दुःखों को दूर हटाने के लिए स्वयं ही अग्निकायिक जीव- समूह की हिंसा करता है या दूसरों के द्वारा अग्निकायिक जीव-समूह की हिंसा करवाता है या अग्निकायिक जीव- समूह की हिंसा करते हुए ( करने वाले) दूसरों का अनुमोदन करता है । वह (हिंसा - कार्य) उस (मनुष्य) के हित के लिए ( होता है), वह ( हिंसा - कार्य ) उसके लिए ग्रध्यात्महीन बने रहने का (कारण) (होता है) ।
11. ( यह दुःख की बात है कि ) वह (कोई मनुष्य ) इस ही (वर्तमान) जीवन ( की रक्षा) के लिए, प्रशंसा, आदर तथा पूजा (पाने) के लिए, (भावी) जन्म ( की उधेड़-बुन) के कारण, (वर्तमान में ) मरण - (भय) के कारण तथा मोक्ष (परम शान्ति) के लिए (ौर) दुःखों को दूर हटाने के लिए
चयनिका ]
[ 9
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समारंभति,
हि वा वणस्सतिसत्यं समारंभावेति, श्री वा वणस्सतिसत्यं समारंभमारो समगुजाणत । तं से श्रहियाए, तं से श्रवोहीए ।
12 से बेमि- इमं पि जातिधम्मयं, एयं पि जातिवम्मयं; इमं पिबुद्धिधम्मयं एवं पि बुढिघम्मयं इमं पि चित्तमंतयं, एवं पि वित्तमंतयं;
[0]
इमं पिछां मिलाति, एवं पि द्विण्णं मिलाति; इमं पि आहारगं, एवं पि श्राहारगं; इमं पि श्रणितियं, एयं पि श्रणितियं; इमं पि श्रसासयं, एयं पि श्रसासयं;
[ आचारांग
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12.
स्वयं ही वनस्पतिकायिक जीव- समूह की हिंसा करता है या दूसरों के द्वारा वनस्पतिकायिक जीव-समूह की हिंसा करवाता है या वनस्पतिकायिक जीव समूह की हिंसा करते हुए ( करने वाले) दूसरों का अनुमोदन करता है । वह ( हिंसा - कार्य ) उस (मनुष्य) के हित के लिए (होता है), वह (हिंसा कार्य) उसके लिए अध्यात्महीन बने रहने का ( कारण ) (होता है) ।
वह (मनुष्य और वनस्पतिकायिक जीव की तुलना ) मैं कहता हूँ - यह (मनुष्य) भी उत्पत्ति स्वभाव (वाला) (होता है), यह (वनस्पति) भी उत्पत्ति स्वभाव (वाली) (होती है) । यह (मनुष्य) भी बढ़ोतरी स्वभाव ( वाला) (होता है), यह (वनस्पति) भी बढ़ोतरी स्वभाव (वाली) (होती है) । यह (मनुष्य) भी चेतना वाला (होता है),
यह (वनस्पति) भी चेतना वाली होती है । यह (मनुष्य) भी कटा हुआ उदास होता है, यह (वनस्पति) भी कटी हुई उदास होती है ।
यह (मनुष्य) भी प्रहार करने वाला (होता है), यह (वनस्पति) भी प्रहार करने वाली (होती है) ।
यह (मनुष्य) भी नाशवान् (होता है),
यह (वनस्पति) भी नाशवान् (होती है ) ।
यह (मनुष्य) भी हमेशा न रहने वाला (होता है),
यह (वनस्पति) भी हमेशा न रहने वाली (होती है) । यह (मनुष्य) भी बढ़ने (वाला) और क्षय वाला (होता है),
[ 11
चयनिका ]
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इमं पि चयोवचइयं, एवं पि चयोवचइयं; इमं पि विप्परिणामयम्मयं, एवं पि विप्परिणाम
घन्मयं ।
इमस्त चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए जातीमरण-मोयणाए दुक्खपडिघायहेतुं से सयमेव तसकायसत्यं समारंभति, अण्णेहि वा तसकायसत्यं समारंभावेति, अपणे वा तसकायसत्यं समारंभमाणे समगुजाणति । तं से अहिताए, तं से अवोधोए।
14 से वेमि-अप्पेगे अच्चाए वति, अप्पेगे अजिरगाए वति,
अप्पेगे मंसाए वर्षेति, अप्पे सोणिताए वति, अप्पेगे हिययाए वर्षेति, एवं पित्ताए वसाए पिन्याए पुच्छाए वालाए सिंगाए
12]
[ प्राचारांग
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13
यह (वनस्पति) भी बढ़ने वाली और क्षयवाली (होती है)। यह (मनुष्य) भी (अवस्था में) परिवर्तन स्वभाव (वाला) (होता है), यह (वनस्पति) भी (अवस्था में) परिवर्तन स्वभाव (वाली) होती है। (यह दुःख की बात है कि) वह (कोई मनुष्य) इस ही (वर्तमान) जीवन (की रक्षा) के लिए, प्रशंसा, आदर तथा पूजा (पाने) के लिए, (भावी) जन्म (की उधेड़-बुन) के कारण, (वर्तमान में) मरण-(भय) के कारण तथा मोक्ष (परम-शान्ति) के लिए (और) दुःखों को दूर हटाने के लिए स्वयं ही उसकाय (दो इन्द्रिय से पाँच इन्द्रियों वाले)-जीवसमूह की हिंसा करता है या दूसरों के द्वारा प्रसकाय-जीव समूह की हिंसा करवाता है या उसकाय-जीव-समूह की हिंसा करते हुए (करने वाले) दूसरों का अनुमोदन करता है। वह (हिंसा-कार्य) उस (मनुष्य) के अहित के लिए (होता है), वह (हिंसा-कार्य) उसके लिए अध्यात्महीन बने रहने का (कारण) (होता है)। (प्राणियों का वध क्यों किया जाता है ?) (उसको) मैं कहता हैकुछ मनुष्य पूजा-सत्कार के लिए (प्राणियों का) वध करते हैं, कुछ मनुष्य हरिण आदि के चमड़े के लिए (प्राणियों का) वध करते हैं, कुछ मनुप्य मांस के लिए (प्राणियों का) वध करते हैं, कुछ मनुष्य खून के लिए (प्राणियों का) वध करते हैं, कुछ मनुष्य हृदय के लिए (प्राणियों का) वध करते
हैं, इसी प्रकार पित्त के लिए, चर्वी के लिए, पांख के लिए, चयनिका ]
[ 13
14.
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विसाणाए दंताए दाढाए नहाए हारुणोए अट्ठिए अद्धिमिजाए अट्ठाए अरणट्ठाए।
अप्पेगे हिसिसु मे ति वा, अप्पेगे हिसंति वा, अप्पेगे हिसिस्संति वाणे वति ।
15 इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए जाती
मरण-मोयगाए दुक्खपडिघातहेतुं से सयमेव वाउसत्थं समारभति, अण्णेहि वा वाउसत्यं समारभावेति, अण्णे वा वाउसत्यं समारभंते समणुजाणति । तं से अहियाए, तं से अबोधीए।
16 से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्टाए । सोच्चा भगवतो
14]
[आचारांग
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पूछ के लिए, वाल के लिए, सींग के लिए, हाथी आदि के दांत के लिए, दांत के लिए, दाढ के लिए, नख के लिए, स्नायु के लिए, हड्डी के लिए, हड्डी के भीतरी रस के लिए, किसी (और) उद्देश्य के लिए (तथा) विना किसी उद्देश्य के (व्यर्थ ही) (प्राणियों का वध करते हैं)।
कुछ मनुष्य, (उन्होंने) मेरे (स्वजन की) हिंसा संभवत: की थी, इस प्रकार (कहकर) (उनका वध करते हैं)। कुछ मनुष्य, (यह मेरे स्वजन की) संभवत: (हिंसा करता है), (यह) (कहकर) (उसकी) हिंसा करते हैं, कुछ मनुष्य, (ये मेरे स्वजन की) संभवतः हिंसा करेगे, (यह कहकर)
उनका वध करते हैं। 15. (यह दुःख की बात है कि) वह (कोई मनुष्य) इस ही
(वर्तमान) जीवन (की रक्षा) के लिए, प्रशंसा, आदर, तथा पूजा (पाने) के लिए, (भावी) जन्म (की उधेड़-बुन) के कारण, (वर्तमान में) मरण-(भय) के कारण तथा मोक्ष (परम-शान्ति) के लिए (और) दुःखों को दूर हटाने के लिए स्वयं ही वायुकायिक जीव-समूह की हिंसा करता है या दूसरों के द्वारा वायुकायिक जीव-समूह की हिंसा करवाता है या वायुकायिक जीव-समूह की हिंसा करते हुए (करने वाले) दूसरों का अनुमोदन करता है । वह (हिंसा-कार्य) उस (मनुष्य) के अहित के लिए होता है), वह (हिंसा-कार्य) उसके लिए अध्यात्महीन बने रहने का (कारण) (होता है)।
16. (इसलिये) वह (अहिंसा-साधक) उस ग्रहण किये जाने योग्य
(संयम) को समझता हुआ उठे। भगवान् से (या) साधुओं से
चयनिका ]
[ 15
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अणगाराणं इहमेस णातं भवति - एस खलु गंये, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु गिरए ।
17 तं परिण्णाय मेहावी व सयं छज्जीवणिकायसत्यं समारंनेज्जा, वह छज्जीवशिकायत्सत्यं समारंभावेन्जा, रणेवणे छज्जीवणिकायसत्यं समारंभंते समणुजारज्जा । जस्सेते छज्जीवणिकायसत्यसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुरगी परिणायकम्मे त्ति बेमि ।
18 श्रट्ट लोए परिजुण्णे दुस्संबोधे श्रविजारगए । श्रस्ति लोए पव्वहिए ।
19 जाए सढाए रिक्तो तमेव अणुपालिया विजहित्ता विसोत्तियं ।
16 ]
[ आचारांग
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17.
सुनकर कुछ (मनुष्यों) के द्वारा यहाँ (यह) सीखा हुआ होता है (कि) यह (हिंसा-कार्य) निश्चय ही वन्धन में (डालने वाला है), यह (हिंसा-कार्य) निश्चय ही मूर्छा में (पटकने वाला है), यह (हिंसा-कार्य) निश्चय ही अनिष्ट (अमंगल) में (धकेलने वाला है) (तथा) यह (हिंसा-कार्य) निश्चय ही नरक में (ले जाने वाला है)। उस (हिंसा-कार्य के परिणामों) को समझकर बुद्धिमान (मनुप्य) स्वयं छ:-जीव-समूह, प्राणी-समूह की कभी भी हिंसा नहीं करता है, (तथा) दूसरों के द्वारा छ:-जीव-समूह, प्राणी-समूह की हिंसा कभी भी नहीं करवाता है, (तथा) छः-जीव-समूह, प्राणी-समूह की हिंसा करते हुए (करने वाले) दूसरों का कभी भी अनुमोदन नहीं करता है। जिसके द्वारा (उपर्युक्त) इन छ:-जीव-समूह, प्राणी-समूह के हिंसा-कार्य समझे हुए होते हैं वह ही ज्ञानी (ऐसा) (है) (जिसके द्वारा) (उपर्युक्त) हिंसा-कार्य (द्रण्टा भाव से) जाना हुया है इस प्रकार (मैं) कहता हूँ।
18. (मूच्छित) मनुष्य (अशांति से) पीड़ित (होता है), (समता
भाव से) दरिद्र (होता है), (उसको) (अहिंसा पर आधारित मूल्यों का) ज्ञान देना कठिन होता है) (तथा) (वह) (अध्यात्म को) समझने वाला नहीं (होता है।। इस लोक में (मूच्छित मनुष्य) अति दुःखी (रहता है)। जिस प्रवल इच्छा से (मनुष्य) (अहिंसा-पथ पर) निकला हुया (है), उस (प्रवल इच्छा) को ही बनाए रखकर (तथा)
हिंसात्मक चिन्तन को छोड़कर (वह) (चलता जाय)। चयनिका ]
[ 17
19.
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20 पणया वीरा महावीहि । 21 लोगं च प्राणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं । से बेमि-रणेव सयं
लोगं अन्भाइक्खेज्जा, पेव अत्तारणं अभाइक्खेज्जा। जे लोगं अन्भाइक्खति से अत्तारणं अन्भाइक्खति, जे अत्तारणं अभाइक्खति से लोगं अन्भाइक्खति ।
22 जे गुरणे से श्रावट्ट, जे पावट्ट से गुरणे ।
उड्ढं अहं तिरियं पाईणं पासमाणे रुवाई पासति, सुणमारणे सदाइं सुणेति ।
उड्ढं अहं तिरियं पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छति, सद्देसु यावि।
एस लोगे वियाहिते । एत्य अगुत्ते अणाणाय पुणो पुणो
18 ]
[ आचारांग
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22.
20. महापथ (अहिंसा-समता पथ) पर झुके हुए वीर (होते हैं)। 21. (अर्हत की) आज्ञा से प्राणी समूह को अच्छी तरह से जान
कर (मनुष्य) (उसको) निर्भय (वना दे) अर्थात् उसको अभय दान दे। मैं कहता हूं-(व्यक्ति) स्वयं प्राणी-समूह पर (उसके न होने का) झूठा आरोप कभी न लगाये, न ही निज पर (अपने न होने का) झूठा आरोप कभी लगाये । जो प्राणी-समूह पर (उसके न होने का) झूठा आरोप लगाता है, वह निज पर (अपने न होने का) झूठा आरोप लगाता है, जो निज पर (अपने न होने का) झूठा आरोप लगाता है, वह प्राणी-समूह पर (उसके न होने का) झूठा आरोप लगाता है । जो दुश्चरित्रता (है), वह (अशांति में) चक्कर काटना (है); जो (अशान्ति में) चक्कर काटना (है), वह (ही) दुश्चरित्रता (है)। (द्रष्टाभाव से) देखता हुआ (मनुष्य) ऊपर की ओर, नीचे की अोर, तिरछी दिशा में और सामने की ओर (स्थित) रूपों को (केवल) देखता है, (द्रष्टाभाव से) सुनता हुआ (मनुष्य) शब्दों को (केवल) सुनता है । (किन्तु) मूच्छित होता हुया (मनुष्य) ऊपर की ओर, नीचे की ओर. तिरछी दिशा में और सामने की ओर (स्थित) रूपों में मूच्छित होता है,
और शब्दों में भी (मूच्छित होता है)। यह (मूर्छा) (ही) संसार कहा गया (है) । यहाँ पर (जो) मूच्छित (मनुष्य) (है), (वह) (अर्हत-जीवन-मुक्त) की आज्ञा में नहीं (है)। (जो) बार-बार दुश्चरित्रता के स्वाद में
(लीन है) (जो) कुटिल पाचरण में (दक्ष है), जो प्रमादी चयनिका ]
[ 19.
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गुणासाते वंकसमायारे पमत्ते गारमावसे ।
23 पिज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिरिणवारणं सन्वेसि पाणारणं
सन्वेसि भूतारणं सन्वेसि जीवारणं सव्वेसि सत्तारणं अस्सातं अपरिणिवारणं महन्मयं दुक्खं ति वेमि । तसंति पारणा पदिसो दिसासु य । तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितार्वेति । संति पाया पुढो सिता।
24 जे अज्झत्थं जाणति से बहिया जाणति, जे बहिया जागति
से अज्झत्थं जारगति । एतं तुलमणेसि ।
25 एत्थं पि जाण उवादीयमारणा, जे पायारे रण रमंति
प्रारंभमारणा विणयं वयंति
20
]
[ प्राचारांग
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(आसक्ति-युक्त) (है), (वह) (वास्तव में) (मूर्छा रूपी) घर
में (ही) निवास करता है। 23. प्रत्येक (जीव) की शान्ति को विचार करके और देख करके
(तुम हिंसा को छोड़ो), (चकि) सब प्राणियों के लिए, सब जन्तुओं के लिए, सब जीवों के लिए, सब चेतनवानों के लिए पीड़ा, अशान्ति (है), महा भयंकर (है), दु:ख-युक्त (है)। इस प्रकार (मैं) कहता हूं। (संसार में) प्राणी (सब) दिशाओं में तथा प्रत्येक स्थान पर भयभीत रहते हैं। (चू कि) तू देख, प्रत्येक स्थान पर मूच्छित (मनुष्य) अलगअलग (प्रकार से) (प्राणियों को) दुःख पहुंचाते हैं । (और)
(ये) प्राणी भी अलग-अलग (प्रकार के) होते हैं। 24. जो अध्यात्म (समतामयी परम-आत्मा) को जानता है, वह
वाहर की ओर (स्थित) (सांसारिक विषमताओं) को समझता हैं; जो बाहर की ओर (स्थित) (सांसारिक विषमताओं) को समझता है, वह अध्यात्म (समतामयी परम-धात्मा) को जानता है। (जीवन के सार का) खोज करने वाला (मनुष्य) इस (आध्यात्मिक) तराजू को
(समझे)। 25. यहां (तुम) जानो कि यद्यपि (कई मनुष्य) (गुरु के) निकट
(अहिंसा-समता को) समझते हुए (स्थित हैं), (फिर भी) (उनमें से) जो आचार (अहिंसा-समता) में ठहरते नहीं हैं, (आश्चर्य ! ) (वे) हिंसा करते हुए (भी) आचार (अहिंसासमता) का (दूसरों के लिए) कथन करते हैं। (इस तरह से) (उनके द्वारा) स्वच्छन्दता प्राप्त की गई है) (और) (वे)
अत्यन्त दोष (आसक्ति) में डूबे हुए हैं । (इस प्रकार से) हिंसा चयनिका ]
[ 21
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छंदोवरणीया भोववा प्रारंभसत्ता पकरेति संग
से वसुनं सव्वसमागतपता रोणं श्रप्पा प्रकरपिन्नं पावं क्रम्मं गो ग्रस ।
26 जे गुणे से मूलट्टारो, ले मूलट्ठारो से गुणे । इति से गुरराट्ठी महता परितावेण वसे पत्ते ।
22 1
होय राम व परितप्पना कालाकालसमुट्टायो संजोगट्टी बट्टालोभी बालू सहसरकारे विनिविट्टचित्ते एत्य सत्ये पुरो पुणो ।
27 अभितं च खलु वयं सपेहाए ततो से एगया सूडभाव जयंति।
नहि वा सद्धि संवति ते व गं एगदा शिवगा पुन्वि
{ यात्रासंग
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26.
में आसक्त (व्यक्ति) कर्म - बन्धन (शान्ति) को उत्पन्न करते हैं ।
( किन्तु ) वह अनासक्त (व्यक्ति) जो पूरी तरह से समता को प्राप्त निज प्रज्ञा के द्वारा (जीता है), ( वह) अकरणीय हिंसक कर्म (पूर्णतया छोड़ देता है) तथा ( वह ) ( हिंसा के साधनों की खोज करने वाला नहीं (होता है ) |
जो इन्द्रियासक्ति ( है ), वह (प्रशान्ति का ) आधार ( है ) ; जो (शान्ति का ) श्राधार (है), वह (ही) इन्द्रियासक्ति ( है ) । इस प्रकार वह इन्द्रिय विषयाभिलाषी (व्यक्ति) महान दुःख से (जीवन-यात्रा चलाता है) (तथा) (सदा) प्रमाद (मूर्च्छा ) में वास करता है ।
( वह) दिन में तथा रात में भी दुखी होता हुआ ( जीता है); ( वह ) काल - काल में (तुच्छ वस्तुनों की प्राप्ति के लिए) प्रयत्न करने वाला (वना रहता है); ( वह ) ( केवल ) ( स्वार्थपूर्ण) संबंध का अभिलाषी (होता है); (वह) धन का लालची (होता है); ( वह ) ( व्यवहार में) ठगने वाला (होता है); (वह) विना विचार किए ( कार्यों को) करने वाला (होता है); (वह) ग्रासक्त चित्तवाला (होता है); (वह) यहाँ पर (समस्याओं के समाधान के लिए) बार-वार शस्त्रों (हिंसा) को ( काम में लेता है) ।
27. वास्तव में (अपनी ) बीती हुई आयु को ही देखकर ( मनुष्य व्याकुल होता है), (और) बाद में ( बुढ़ापे में ) उसके (मनोभाव) एक समय ( उसमें ) ( मूर्खतापूर्ण) अवस्था उत्पन्न कर देते हैं ।
और जिनके साथ ( वह) रहता है, एक समय वे ही आत्मीय
[ 23
चयनिका ]
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परिवदंति, सो वा ते रिणयगे पच्छा परिवदेज्जा । गालं ते तव तारणाए वा सरणाए वा, तुमं पि तेसि गालं तारणाए वा सररणाए वा । से रग हासाए, रग किड्डाए, ग रतीए ग विभूसाए ।
28 इच्चेवं समुट्ठिते होविहाराएं अंतरं च खलु इमं सपेहाए धीरे मुहुत्तमवि गो पमादए । वो अच्चेति जोव्वरणं च ।
29 जीविते इह जे पमत्ता से हंता छेत्ता मेत्ता लु पित्ता विलु पित्ता उद्दवेत्ता उत्तासयित्ता प्रकडं करिस्सामि त्ति मण्णमागे ।
30 एवं जाणित दुक्खं पत्तेयं सातं श्रणभिक्कतं च खलु वयं सपेहाए खरणं जाणाहि पंडिते !
जाव सोतपण्णारणा परिहीरगा जाव रोत्तपण्णारणा अपरि
24 ].
[ आचारांग
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28.
(जन) उसको पहले बुरा-भला कहते हैं, पीछे वह भी उन आत्मीय-(जनों) को बुरा-भला कहता है। (अतः तुम समझो कि) वे तुम्हारे सहारे के लिए या सहायता के लिए पर्याप्त नहीं (हैं)। (ध्यान रखो) तुम भी उनके सहारे के लिए या सहायता के लिए पर्याप्त नहीं (हो)। (बुढ़ापे की अवस्था में) वह (मनुष्य) मनोरंजन के लिए, क्रीड़ा के लिए, प्रेम के लिए तथा (प्रचलित)सजवाट के लिए(उपयुक्त)नहीं(रहता है।) इस प्रकार (मनुष्य) (बुढ़ापे को समझकर) आश्चर्यकारी संयम के लिए सम्यक्-प्रयत्नशील (वने) । (अतः) (सचमुच ही) इस अवसर (वर्तमान मनुष्य-जीवन के संयोग) को देखकर ही धीर (मनुष्य) क्षणभर के लिए भी प्रमाद न करे। (समझो) आयु वीतती है, यौवन भी (वीतता है)। (अतः मनुष्य प्रमाद न करे)। इस जीवन में जो (व्यक्ति) प्रमाद-युक्त (होते हैं), (वे आयु व्यतीत होने को समझ नहीं पाते हैं), (अतः) (वह) (प्रमादी व्यक्ति) (जीवों को) मारने वाला, छेदने वाला, भेदने वाला, (उनकी) हानि करने वाला, (उनका) अपहरण करने वाला, (उन पर) उपद्रव करने वाला (तथा) (उनको) हैरान करने वाला (होता है)। कभी नहीं किया गया (है) (एसा) (मैं) करूंगा, इस प्रकार विचारता हुआ (प्रमादी व्यक्ति हिंसा पर उतारू हो जाता है)। हे पण्डित ! इस प्रकार प्रत्येक (जीव) के सुख-दुःख को समझकर (और) (अपनी) आयु को ही सचमुच न वीती हुई देखकर, (तू) उपयुक्त अवसर को जान ।। जव तक श्रवणेन्द्रिय की ज्ञान-(शक्तियाँ) कम नहीं होती हैं), जव तक चक्षु-इन्द्रिय की ज्ञान-(शक्तियाँ) कम नहीं होती हैं),
29.
30.
चयनिका ]
[ 25
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होणा जाव घारणपण्णारणा अपरिहीणा जाव जीहपरणाणा अपरिहीणा जाव फासणण्णारा अपरिहीणा, इच्चेतेहि विरुवस्वेहिं पण्णाणेहि अपरिहाणेहिं आयर्ल्ड सम्म समगुवासेज्जासि त्ति वेमि ।
31 अरति प्राउट्ट से मेधावी खरपंसि मुक्के ।
32 अणाणाए पुट्ठा वि एगे रिणयति मंदा मोहेण पाउडा।
33 विमुक्का हु ते जणा जे जणा पारगामिणो, लोभमलोमेण
दुगुंछमारणे लद्ध कामे गाभिगाहति ।
34 पो हीणे, पो अतिरित्ते। 35 जीवियं पुढो पियं इहमेगेसि माणवाणं खेत्त-वत्थु . ममायमाणारणं।
ए एत्थ तवो वा दमो वा रिणयमो वा दिस्सति ।
36 इणमेव णावकखंति जे जणा धुवचारिणो।
जाती-मरणं परिणाय चर संकमणे दढे ॥ णत्थि कालस्स णागमो।
26 ]
[ आचारांग
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31.
32.
जब तक घ्राणेन्द्रिय की ज्ञान - ( शक्तियाँ) कम नहीं (होती हैं), जब तक रसनेन्द्रिय की ज्ञान - ( शक्तियाँ) कम नहीं होती हैं), जब तक स्पर्शनेन्द्रिय की ज्ञान - ( शक्तियाँ) क्रम नहीं (होती हैं), ( तब तक ) इन इस प्रकार अनेक भेद (वाली) अक्षीण (इन्द्रिय) ज्ञान- ( शक्तियों) द्वारा (तू) उचित प्रकार से आत्महित को सिद्ध कर ले | इस प्रकार ( मैं ) कहता हूं । (जो ) वेचैनी को ( ही ) समाप्त कर देता है, (होता है); (ऐसा व्यक्ति) पल भर में वन्धन
जाता है) ।
(आध्यात्मिक गुरु की) अनाजा से ग्रस्त कुछ ( साधक) ही ( अन्तर्यात्रा में ) रुक जाते हैं। (ऐसे) (साधक) मूर्ख (हैं) (और) श्रासक्ति से घिरे हुए हैं) ।
33. वे मनुष्यं निश्चय ही (दुःख ) - मुक्त हैं, जो मनुष्य (विषमतानों के) पार पहुँचने वाले ( हैं ) | ( साधक) प्रति तृष्णा को अतृष्णा से झिड़कता हुआ (आगे बढ़ता है), (और) प्राप्त हुए विषय भोगों का (भी) सेवन नहीं करता है ।
वह प्रज्ञावान् रहित (हो
34. (कोई ) नीच नहीं ( है ). ( कोई) उच्च नहीं ( है ) ।
35. भूमि व धन-दौलत की इच्छा करते हुए कुछ व्यक्तियों के लिए यहाँ अलग-अलग ( प्रकार का ) जीवन प्रिय ( है ) । उन ( व्यक्तियों) में तप श्रात्म- नियन्त्रण और सीमा - बन्धन नहीं देखा जाता है ।
,
36. जो लोग परम शांति के इच्छुक ( हैं ) ( वे ) इस (महत्व से उत्पन्न व्याकुलता ) को विल्कुल नहीं चाहते हैं ।
(अतः ) (तू) जन्म-मरण (शान्ति) को जानकर दृढ़-संयम
पर चल ।
मृत्यु के लिए ( किसी क्षरण भी) न आना नहीं है ।
चयनिका ]
[ 27
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सचे पाणा पिनाउया सुहसाता दुक्खपडिकूला अप्पियवधा पियजीविणो जीवितुकामा । सन्वेसि जीवितं पियं ।
37 तं परिगिझ दुपयं चउप्पयं अभिजु जियारणं संसिंचियारणं
तिविधेरण जा वि से तत्थ मत्ता भवति अप्पा वा बहुगा वा से तत्थ गढिते चिटुति भोयराए । ततो से एगदा विप्परिसिटुं संभूतं महोवकरणं भवति । तं पि से एगदा दायादा विभयंति, अदत्तहारो वा सेऽवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सति वा से, विरणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से डज्झति ।
इति से परस्सवाए कूराई कम्माई वाले पकुवमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति । मुणिणा हु एतं पवेदितं । अरणोहंतरा एते, णो य गोहं तरित्तए । अतीरंगमा एते, पो य तीरं गमित्तए । अपारंगमा एते, रणो य पारं गमित्तए ।
28 ]
[ आचारांग
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सब (ही) प्राणी (ऐसे हैं) (जिनको) (अपने) आयु प्रिय (होते हैं), (जिनके लिए) (अपने) सुख अनुकूल (होते हैं), (अपने) दुःख प्रतिकूल (होते हैं), (अपने) वध अप्रिय (होते हैं), (अपनी) जिन्दा रहने वाली (स्थितियाँ) प्रिय होती हैं और (जो) अपने जीवन के इच्छुक (होते हैं)। सब (प्राणियों) के
लिए जीवन प्रिय (होता है)। 37. तो (व्यक्ति) मनुष्य और पशु को रखकर, (उमको) कार्य में
लगाकर तीनों प्रकार (किसी मनुष्य, पशु और स्वयं) के (साधनों) द्वारा (अर्थ को) बढ़ाकर (जीता है)। जो भी उसके पास उस अवसर पर अल्प या बहुत (धन की) मात्रा होती है, उसमें वह आसक्त रहता है (और) भोग के लिए (उस अर्थ को काम लेता है)। एक समय (भोग के) वाद में बचा हुआ, उपलब्ध (धन) उसके लिए महान् साधन हो जाता है। उसको भी एक समय उसके उत्तराधिकारी बांट लेते हैं या चोर उसका अपहरण कर लेता है या राजा उसको छीन लेते हैं या वह नष्ट हो जाता है, या वह वर्वाद हो जाता है या वह घर के दहन से जला दिया जाता है। इस प्रकार अज्ञानी दूसरे के प्रयोजन के लिए क्रूर कर्मों को करता हुआ उनके द्वारा (प्राप्त) दुःख से व्याकुल हुआ विपरीतता (अशांति) को प्राप्त होता है। ज्ञानी के द्वारा ही यह कहा गया (है)। ये (अशान्ति को प्राप्त करने वाले) पार जाने में असमर्थ (होते हैं)-संसाररूपी प्रवाह में तैरने के लिये विल्कुल (समर्थ) नहीं (हैं)। ये तीर पर जाने वाले नहीं हैं)-तीर
पर जाने के लिए बिल्कुल (समर्थ) नहीं (होते हैं)। ये पार चयनिका ]
[ 29
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आयाणिज्जं च पादाय तम्मि ठाणे रण चिट्ठति । वितहं पप्प खेतण्णे तम्मि ठाणम्मि चिट्ठति ।
38 उद्देसो पासगस्स गस्थि ।
बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमितदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव पावट्ट अणुपरियट्टति त्ति वेमि ।
39
आसं च छंदं च विगिच धीरे । तुमं चेव तं सल्लमाहटु । जेरण सिया तेरण यो सिया। इणमेव रणावबुझंति जे जरा मोहपाउडा।
40 उदाहु वीरे-अप्पमादो महामोहे, अलं कुसलस्स पमादेणं,
संतिमरणं सपेहाए, भेउरधम्मं सपेहाए । रणालं पास । प्रलं
30 ]
[ आचारांग
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जाने वाले नहीं (हैं)-पार जाने के लिए बिल्कुल (समर्थ) नहीं (होते हैं) । ग्रहण किए जाने के योग्य को ग्रहण करके (धूर्त व्यक्ति) उस स्थान पर नहीं ठहरता है। असत्य को प्राप्त
करके धूर्त (व्यक्ति) उस स्थान पर ठहरता है। 38. द्रष्टा (समतादर्शी) के लिए (कोई) उपदेश (शेष) नहीं है।
और अज्ञानी (विषमतादर्शी) आसक्ति-युक्त (होता है), भोगों का अनुमोदन करने वाला (होता है), अपरिमित दु:ख के कारण दुःखी (होता है), (तथा) दुःखों के ही भंवर में
फिरता रहता है । इस प्रकार (मैं) कहता हूँ। 39. हे धीर ! (तू) (मनुष्यों के प्रति) आशा को और (वस्तुओं
की) इच्छा को छोड़। तू ही उस (आशा और इच्छारूपी) विष को ग्रहण करके (दुःखी होता है)। जिस (वस्तु) के कारण (सुख-दुःख) होता है, उस (वस्तु) के कारण (सुख-दुःख) नहीं (भी) होता है। (ऐसा सोचनेसमझने से मनुष्य पर से स्व की ओर लौट आता है)। जो मनुष्य आसक्ति से ढके हुए हैं), (वे) इस (वात) को ही
नहीं समझते (हैं)। 40. महावीर ने कहाः (यदि कहीं) घोर आसक्ति में (डूबने का)
(आकर्षण) (उपिस्थित) (हो जाए), (तो) (उस) (समय) (जो) (व्यक्ति) प्रमाद (आसक्ति)-रहित (रहता है), (वह) (प्रशंसनीय) (होता है); कुशल (व्यक्ति) के लिए (ऐसा) (होना) पर्याप्त (है) (कि) (वह) (संसार में) प्रमाद (आसक्ति) (के विना) (रहता है); शान्ति और मरण को देखकर (तथा) (शरीर के) नश्वर स्वभाव को देखकर
(कोई भी व्यक्ति आसक्ति में न डूबे) । तू देख, (कि) चयनिका ]
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ते एतेहिं । एतं पास मुरिण ! महन्भयं । णातिवातेज्ज कंचरणं।
41 एस वीरे पसंसिते जे रण णिविज्जति पादारणाए । 42 लाभो त्ति ण मज्जेज्जा, अलाभो त्ति ए सोएज्जा, बहं पि
लद्धरण मिहे । परिग्गहाम्रो अप्पाणं अवसक्केजा । अण्णहा णं पासए परिहरेज्जा।
43 कामा दुरतिक्कमा । जीवियं दुप्पडिबूहगं । कामकामी खलु
अयं पुरिसे, से सोयति जूरति तिप्पति पिड्डति परितप्पति ।
44 आयतचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहेभागं जाणति, उड्ढे
भागं जाति, तिरियं भागंजापति, गढिए अणुपरियट्टमाणे। संधि विदित्ता इह मच्चिएहि, एस वोरे पसंसिते जे वद्ध पडिमोयए।
45 कासंकसे खलु अयं पुरिसे, वहुमायो, कडेण मूढे, पुरणोतं
32 ]
[ आचारांग
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( आसक्ति से ) कोई लाभ नहीं ( है ) | ( तू समझ कि ) ( संसार में ) इन ( विषयों) से तेरे लिए कोई लाभ नहीं ( है ) । हे ज्ञानी ! (तू) इस (बात) को सीख ( कि) (आसक्ति) महाभंयकर (होती है) । (हे मनुष्य ! ) (तू) किसी भी तरह (प्राणियों को )
मत मार ।
41. वह वीर प्रशंसित (होता है), जो संयम से दूर नहीं होता है । 42. (यदि) लाभ (है), (तो) मद न कर; (यदि) हानि, (है), (तो)
शोक मत कर बहुत भी प्राप्त करके श्रासक्ति युक्त मत (वन) । अपने को परिग्रह से दूर रख । द्रष्टा उस (संयम के योग्य परिग्रह) का विपरीत रीति (अनासक्त भाव ) से परिभोग करता है ।
43. इच्छाएँ दुर्जय (होती हैं) । जीवन बढ़ाया नहीं जा सकता (है) । यह मनुष्य इच्छाओं ( की तृप्ति) का ही इच्छुक (होता है), (इच्छाओं के तृप्त न होने पर) वह शोक करता है, क्रोध करता है, रोता है, (दूसरों को ) सताता है (और) (उनको) नुकसान पहुँचाता है ।
44. (जिसकी ) आँखें विस्तृत (होती हैं ), ( वह ) (सम्पूर्ण) लोक को देखने वाला (होता है) । ( वह) लोक के नीचे भाग को जानता है । ऊर्ध्व भाग को जानता है, तिरछे भाग को जानता है, आसक्त (मनुष्य) (संसार में) फिरता हुआ (दुःखी) (होता है) । (अतः यहां अवसर को जान कर मनुष्य के द्वारा (इच्छात्रों से मुक्त होने का प्रयत्न किया जाना चाहिए), जो (इच्छाओं से) बँधे हुत्रों को मुक्त करता है, वह वीर प्रशंसित (होता है ) । 45. सचमुच यह मनुष्य संसार में प्रासक्त (है), (यह ) अति कपटी (है), (आसक्ति) के कारण (यह ) अज्ञानी ( बना है), इसलिए फिर ( विषयों की ) लोलुपता को करता है (श्रीर) ( इस तरह )
चयनिका ]
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करेति लोभ, वेरं वड्ढेति अप्परयो। 46 जे ममाइयमति जहाति से जहाति ममाइतं ।
से हु दिट्ठपहे मुणी जस्स पत्थि ममाइतं ।
47 णारति सहती वीरे, वीरे यो सहती रति ।
जम्हा अविमरणे वीरे तम्हा वीरे रण रज्जति ।।
48 जे अणण्णदंसी स अणण्णारामे, जे अणण्णारामे से अणण्णदंसी ।
49 उड्ढं अहं तिरियं दिसासु, से सव्वतो
सवपरिण्याचारी लिप्पति छरणपदेण वीरे।
50 से मेधावी जे अणुग्घातणस्स खेत्तण्णे जे य बंधपमोक्ख
मण्णसी।
34 ]
[ आचारांग
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(यह ) (संसार में) अपने लिए दुश्मनी बढ़ाता है ।
46. जो ममतावाली वस्तु-बुद्धि को छोड़ता है, वह ममतावाली वस्तु को छोड़ता है; जिसके लिए (कोई ) ममतावाली वस्तु नहीं है, वह ही (ऐसा ) ज्ञानी है, (जिसके द्वारा ) ( अध्यात्म) - पथ जाना गया है ।
47. वीर (ऊर्ध्वगामी ऊर्जावाला व्यक्ति )
( मूल्यों से) विकर्षरण ( अलगाव ) को ( समाज के जीवन में ) सहन नहीं करता है, (तथा) वीर (पशु - प्रवृत्तियों के प्रति आकर्षण (लगाव ) को भी ( समाज के जीवन में ) सहन नहीं करता है । चूंकि वीर - ( किसी भी विपरीत परिस्थिति में ) खिन्न नहीं ( होता है), इसलिए वीर ( किसी भी अनुकूल परिस्थिति में) खुश नहीं होता है । ( वास्तव में वह समताभाव में स्थित रहता है) । 48. जो (मनुष्य) समतामयी (आत्मा) के दर्शन करने वाला ( है ), वह अनुपम प्रसन्नता में ( रहता है), जो (मनुष्य) अनुपम प्रसन्नता में ( रहता है), वह समतामयी (आत्मा) के दर्शन करने वाला ( है )
।
49. वह ऊँची, नीची (और) तिरछी दिशाओं में सब ओर से पूर्ण जागरूकता से चलने वाला (होता है ) | ( अतः ) ( वह ) वीर (ऊर्ध्वगामी ऊर्जा वाला) हिंसा-स्थान के साथ (अप्रमादी होने के कारण ) संलग्न नहीं किया जाता है ।
50. जो भी (कर्म) - बंधन और (कर्म से ) छुटकारे के विषय में खोज करने वाला (होता है), जो श्राघातरहितता (अहिंसा) को जानने वाला (होता है), वह मेधावी ( शुद्ध बुद्धि) (होता है) ।
कुशल ( जागरूक ) और न ( कर्मों से)
चयनिकां ] :
(व्यक्ति) न ( कर्मों से) बंधा हुआ ( है ) मुक्त किया गया ( है ) | ( आत्मानुभवी
[ 35
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कुसले पुरण णो बद्ध णो मुक्के ।
से जं च श्रारभे, जं च णारमे, श्ररणारद्ध च ण श्रारमे ।
51 सुत्ता प्रसुणी सुपिरो सया जागरंति ।
52 जस्सिमे सद्दा य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमसागता भवंति से श्रातवं णारणवं वेयवं धम्मवं बंभवं ।
53 पासिय श्रातुरे पारणे श्रप्पमत्तो परिव्वए । मंता एवं मतिमं पास,
श्रारंभजं दुक्खमिरणं ति पच्चा,
मायी पमायी पुरेति गब्भं ।
उवेहमाणो सह-रूवेसु अंजू माराभिसंकी मररणा पमुच्चति ।
54 अप्पमतो कामेहि, उवरतो पावकम्मेहि, वीरे श्रातगुत्ते खेयणे ।
36 1
[ आचारांग
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बंधन र मुक्ति के विकल्पों से परे होता है) । वह (कुशल) जिस (काम) को भी करता है, ( व्यक्ति व समाज उसको ही करे) । ( वह) जिस (काम) को बिल्कुल नहीं करता है, ( व्यक्ति व समाज ) ( कुशलपूर्वक ) नहीं किए हुए (काम) को बिल्कुल न करे ।
51. अज्ञानी (सदा ) सोए हुए अध्यात्ममार्ग को भूले हुए) ( हैं ), ज्ञानी सदा जागते हैं (अध्यात्ममार्ग में स्थित ) हैं ।
52. जिसके द्वारा ये शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श (द्रष्टाभाव से) अच्छी तरह जाने गए होते हैं, वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् (नौर) ब्रह्मवान् (होता है) ।
53. पीड़ित प्राणियों को देखकर (तू) श्रप्रमादी ( होकर) गमन कर । (यहाँ ) (प्राणी) ( पीड़ा में ) चीखते हुए ( दिखाई देते हैं) । हे बुद्धिमान् ! इसको (तू) देख ।
यह पीड़ा हिंसा से उत्पन्न होने वाली ( है ), (तथा) माया-युक्त और प्रमादी (व्यक्ति) गर्भ में बार-बार आता है, इस प्रकार जानकर (तू श्रप्रमादी वन) ।
शब्द श्रोर रूप की उपेक्षा करता हुआ (मनुष्य) संयम में तत्पर ( हो जाता है) (तथा) (वार-वार) मरण से डरने वाला मरण से छुटकारा पा जाता है ।
54 (जो ) इच्छात्रों में मूर्च्छा रहित (होता है ) (तथा) पापकर्मों से मुक्त (होता है), (वह) वीर (ऊर्ध्वगामी ऊर्जा वाला) (होता है), श्रात्म- रक्षित (तथा) जानने वाला (होता है) ।
(द्रष्टाभाव से )
चयनिका ]
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जे पज्जवजातसत्थस्स खेत से प्रसत्यस्स खेतण्णे । जे असत्यस्स खेत से पज्जवजातसत्यस्स खेतण्णे ।
55 प्रकम्मस्स ववहारो ग विज्जति । कम्मुरगा उवाधि जायति
56 कम्मं च पडिलेहाए कम्ममूलं च जं छरणं, पडिलेहिय सव्वं समायाय दोहि अंतहि श्रदिस्समा ।
57 अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे, पलिछिदियाणं रिणक्कम्मदंसी ।
58 लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते समिते सहिते सदा जते कालकंखी परिव्वए ।
59 सच्चंसि घिति कुव्वह । एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्म भोसेति ।
38]
[ आचारांग
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जो पर्यायों से उत्पन्न (दृष्टिरूपी) शस्त्र का जानने वाला (है) वह अशस्त्र (द्रव्य-दृष्टि) का जानने वाला है। जो अशस्त्र (द्रव्य-दृष्टि) का जानने वाला (है), वह पर्यायों से उत्पन्न (दृष्टिरूपी) शस्त्र का जानने वाला (है) [पर्यायदृष्टि, द्रव्य-दृष्टि की नाशक होती है, इसलिए पर्याय-दृष्टि को शस्त्र कहा है] । कर्मों से रहित (व्यक्ति) के लिए (कोई) सामान्य, लोक प्रचलित आचरण नहीं होता है । उपाधि (विभेदक गुण) कर्मो से उत्पन्न होती है/होता है। (जो मनुष्य) कर्म को ही देखकर तथा जो हिंसा कर्म का प्राधार (है) (उसको) देखकर पूर्ण (संयम) को ग्रहण करके (रहता है), (वह) दोनों अंतों (राग-द्वेष, शुभ-अशुभ) के द्वारा नहीं कहा जाता हुआ (होता है) अर्थात् वह दोनों अंतों से
परे हो जाता है। 57 हे धीर! (तू) (विषमता के) प्रतिफल और आधार का
निर्णय कर। (तथा) (उसका) छेदन करके कर्मों से रहित
(अवस्था) का अर्थात् समता का देखने वाला (वन)। 58 (जो) लोक में परम-तत्त्व को देखने वाला है, (वह) (वहाँ)
विवेक-युक्त जीने वाला (होता है), तनाव-मुक्त (होता है), समतावान् (होता है), कल्याण करने वाला (होता है), सदा जितेन्द्रिय (होता है), (कार्यों के लिए) उचित समय को चाहने वाला (होता है), (तथा) (वह) (अनासक्ति
पूर्वक) (वहाँ) गमन करता है। 59 (तुम सव) सत्य में धारणा करो। यहां पर (सत्य में) ठहरा
हुया मेधावी (शुद्ध वुद्धि वाला) सब पाप-कर्मों को क्षीण कर
देता है। चयनिका ]
[ 39
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60 अरणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयरणं अरिहइ पूरइत्तए।
61 णिस्सारं पासिय गाणी ।
उववायं चयरणं गच्चा प्रगणं चर माहणे । से रण छणे, न चरणावए, छरगतं णाणुजारराति ।
62 क्रोधादिमाणं हरिणया य वोरे, लोभस्स पासे रिगरयं महंत ।
तम्हा हि वीरे विरते वघातो, छिदिज्ज सोतं लहुनूयगामी ।
63 गंयं परिणाय इहज्ज वोरे, सोयं परिणाय चरेज्ज दंते ।
उम्मुग्ग लद्ध इह माणवेहि, पो पाणिणं पारणे समारनेज्जासि।
64 समयं तत्थुवेहाए अप्पारणं विप्पसादए ।
अणण्णपरमं गाणी णो पमादे कयाइ वि । 40 ]
[ आचारांग
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60 यह मनुष्य सचमुच अनेक चित्तों को (धारण करता है)।
(प्रात्म-दृष्टि के उदय हुए बिना मनुष्य का शान्ति के लिए दावा करना ऐसे ही है जैसे कि) वह चलनी को (पानी से) भरने के लिए दावा करता है। [जैसे चलनी को पानी से भरा नहीं जा सकता है, उसी प्रकार चित्त-भूमि पर तनावमुक्ति सम्भव नहीं हैं। हे ज्ञानी! (जीवन में) निस्सार (अवस्था) को देखकर (तू समझ)। हे अहिंसक ! (दुःख पूर्ण) जन्म-मरण को जानकर समता का आचरण कर । वह (समता का आचरण करने वाला) न हिंसा करता है, न हिंसा कराता है, (और) न हिंसा करते हुए का अनुमोदन
करता है। 62 क्रोध आदि को (तथा) अहंकार को सर्वथा नष्ट करके वीर
प्रचण्ड नरक (मय) लोभ को (द्रष्टाभाव से) देखता है, इसलिए हो (कषायों का भार हटने के कारण) हलका होकर गमन करने वाला वीर हिंसा से मुक्त हुआ (संसार)-प्रवाह को नष्ट कर देता है। परिग्रह को (द्रष्टाभाव से) जानकर (तथा) (संसार)-प्रवाह को (भी) (द्रष्टाभाव से) जानकर वीर यहाँ आज (ही) आत्म-नियन्त्रित (होकर) व्यवहार करे । (अतः) (तू) मनुष्य होने के कारण (संसार-सागर से) बाहर निकलने के (अवसर को) प्राप्त करके यहाँ प्राणियों के प्राणों की हिंसा
मत कर। 64 वहाँ (जीवन में) समता को (मन में) धारण करके (व्यक्ति)
स्वयं को प्रसन्न करे।
.
63
. चयनिका ]
[ 41
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पातगुत्ते सदा वीरे जातामाताए जावए । विरागं रूवेहिं गच्छेज्जा महता खुड्डएहिं वा ।
आगति गति परिणाय दोहि वि अंतेहि अदिस्समाणेहि से रण छिज्जति, रण भिज्नति, रण डझति, ण हम्मति कंचरणं सव्वलोए।
65 अवरेण पुत्वं ण सरंति एगे किमस्स तीतं किं वाऽऽगमिस्सं।
भासंति एगे इह मारणवा तु जमस्स तीतं तं प्रागमिस्सं। णातीतमट्ठरण य आगमिस्सं अटुंरिणयच्छति तथागता उ । विपतकप्पे एताणुपस्सी रिणज्झोसइत्ता ।
66 पुरिसा! तुममेव तुम मित्तं, कि बहिया मित्तमिच्छसि ?
जं जाणेज्जा उच्चालयितं तं जाणज्जा दूरालयितं, जं जाणेज्जा दूरालइतं तं जाणेज्जा उच्चालयितं ।
42 ]
[ आचारांग
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अद्वितीय परम-(तत्व) के प्रति ज्ञानी कभी भी प्रमाद न करे। वीर सदा आत्मा से संयुक्त (रहे) (तथा) केवल (संयम)-यात्रा के लिए शरीर का प्रतिपालन करे। (वह) बड़े और छोटे रूपों से विरक्ति करे। (जो) (संसार में) आने और (संसार से) जाने को (द्रष्टाभाव से) जानकर (लोक में विचरण करता है), (जी) दोनों ही अन्तों द्वारा समझा जाता हुआ (समझा जाने वाला) नहीं होने के कारण (द्वन्द्व से परे रहता है), वह लोक में कहीं भी (किसी के द्वारा) थोड़ा-सा (भी) न छेदा जाता है, न भेदा जाता है, न जलाया जाता है, तथा न मारा जाता है। कुछ लोग भविष्य के साथ-साथ) पूर्वागामी (अतीत) को मन में नहीं लाते हैं, इसका अतीत क्या (था)? और (इसका) भविष्य क्या (होगा) ? किन्तु, कुछ मनुष्य यहाँ कहते हैं (कि) इसका जो अतीत (था) वह (ही) (इसका) भविष्य (होगा)। इसके विपरीत वीतराग न अतीत-प्रयोजन को तथा न भविष्य-प्रयोजन को देखते हैं। अव (वर्तमान) को देखने वाला सम्यक्स्पष्ट (समतामयी)
आचरण के द्वारा कर्मों का नाश करने वाला होता है)। 66 हे मनुष्य ! तू ही तेरा मित्र (है), (तू) बाहर की ओर मित्र
की तलाश क्यों करता है ? जिसे (तुम) ऊँचे (आध्यात्मिक मूल्यों) में जमा हुआ जानो, उसे (तुम) (आसक्ति से) दूरी पर जमा हुआ जानो, जिसे (तुम) (आसक्ति से) दूरी पर जमा हुआ जान लो, उसे
(तुम) ऊँचे (आध्यात्मिक मूल्यों) में जमा हुआ जानो। चयनिका ]
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67 पुरिसा! अत्तारणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि ।
68 पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि । सच्चस्स प्रारणाए से
उवहिए मेधावी मारं तरति । सहित धम्ममादाय सेयं समणुपस्सति । सहिते दुक्खमत्ताए पुट्ठो णो झंझाए ।
69 जे एगे जाणति से सव्वं जापति, जे सव्वं जाति से एगं
जागति । सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अप्पमत्तस्स पत्थि भयं । जे एगणामे से बहुणामे, जे बहुणामे से एगणामे । दुक्खं लोगस्स जाणित्ता, वंता लोगस्स संजोग, जंति वीरा महाजाणं । परेण परं जंति, णावखंति जीवितं । एग विगिचमाणे पुढो विगिचइ, पुढो विगिचमाणे एर्ग विगिचइ सड्ढी प्राणाए मेधावी।
44 ]
[ आचारांग
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67 हे मनुष्य ! (तू) (अपने) मन को ही रोककर (जी) । इस
प्रकार (तू) दुख से (ही) छूट जायगा। 68 हे मनुष्य ! (तू) सत्य का ही निर्णय कर । (जो) सत्य की
आज्ञा में उपस्थित (है), वह मेधावी मृत्यु को जीत लेता है। सुन्दर चित्तवाला (संयम-युक्त) (व्यक्ति) धर्म (अध्यात्म) को ग्रहण करके श्रेष्ठतम को भलीभांति देखता (अनुभव करता है। दुःख की मात्रा से ग्रस्त (व्यक्ति) (जो) सुन्दर चित्तवाला (संयम-युक्त) (होता है) (वह) व्याकुलता में नहीं (फँसता
69 जो अनुपम (आत्मा) को जानता है, वह सब (विषमताओं)
को जानता है; जो सव (विषमताओं) को जानता है, वह अनुपम (आत्मा) को जानता है । प्रमादी (विषमताधारी) के लिए सब ओर से भय (होता है), अप्रमादी (समताधारी) के लिए किसी ओर से भय नहीं होता है)। जो एक (मोह) को झुकाता है, वह बहुत (कपायों) को झुकाता है। जो बहुत (कपायों) को झुकाता है, वह एक (मोह) को झुका देता है। प्राणी-समूह के दुःख को जानकर (तू) (समता का आचरण कर), संसार के प्रति ममत्व को (मन से) बाहर निकाल कर वीर (समतारूपी) महापथ पर चलते हैं। (व) आगे से आगे चलते जाते हैं, (और) (आसक्ति-युक्त) जीवन को नहीं चाहते हैं।
केवल मात्र (हिंसा-दोप) को दूर हटाता हुआ (व्यक्ति) एकचयनिका ]
[
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लोगं च पारगाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं । अस्थि सत्थं परेण परं, त्यि असत्यं परेण परं।
70 जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी,
जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेज्जदंसी, जे पेज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी...
..............से दुक्खदंसी।
46 ]
[ आचारांग
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एक करके (दूसरे दोषों को) दूर हटा देता है। एक-एक करके (दूसरे दोषों को) दूर हटाता हुआ (व्यक्ति), केवल मात्र (हिंसा-दोष) को (ही) दूर हटा देता है। (अहिंसासमता धर्म की) आज्ञा (सलाह) में श्रद्धा रखने वाला शुद्ध बुद्धि वाला (होता है)। प्राणी-समूह को ही (समतादर्शी) की आज्ञा से जानकर (जो) (व्यक्ति अहिंसा का पालन करता है) (वह) निर्भय (हो जाता है। शस्त्र तेज से तेज होता है, अशस्त्र तेज से तेज नहीं होता है [हिंसा तीव्र से तीव्र होती है, अहिंसा सरल होती है] जो (व्यक्ति) क्रोध को समझने वाला (होता है); वह (उसके) (मूल में स्थित) अहंकार को समझने वाला (हो जाता है); जो (व्यक्ति) अहंकार को समझने वाला (होता है), वह (उससे) (उत्पन्न) मायाचार को समझने वाला (हो जाता
जो (व्यक्ति) मायाचार को समझने वाला (होता है), वह (उसके) (मूल में स्थित) लोभ को समझने वाला (हो जाता है); जो (व्यक्ति) लोभ को समझने वाला (होता है), वह (उसके) (मूल में स्थित) राग को समझने वाला (हो जाता है); जो (व्यक्ति) राग को समझने वाला (होता है), वह (उससे) (उत्पन्न) द्वष को समझने वाला हो जाता है। जो (व्यक्ति) (राग) (और) द्वष को समझने वाला (होता है), वह (उसके). (मूल में स्थित) आसक्ति को समझने वाला (हो जाता है);
जो (व्यक्ति) आसक्ति को समझने वाला (होता है) वह : चयनिका ]
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71 किमत्यि उवधी पासगस्स, रण विज्जति ? णस्थि ति वेमि ।
72 सत्वे पाणा सन्वे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हतत्वा, रण
प्रज्जावेतवा, रण परिघेत्तवा, ण परितावेयवा, ण उहवेयवा। एस धम्मे सुद्ध णितिए सासए समेच्च लोयं खेतपणेहि पवेदिते।
73 णो लोगस्सेसणं चरे।
74 णाऽणागमो मच्चुमुहस्स अस्थि ।
इच्छापरणीता वंकाणिकेया कालग्गहीता णिचये णिविठ्ठा पुढो पुढो जाई पकप्पेंति ।
75 उवेहेणं वहिता य लोकं । से सवलोकंसि जे केइ विण्ण- .
अणुवियि पास णिक्खित्तदंडा जे केई सत्ता पलियं चयंति गरा मुतच्चा घम्मविटु त्ति अंजू आरंभजं दुक्खमिणं ति गच्चा ।
48 ]
[ प्राचारांग
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(उससे) (उत्पन्न) (विभिन्न प्रकार के) दुःख को समझने वाला
(हो जाता है)। 71 क्या द्रष्टा का (कोई) नाम है (या) नहीं है ? नहीं है, इस
प्रकार मैं कहता हूं। 72 कोई भी प्राणी, कोई भी जन्तु, कोई भी जीव, कोई भी
प्राणवान् मारा नहीं जाना चाहिए, शासित नहीं किया जाना चाहिए, गुलाम नहीं बनाया जाना चाहिए, सताया नहीं जाना चाहिए, (और) अशान्त नहीं किया जाना चाहिए। यह (अहिंसा) धर्म शुद्ध (है), नित्य (है), और शाश्वत (है), (यह धर्म) जीव-समूह को जानकर कुशल (व्यक्तियों)
द्वारा कथित (है)। 73 (मूल्यों का साधक) लोक द्वारा (प्रशंसित होने के लिए)
इच्छा न करें। (व्यक्तियों के लिए) मृत्यु के मुख में न आना नहीं है (अर्थात् मृत्यु के मुख में आना अवश्यम्भावी है), (फिर भी) (वे) इच्छाओं द्वारा (ही) (कार्यो में) उपस्थित (होते हैं) वे (ऐसे हैं) (जिनके) (मनरूपी) घर कुटिल (होते हैं) (यद्यपि) वे मृत्यु द्वारा पकड़े हुए (हैं), फिर भी (वे) संग्रह में आसक्त (होते हैं) । (अतः) (वे) अलग-अलग
(प्रकार के) जन्म को धारण करते हैं। 75 इस लोक में (जो) (व्यक्ति) (अहिंसा की परिधि से) बाहर
(है), (उसके) (अज्ञान को) (तू) ठीक समझ । जो कोई (अहिंसा की परिधि में है), वह समस्त (मनुष्य) लोक में बुद्धिमान है । (तू) बड़ी सावधानी से समझ (कि) जो कोई (व्यक्ति ) कर्म- (समूह) को दूर हटाते हैं, (वे) (ही) (ऐसे)
प्राणी (मनुष्य) हैं (जिनके) (द्वारा) (विभिन्न प्रकार की) चयनिका ]
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एवमाहु सम्मत्तदसिणो । ते सब्वे पावादिया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरति इति कम्मं परिष्णाय सव्वसो ।
76 इह प्राणाखी पंडिते प्रणिहे एगमप्पारणं सपेहाए घुरणे सरीरं, कसेहि अप्पारण, जरेहि अप्पारणं । जहा जुन्नाई कट्ठाई हव्यवाहो पमत्थति एवं प्रत्तसमाहिते श्रणिहे ।
77 विगिच कोहं श्रविकंपमाणे इमं निरुद्धाउयं सपेहाए । दुक्खं च जाण अदुवाऽऽगमेस्सं । पुढो फासाइं च फासे । लोयं च पास विष्कंदमाणं ।
जे रिपवडा पावेहि कम्मे हि श्रणिदारणा ते वियाहिता । तम्हाऽतिविज्जो णो पडिसंजलेज्जासि त्ति बेमि ।
78 तेहि पलि छिण्ोह श्राताणसोतगढिते बाले श्रव्वोच्छिण
50 ]
[ श्राचारांग
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हिंसा छोड़ दी गई है । (जिनकी) चित्तवृत्तियाँ समाप्त हुई (है), (ऐसे) (अनासक्त) मनुष्य अध्यात्म के जानकार (होते हैं) और (वे) सरल (अकुटिल) (होते हैं) । दुःख हिंसा से उत्पन्न होता है), इस प्रकार इस (वात) को जानकर (मनुष्य अनासक्ति का अभ्यास करे)। ऐसा समत्वदर्शियों ने कहा । इस प्रकार कर्म- (समूह) को सब प्रकार से जानकर वे सभी कुशल व्याख्याता दुःख के
(कारणभूत) ज्ञान का कथन करते हैं। 76 है (समतादर्शी की) आज्ञा (पालन) के इच्छुक, बुद्धिमान्
(व्यक्ति) ! (त) यहाँ अनासक्त (हो जा), अनुपम श्रात्मा को (ही) देखकर (कर्म)-शरीर को दूर हटा, अपने को नियन्त्रित कर (और) आत्मा में घुल जा।। जैसे अग्नि जीर्ण (सूखी) लकड़ियों को नष्ट कर देती है, इसी प्रकार प्रात्मा में लीन, अनासक्त (व्यक्ति) (राग-द्वेष
को नष्ट कर देता है)। 77 आयु सीमित (है); इस (वात) को समझकर (तू) निश्चल
रहता हुया क्रोध को छोड़ । और (आसक्ति से) आगामी अथवा (वर्तमान) दुःख को (तू) जान । तथा (आसक्त) (मनुष्य) विभिन्न दुःखों को प्राप्त करता है । और (दुःखों से) तड़फते हुए लोक को (तू) देख। जो पाप कर्मों से मुक्त (है),वे निदानरहित (स्वार्थपूर्ण प्रयोजनरहित) कहे गये (हैं)। इसलिए महान् ज्ञानी (अनासक्त होते हैं)। (तू) (उनका अनुसरण कर) (और) (इन्द्रियों को) उत्त
जित मत कर, इस प्रकार मैं कहता हूं। 78 (जो) परिसीमित (संयमित) नेत्रों (इन्द्रियों) के होने पर
(भी) इन्द्रियों के प्रवाह में आसक्त (हो जाता है), (वह) चयनिका ]
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वंधणे श्ररणभिक्कंत संजोए । तमंसि श्रविजार
प्रारणाए लंभो णत्थि त्ति वेमि ।
79 जस्स रत्थि पुरे पच्छा मज्भे तस्स कुत्रो सिया ? से ह पन्नाणमंते बुद्ध आरंभोवरए ।
सम्ममेतं ति पासहा !
जेरण बंधं वहं घोरं परितावं च दारुणं ।
पलिछिदिय बाहिरगं च सोतं णिक्कम्मटंसी इह मच्चिएहि । कम्मुणा सफलं दट्ठ ततो णिज्जाति वेदवी ।
80 जे खलु भो वीरा समिता सहिता सदा जता संथडदंसिरो
52 1
[ आचारांग
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अज्ञानी (होता है)। (इसके फलस्वरूप) (उसके) कर्म-वन्धन विना टूटे हुए (रहते हैं) (और) (उसके) (विभाव) संयोग विना नष्ट हुए (रहते हैं)। (इन्द्रिय विपयों में रमने की आदत के वशीभूत होकर) (धीरे-धीरे) (वह) अन्धकार (इन्द्रिय आसक्ति) के प्रति अनजान (होता जाता है)। (ऐसे व्यक्ति के लिए) (समतादर्शी के) उपदेश का (कोई) लाभ नहीं (होता है)। इस प्रकार मैं कहता हूं। जिसके पूर्व में (स्थित) (प्रासक्तियाँ) (तथा) (उनके कारण) बाद में (होने वाली इच्छाएँ) विद्यमान नहीं हैं (समाप्त हो चुकी हैं), उसके मध्य में (आसक्तियाँ) कहाँ से होंगी? वह (ऐसा व्यक्ति) ही प्रज्ञावान, बुद्ध और हिंसा से विरत (होता
79
इस प्रकार तुम (सव) समझो (कि) यह सत्य (है)। जिस (आसक्ति) के कारण (व्यक्ति) कर्म-बन्धन को (ग्रहण करता है), हत्या और निर्दयता में (रत रहता है) और घोर दुःख (पाता है), (उस) (आसक्ति के कारण) वाहर की ओर (जाने वाली) ज्ञानेन्द्रिय समूह को ही (विषयों से) हटाकर (व्यक्ति) (चले)। और (वास्तव में) यहाँ मनुष्यों में से (अपने में ही) निष्कर्म (कर्मरहित अवस्था) को अनुभव करने वाला (ज्ञानी होता है)।। (सदैव) कर्म के साथ (रहने वाले) (सुख-दुःखात्मक) फल को देखकर समझदार (व्यक्ति) (शिक्षा ग्रहण करता है) (और)
इसलिए (वह) (अपने को) (ग्रासक्ति से) दूर ले जाता है। 80 अरे ! जो निश्चय ही वीर (2), रागादिरहित (थे), हित
कारी (थे), जितेन्द्रिय (थे), गहरी अनुभूति वाले (थे), शरीर चयनिका ]
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आतीवरता अहा तहा लोग उवेहमाणा पाईणं पडीणं दाहिणं उदीरणं इति सच्चंसि परिविचिदिसु ।
81 गुरू से कामा । ततो से मारस्स अंतो। जतो से मारस्स अंतो
ततो से दूरे।
82 रोव से अंतो व से दूरे ।
से पासति फुसितमिव कुसग्गे पणुण्णं शिवतितं वातेरितं । एवं वालस्स जीवितं मंदस्स अविजारगतो।
83 संसयं परिजाणतो संसारे परिणाते भवति, संसयं अपरि
जाणतो संसारे अपरिण्णाते भवति ।
84 उहिते पो पमादए।
85 से पुव्वं पेतं. पच्छा पेतं भेउरघम्म विद्धसरणधम्म अधुवं
अरिणतियं असासतं चयोवचइयं विप्परिणामघम्म। पासह एवं रूवसंधि।
86 प्रावंती केमावंती लोगंसि परिग्गहावंती, से अप्पं वा बहुं वा 54 ]
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से विरत (थे), उचित प्रकार से लोक को जानते हुए (स्थित थे), अतः वे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण (दिशा) में सत्य में
स्थित हुए। 81 उसकी (मूच्छित की) इच्छाएं तीन (होती हैं)। इसलिए वह
अनिष्ट/ अहित के समीप (होता है)। चूकि वह अनिष्ट अहित के समीप (होता है), इसलिए वह (समता/शांति से)
दूर (होता है)। 82 वह (अनासक्त मनुष्य) (अहित के) समीप नहीं (होता है),
(इसलिए) वह (शान्ति/समता से) दूर नहीं (रहता है)। वह (जीवन को) कुश के नोक पर वायु द्वारा हिलते हुए, नीचे गिरते हुए (तथा) मिटाए हुए (जल) विन्दु की तरह देखता है । अज्ञानी और मूर्ख के द्वारा जीवन इस प्रकार (नहीं देखा जाता है); (उसके द्वारा) (ऐसा) नहीं जानने से (वह)
(सदैव) (मूच्छित बना रहता है)। 83 (संसार के विषय में) संशय को समझने से संसार जाना
हुया (होता है), (संसार के विषय में) संशय को नहीं सम
झने से संसार जाना हुआ नहीं होता। 84 (जो) प्रमाद (विषमता) नहीं करता है, (वह) (समता में)
प्रगति किया हुआ (होता है)। 85 (तुम) इस देह-संगम को देखो। (यह) (किसी के) पहले
छूटा (या) (किसी के) बाद में छूटा (किन्तु यह छूटता अवश्य है)। (इसका) (तो) नश्वर स्वभाव (है), (इसका) (तो) स्वभाव विनाश (मय) (है), यह अध्रव (है), अनित्य (है), प्रशाश्वत (है), वढने (वाला) और क्षय वाला है,
(तथा) परिणमन (इसका) स्वभाव (है)। 86 इस लोक में जितने (भी) (मनुष्य) परिग्रह-युक्त (हैं), (वे) चयनिका ]
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अणुवा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा, एतेसु चेव परिग्गहावती। एतदेवेगेसि महन्भयं भवति । लोगवित्तं च णं उवेहाए। एते संगे अविजाणतो।
87 से सुतं च मे अज्झत्थं च मे-बंधपमोक्खो तुज्झज्झत्येव ।
88 समियाए धम्मे पारिएहि पवेदिते ।
इमेण चेव जुज्झाहि, कि ते जुज्झरण वज्झतो? जुद्धारिहं खलु दुल्लभं।
90
जं सम्मं ति पासहा तं मोरणं ति पासहा, जं मोरा ति पासहा तं सम्मं ति पासहा।
91 उण्णतमाणे य णरे महता मोहेण मुन्झति ।
92 वितिगिछसमावन्नेणं अप्पारणेणं णो लभति समाधि ।
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( आसक्ति के कारण ) (परिग्रही कहे जाते हैं) । वह (मनुष्यसमूह ) ( जो ) थोड़ी या बहुत, छोटी या वड़ी, सजीव या निर्जीव (वस्तु) को (ममता से ) ( रखता है); इनमें ही ममत्वयुक्त ( कहा जाता है) । इसलिए हो (उन) कई (मनुष्यों) में महाभय उत्पन्न होता है । ( इस वात को ) (व्यक्ति) लोकआचरण को देखकर ही ( समझे ) । इन श्रासक्तियों को नहीं समझने से (व्यक्ति) ( भयभीत रहता है) ।
87 मेरे द्वारा (यह ) सुना गया (है) और मेरे द्वारा श्रात्म-संबंधी ( यह ज्ञान प्राप्त किया गया है) कि बंध (शान्ति) और मोक्ष (शान्ति) तेरे ( अपने ) मन में हो (होता है ) / (होती है) ।
88 तीर्थङ्करों द्वारा समता में धर्म कहा गया ( है ) । 89 इस ( मानसिक विषमता ) के साथ ही युद्ध कर, तुम्हारे लिए बाहर (व्यक्तियों) से युद्ध करने से क्या लाभ ? (विषमता के साथ) युद्ध करने के योग्य ( होना) निश्चय ही दुर्लभ ( है ) । 90 इस प्रकार (तुम) (सब) जानो ( कि) जो (मानसिक) समता
( है ) अर्थात् द्वन्द्वातीत अवस्था है, वह मौन में ( ही ) ( प्रकट होती है) । श्रत: (तुम) (सव ) ( इस वात को ) समझो | इस प्रकार (तुम) (सव ) जानो ( कि) जो मोन में ( स्थित है), वह (मानसिक) समता में ( स्थित है ) अर्थात् द्वन्द्वातीत अवस्था में स्थित है । अतः (तुम) (सब) ( इस वात को ) समझो । 91 उत्थान का अहंकार होने पर ही मनुष्य तीव्र मोह ( श्रासक्ति) के कारण मूढ़ वन जाता है ।
92 (अपने ) मन में (अध्यात्म के प्रति ) ग्रहण किए हुए संदेह के कारण (मनुष्य) समाधि ( अवस्था ) को प्राप्त नहीं कर पाता है ।
चयनिका ]
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93 से उद्वितस्स ठितस्स गति समणुपासह ।
एत्थ वि बालभावे अप्पाणं णो उवदंसेज्जा ।
94 तुमं सि णाम तं चेव जं हंतव्वं ति मण्णसि,
तुमं सि णाम तं चेव जं अज्जावेतन्वं ति मण्णसि, तुमं सि णाम तं चेव जं परितावेतव्वं ति मण्णसि, तुमं सि णाम तं चेव जं परिघेतव्वं ति मण्णसि, एवं तं चेव जं उद्दवेतन्वं ति मण्णसि । अंजू चेयं पडिबुद्धजीवी । तम्हा ण हंता, रण वि घातए। अणुसंवेयणमप्पाणेणं, जं हंतव्वं णाभिपत्थए ।
95 जे आता से विण्णाता, जे विण्णाता से प्राता। जेण विजाणति
से पाता । तं पडुच्च पडिसंखाए । एस आतावादी समियाए परियाए वियाहिते त्ति बेमि ।
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93 (अध्यात्म में) प्रगति किए हुए (और) दृढ़ता-पूर्वक (उसमें)
लगे हुए (व्यक्ति) की अवस्था को (तुम) देखो। (और) (इसलिए) यहां अपने को मोहित (मूच्छित) अवस्था में
बिल्कुल मत दिखलाओ। 94 देख ! निस्सन्देह तू वह ही है जिसको (तू) मारे जाने योग्य
मानता है। देख ! निस्सन्देह तू वह ही है जिसको (तू) शासित किए जाने योग्य मानता है। देख ! निस्सन्देह तू वह ही है जिसको (तू) सताए जाने योग्य मानता है। देख ! निस्सन्देह तू वह ही है जिसको (तू) गुलाम बनाए जाने योग्य मानता है। इसी प्रकार (देख ! ) (निस्सन्देह) (तू) वह ही (है) जिसको (तू) अशान्त किए जाने योग्य मानता है। जागरूक (होकर) ही जीने वाला (व्यक्ति) सरल (होता है)। इसलिए (वह) (स्वयं) न हिंसा करने वाला (होता है) और न ही (वह) दूसरों से हिंसा करवाता है। अपने द्वारा (किए हुए कर्मों को) (अपने को) भोगना (पड़ता है), (इसलिए) जिसको (तू) (किसी भी कारण से) मारे जाने
योग्य (मानता है), (उसकी) (तू) इच्छा मत कर । 95 जो आत्मा (है), वह जानने वाला (है), जो जानने वाला
(है) वह आत्मा (है) । जिससे (मनुष्य) जानता है, वह
आत्मा (है) । उसको आधार बनाकर (ही) (प्रत्येक व्यक्ति) (आत्मा शब्द का) व्यवहार करता है। यह आत्मवादी समता का रूपान्तरण कहा गया (है)। इस प्रकार (मैं)
कहता हूँ। चयनिका ]
[ 59
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96 अगाणाए एगे सोवढारणा, प्रारणाए एगे णिरुवट्ठाणा । एतं
ते मा होतु।
97 सव्वे सरा नियट्टति,
तक्का जत्थ रण विज्जति, मती तत्थ रण गाहिया। ओए अप्पतिद्वाणस्स खेत्तणे । से ण दोहे, ण हस्से, ण वट्ट, रण तंसे, रग चउरंसे, रण परिमंडले, ण किण्हे, रग रगीले, रण लोहिते, ण हालिद्दे, ण सुक्किले, रण सुरभिगंधे, रण दुरभिगंधे, रण तित्ते, रण कडुए, रण कसाए, ण अंविले, ण महुरे, रण कक्खडे, ग मजए, रण गरुए, र लहुए, रण सीए, रण उण्हे, ण गिद्ध, रण लुक्खे, रण काऊ, रण रहे, रण संगे, रग इत्थी, रण पुरिसे, रग अपहा। परिणे, सणे। उवमा रण विज्जति। अरूवी सत्ता।
60 ]
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• 96 (पाश्चर्य ! ) कुछ लोग (समतादर्शी को) अनाज्ञा में (भी)
तत्परता सहित (होते हैं), कुछ लोग (समतादर्शी की) आज्ञा में (भी) आलसी (होते हैं)। यह तुम्हारे लिए न होवे । (आत्मानुभव की सर्वोच्च अवस्था का वर्णन करने में) सब शब्द लौट आते हैं (तथा) जिसके (प्रात्मानुभव के) विपय में (कोई) तर्क (कार्यकारी) नहीं होता है। बुद्धि उसके विषय में (कुछ भी) पकड़ने वाली नहीं होती है)। (वह) (अवस्था) आभा-(मयी) (होती है), (वह) किसी ठिकाने पर नहीं (होती है), (वह) (केवल) ज्ञाता-द्रष्टा (अवस्था) (होती है)। (वह) (अवस्था) न बड़ी (है), न छोटी (है), न गोल (है), न त्रिकोण (है) न चतुष्कोण (है) और न परिमण्डल (है)। (वह) न काली (है), न नीली (है), न लाल (है), न पीली (है), (और) न सफेद (है)। (वह) न सुगन्धमयी (है) (और) न दुर्गन्धमयी (है)। (वह) न तीखी (है), न कडवी (है), न कषैली (है), न खट्टी (है), (और) न मीठी (है)। (वह) न कठोर (है), न कोमल (है), न भारी (है), न हलकी (है), न ठण्डी (है), न गर्म (है), न चिकनी (है) (और) न रूखी (है)। (वह) न लेश्यावान् (है), (वह) न उत्पन्न होने वाली (है), (उसके) (वहां) (कोई) आसक्ति नहीं (है)। (वह) न स्त्री (है), न पुरुष और न इसके विपरीत (न नपुंसक)। (वह) (शुद्ध आत्मा) ज्ञाता (है), अमूच्छित (होश में आया
हुआ) (है)। चयनिका ]
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अपदस्त पदं रत्थि ।
से सद्दे, रग रूवे, ण गंधे, रंग रसे, रण फासे, इच्चेतावंति त्ति बेमि ।
98 संति पारणा अंधा तमंसि विवाहिता ।
पारणा पारणे किलेति ।
बहुदुक्खा हु जंतवो ।
सत्ता काहि मारणवा । अबलेरण वहं गच्छति सरीरेण पभंगुरेण ।
99 श्ररणाए मामगं धम्मं ।
100 जहा से दीवे असंदीणे एवं से धम्मे प्रारियपदेसिए ।
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[ आचारांग
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(उसके लिए) (कोई) तुलना नहीं है । (वह) एक अमूर्तिक सत्ता (है)। (उस) पदातीत के लिए (कोई) नाम नहीं
(वह) (शुद्ध आत्मा) न शब्द (है), न रूप (है), न गंध (है), न रस (है), न स्पर्श (है)। वस इतने ही (वर्णनों) को (तुम) (जानलो) (काफी है)।
इस प्रकार (मैं) कहता हूँ। 98 (जो) प्राणी (मूर्छारूपी) अंधकार में रहते हैं (वे) अन्ध
(ज्ञान रहित) कहे गये (हैं) । प्राणी प्राणियों को दुःख देते हैं । निस्सन्देह प्राणी बहुत दुःखी (हैं)। मनुष्य इच्छाओं में आसक्त (होते हैं) । (इसलिए) निर्बल और अत्यन्त नाशवान् शरीर के होने पर (भी) (मनुष्य) (इच्छाओं की पूर्ति के
लिए) (प्राणियों की) हिंसा करते हैं। 99 (आध्यात्मिक रहस्यों में प्रगति के लिए) (समतादर्शी की) आज्ञा में (चलना) मेरा कर्त्तव्य (है)।
या मेरे धर्म को (जानकर) (ही) (तुम) (मेरी) आज्ञा को (मानो)।
मेरा (समतादर्शी का) धर्म (समतादर्शी की) (मरी) आज्ञा में
(ही निहित है)। 100 जैसे असंदीन (पानी में न डूबा हुआ) द्वीप (कष्ट में फंसे हुए
समुद्र-यात्रियों के लिए) (आश्रय) (होता है), इसी प्रकार समतादर्शी के द्वारा प्रतिपादित धर्म (दुःख में फंसे हुए प्राणियों के लिए आश्रय होता है)।
चयनिका ]
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101 दयं लोगस्स जारिणत्ता पाईरणं पडीरणं दाहिरणं उदीणं प्राइक्खे.
विभए किट्ट वेदवी।
102 गामे अदुवा रणे, व गामे वरणे, धम्ममायारणह पवेदितं
माहणेरण मतिमया।
103 अहासुतं वदिस्सामि जहा से समणे भगवं उट्ठाय ।
संखाए तंसि हेमंते अहुरणा पन्वइए रीइत्था ।
104 अदु पोरिसि तिरियभित्ति चक्खुमासज्ज अंतसो झाति । ___अह चक्खुभीतसहिया ते हंता हंता वहवे कंदिसु ॥
105 जे केयिमे अगारत्था मीसीभावं पहाय से झाति ।
पुट्ठो वि रणाभिभासिसु गच्छति रणाइवत्तती अंजू ॥
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[ आचारांग
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101 जीव- समूह की दया को समझकर ज्ञानी पूर्व, पश्चिम, उत्तर, और दक्षिण दिशा में ( सब स्थानों पर ) ( उसका ) उपदेश दे, ( उसको) वितरित करे (तथा) (उसकी प्रशंसा करे ।
102 (धर्म) गांव में (होता है) अथवा जंगल में ? ( वह) न ही गांव में होता है), न ही जंगल में । (धर्म तो अहिंसा और समता के पालन में है ) आत्मजागृति है और प्रज्ञावान् अहिंसक ( महावीर ) के द्वारा ( इस ) प्रतिपादित धर्म को (तुम) समभो ।
103 जैसा कि सुना है ( मैं ) कहूँगा । ( श्रात्म-स्वरूप) को जानकर श्रमरण भगवान् उस हेमन्त (ऋतु) में (सांसारिक परतन्त्रता को) त्यागकर दीक्षित हुए (और) वे इस समय ( ही ) विहार
कर गए ।
104 अव ( महावीर ) तिरछी भीत पर प्रहर (तीन घण्टे की अवधि ) तक (पलक न झपकाई हुई) प्रांखों को लगाकर आन्तरिक रूप से ध्यान करते थे । तव ( उन असाधारण ) प्रांखों के डर से युक्त वे (वे- समझ लोग) यहाँ आश्रो ! देखो ! ( कहकर ) बहुत लोगों को पुकारते थे ।
105 (यदि) कभी ये ( महावीर ) घर में रहने वाले से (युक्त) (स्थान) ( पर ठहरते थे), (तो) वे ( वहां उनसे) मेल-जोल के विचार को छोड़कर ध्यान करते थे । (यदि ) ( उनसे कभी कोई बात पूछी गई (होती थी) (तो) भी (वे) वोलते नहीं थे, (कोई बाधा उपस्थित होने पर ) ( वे) ( वहां से ) चले जाते थे, (वे) (सदैव ) संयम में तत्पर होते थे) (और) (वे ) ( कभी ) ( ध्यान की) उपेक्षा नहीं करते थे ।
चयनिका ]
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106 फरिसाइं दुत्तितिक्खाइं अतिअच्च मुणी परक्कममाणे।
आघात-रणट्ट-गीताई दंडजुदाई मुट्ठिजुदाई।
107 गढिए मिहुकहासु समयम्मि सातसुते विसोगे अदक्खु ।
एताई से उरालाइं गच्छति रणायपुत्ते असररणाए ।
108 पुढवि च पाउकायं च तेउकायं च वायुकायं च ।
पणगाई वीयहरियाई तसकायं च सव्वसो गच्चा ।।
109 एताई संति पडिलेहे चित्तमंताई से अभिण्णाय ।
परिवज्जियाण विहरित्या इति संखाए से महावीरे ॥
110 मातणे असणपारणस्स णाणगिद्ध रसेसु अपडिण्णे ।
अच्छि पिणो पज्जिया णो वि य कंडयए मुणी गातं ॥
1ll अप्पं तिरियं पेहाए अप्पं पिट्टो उप्पेहाए ।
अप्पं वुइए पडिभाणी पथपेही चरे जतमारणे ॥
66 ] .
[ आचारांग
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106 दुस्सह कटु वचनों की अवहेलना करके मुनि (महावीर)
(आत्म-ध्यान में) . (ही) पुरुषार्थ करते हुए (रहते थे)। (वे) कथा-नाच-गान में (तथा) लाठी-युद्ध (और) मूठी-युद्ध
में (समय नहीं विताते थे)। 107 परस्पर (काम) कथाओं में तथा (कामातुर) इशारों में आसक्त
(व्यक्तियों) को ज्ञात-पुत्र (महावीर) (हर्ष)-शोक रहित देखते थे । वे ज्ञात-पुत्र इन मनोहर (बातों) का स्मरण नहीं
करते थे। 108 पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, शैवाल, बीज
और हरी. वनस्पति तथा प्रसकाय को पूर्णतया जानकर
(महावीर विहार करते थे)। 109 ये चेतनवान् है, उन्होंने देखा। इस प्रकार वे महावीर
जानकर (और) समझकर (प्राणियों की हिंसा का) परित्याग
करके विहार करते थे। 110 मुनि (महावीर) खाने-पीने की मात्रा को समझने वाले (थे),
(भोजन के) रसों में लालायित नहीं होते (थे)। (वे) (भोजन-संबंधी) निश्चय नहीं (करते थे)। (अाँख में कुछ गिरने पर) (व) आँख को भी नहीं पोंछकर (रहते थे) अर्थात् नहीं पोंछते थे और (वे) शरीर को भी खुजलाते
नहीं (थे)। 111 मार्ग को देखने वाले (महावीर) तिरछे (दाएँ-वाएँ) देखकर
नहीं (चलते थे), पीछे की ओर देखकर नहीं (चलते थे), (किसी के द्वारा) संबोधित किए गए होने पर (वे) उत्तर देने वाले नहीं (होते थे)। (इस तरह से) (वे) सावधानी बरतते हुए गमन करते थे।
चयनिका ]
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112 श्रावसरण सभा पवासु परिणयसालासु एगदा वासो । अदुवा पलियट्ठारणेसु पलालपुजेसु एगदा वासो ॥
113 आगंतारे श्रारामागारे नगरे वि एगदा वासो । सुसाणे सुण्णगारे वा रुक्खमूले वि एगदा वासो ॥
114 एतेहि मुरणी सयरोह समरणे श्रासि पतेलस वासे । राइदिवं पि जयमारणे अप्पमत्ते समाहिते भाती ॥
115 गिद्दं पि खो पगामाए सेवइया भगवं उट्ठाए । 'जग्गावतीय अप्पारणं ईसि साईय प्रपडिये ॥
116 संबुज्झमाणे पुणरवि श्रसिसु भगवं उट्ठाए । . क्खिम्म एगया राम्रो बह चक्कमिया मुहुत्तागं ॥
1
117. सयणेह तस्सुवसग्गा भीमा श्रासी अगरूवा य ।
68 ]
[ आचारांग
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112 ( महावीर का ) कभी शून्य घरों में, सभा
में, दुकानों में रहना ( होता था )
।
( लुहार, सुनार, कुम्हार आदि के ), घास समूह में (छान के नीचे ) ठहरना 113 ( महावीर का ) कभी मुसाफिरखाने में, (कभी) बगीचे में ( बने हुए) स्थान में (तथा) (कभी) नगर में भी रहना होता था । तथा ( उनका ) कभी मसारण में, ( कभी ) सूने घर में (और) (कभी) पेड़ के नीचे के भाग में भी रहना ( होता था) ।
भवनों में, प्याउन
प्रथवा ( उनका ) कभी कर्म - स्थानों में (और) (होता था ) |
114 इन (उपर्युक्त ) स्थानों में मुनि ( महावीर ) ( चल रहे ) तेरहवें वर्ष में (साढ़े बारह वर्ष - पन्द्रह दिनों में ) समता युक्त मन वाले रहे । (वे) रात-दिन ही (संयम में) सावधानी बरतते हुए अप्रमाद युक्त (और) एकाग्र ( अवस्था ) में ध्यान करते थे ।
115 भगवान् ( महावीर ) श्रानन्द के लिए कभी भी नींद का उपयोग नहीं करते थे । और (नींद आती तो ) ठीक उसी समय अपने को खड़ा करके जगा लेते थे । (वे ) ( वास्तव में ) ( नींद की ) इच्छारहित (होकर ) बिल्कुल - थोड़ा सा सोने वाले (थे) ।
116 कभी-कभी रात में ( जव नींद सताती तो ) भगवान् ( महावीर) (श्रावास से) बाहर निकलकर कुछ समय तक बाहर इधर-उधर घूमकर फिर सक्रिय होकर पूर्णत: जागते हुए ( ध्यान में बैठ जाते थे ।
117 उनके लिए ( महावीर के लिए) (उन) स्थानों में नाना प्रकार के भयानक कष्ट भी वर्तमान थे । ( वहाँ ) जो भी
चयनिका ]
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संसप्पगाय जे पारणा अदुवा पक्खिणो उवचरंति ॥
118 इहलोइयाई परलोइयाइं भीमाई श्रणेगरुवाई | श्रवि सुभिदुभिगंधाई सङ्घाई प्रणेगरुवाई |
119 श्रधियासए सया समिते फासाई विस्वत्वाइं । प्रति रति श्रभिभूय रोयति माहणे श्रवहुवादी ॥
120 लाठेहि तस्सुवसग्गा बहवे जारगवया लूसिसु । ग्रह लूहदेसिए भत्ते कुक्कुरा तत्थ हिंसिसु रिगर्वातसु ।
121 अप्पे जणे रिणवारेति लसणए सुरगए डसमाणे । छुच्छुक्कारेति श्रहंतु समणं कुक्कुरा दसंतुति ॥ [छुच्छुक ति श्रहंसु समणं कुक्कुरा दसंतु त्ति ] ' ॥
122 हतपुव्वो तत्थ डंडे अदुवा मुट्टिणा टु फलेर । श्रदु लेलुरगा कवालेणं हंता हंता बहवे कंदसु ॥
1. प्रायारंग सुत्तं (श्री महावीर जैन विद्यालय, वम्बई) पृष्ठ 413 col. 2 पृ. 97
70 ]
[ आचारांग
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चलने फिरने वाले जीव (थे) और (वहाँ ) (जो) (भी) पंखयुक्त (जीव थे ) ( वे ) ( वहाँ ) ( उन पर ) उपद्रव करते थे ।
118 ( महावीर ने इस लोक संबंधी और परलोक संबंधी (अलीकिक ) नाना प्रकार के भयानक ( कष्टों ) को (समतापूर्वक सहन किया) । (वे ) अनेक प्रकार के रुचिकर और अरुचिकर गंधों में तथा शब्दों में ( राग-द्व ेष रहित रहे) ।
119 अहसक (और) बहुत न बोलने वाले ( महावीर ) ने अनेक प्रकार के कष्टों को शान्ति से भेला (और) ( उनमें ) ( वे) सदा समतायुक्त (रहे ) | ( विभिन्न परिस्थितियों में ) हर्ष (और) शोक पर विजय प्राप्त करके (वे) गमन करते रहे । 120 लाढ़ देश में रहने वाले लोगों ने उनके (महावीर के लिए बहुत कष्ट ( पैदा किए ) (और) (उनको ) हैरान किया । ( लाढ़ देश के ) निवासी रूसे ( थे), उसी तरह ( उनके द्वारा ) पकाया हुआ भोजन ( भी रूखा होता था) । कुत्ते (कूकरे ) वहाँ पर ( महावीर को ) संताप देते थे (और) उन पर टूट पड़ते थे ।
121 ( वहाँ पर ) कुछ ही लोग (ऐसे थे ) (जो) काटते हुए कुत्तों को (और) हैरान करने वाले ( मनुष्यों) को दूर हटाते थे । ( किन्तु वहुत लोग छुछु की आवाज करते थे (और) कुत्तों को बुला लेते थे, (फिर उनको ) महावीर के (पीछे) (लगा देते थे), जिससे (वे ) थक जाएँ और वहाँ से चले जाएँ) । 122 (कुछ लोगों द्वारा) वहाँ ( महावीर पर ) लाठी से अथवा मुक्के से अथवा चाकू, तलवार, भाला श्रादि से अथवा ईंट, पत्थर आदि के टुकड़ े से, (अथवा ) ठीकरे से पहले प्रहार किया गया (होता था ) ( बाद में ) ( वे ही कुछ लोग ) श्राश्रो ! देखो ! ( कहकर ) बहुतों को पुकारते थे ।
चयनिका
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123 सूरो संगामसीसे वा संवडे तत्थ से महावीरे।
पडिसेवमारणो फरूसाइं अचले भगवं रोयित्था ।
124 अवि साहिए दुवे मासे छप्पि मासे अदुवा अपिवित्था ।
राप्रोवरातं अपडिगरणे अण्णगिलायमेगता भुजे ॥
125 छट्ठरण एगया भुजे अदुवा अट्ठमेण दसमेण । .
दुवालसमेण एगदा भुजे पेहमारणे समाहिं अपडिण्णे ॥
___126 णच्चाण से महावीरे णो वि य पावगं सयमकासी।
अण्णेहि वि ण कारित्था कीरतं पि णाणुजाणित्था ।
127 गामं पविस्स णगरं वा घासमेसे कई परवाए।
सुविसुद्धमेसिया भगवं आयतजोगताए सेविस्था ।
128 अकसायी विगतगेही य सद्द-रूवेसऽमुच्छिते झाती।
72 ]
[ आचारांग
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123 जैसे ( कवच से ढका हुआ योद्धा संग्राम के मोर्चे पर ( रहता है), (वैसे ही) वे महावीर वहाँ (लाढ़ देश में) कठोर ( यातनात्रों) को सहते हुए (ग्रात्म-नियन्त्रित रहे) (और) (वे) भगवान् ( महावीर ) अस्थिरता - रहित (बिना डिगे) विहार करते थे
I
124 और दो मास से अधिक अथवा छः मास तक भी (वे ) (कुछ) नहीं पीते थे। रात में और दिन में (वे) सदैव राग-द्व ेषरहित (समतायुक्त ) ( रहे ) । कभी - कभी ( उन्होंने ) बासी ( तन्द्रालु) भोजन ( भी ) खाया |
125 कभी (वे) दो दिन के उपवास के बाद में, तीन दिन के उपवास के बाद में, अथवा चार दिन के उपवास के बाद में भोजन करते थे । कभी (वे) पाँच दिन के उपवास के बाद में भोजन करते थे । (वे) समाधि को देखते हुए निष्काम (थे) 1
126 वे महावीर ( श्रात्म-स्वरूप को ) जानकर स्वयं भी बिल्कुल पाप नहीं करते थे (तथा) दूसरों से भी पाप नहीं करवाते थे (श्रौर) किए जाते हुए (पाप का ) अनुमोदन भी नहीं करने थे ।
127 गाँव या नगर में प्रवेश करके भगवान् (महावीर ) ( वहाँ) दूसरों के लिए (गृहस्थ के लिए) बने हुए आहार की (ही) भिक्षा ग्रहण करते थे । ( इस तरह) सुविशुद्ध प्रहार की भिक्षा ग्रहण करके (वे) संयत (समतायुक्त ) योगत्व से ( उसको) उपयोग में लाते थे ।
128 ( महावीर ) कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ ) - रहित (थे ), ( उनके द्वारा ) लोलुपता नष्ट करदी गई (थी), (वे)
चयनिका ]
1 73
Page #106
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छउमत्थे वि विप्परक्कममाणे रण पमायं सई पि कुन्वित्था ।
129 सयमेव अभिसमागम्म प्रायतजोगमायसोहीए।
अभिणिबुडे अमाइल्ले प्रावकहं भगवं समितासी॥
00
74 ]
[ आचारांग
Page #107
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शब्दों (तथा) रूपों में अनासक्त (थे) और ध्यान करते थे। (जव वे) असर्वन (थे), (तब) भी (उन्होंने) साहस के साथ
(संयम पालन) करते हुए एक बार भी प्रमाद नहीं किया। 129 आत्म-शुद्धि के द्वारा संयत प्रवृत्ति को स्वयं ही प्राप्त करके
भगवान् शान्त (और) सरल (बने)। (वे) जीवन-पर्यन्त समतायुक्त रहे।
On
चयनिका ]
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संकेत-सूची
प्राज्ञा
कर्म
(अ) =: अव्यय (इसका अर्थ भूक __= भूतकालिक कृदन्त
= लगाकर लिखा व = वर्तमानकाल गया है)
व = वर्तमान कृदन्त अक = अकर्मक क्रिया वि = विशेषण अनि = अनियमित विधि = विधि = आज्ञा
विधिकृ = विधि कृदन्त = कर्मवाच्य
= सर्वनाम
संक = सम्बन्ध भूत कृदन्त (क्रिवित्र) = क्रिया विशेषण सक = सकर्मक क्रिया
अव्यय (इसका अर्थ सवि ____ = सर्वनाम विशेषण = लगाकर लिखा स्त्री = स्त्रीलिंग गया है) हेक = हेत्वर्थ कृदन्त
( ) = इस प्रकार के
कोष्ठक में मूल = तुलनात्मक विशेषण
शब्द रक्खा गया = पुंल्लिग = प्रेरणार्थक क्रिया ()+ ( )+( )........] = भविष्य कृदन्त इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर +
= भविष्यत्काल चिह्न किन्हीं शब्दों में संघि का द्योतक भाव = भाववाच्य है। यहां अन्दर के कोष्ठकों में गाथा भू = भूतकाल के शब्द ही रख दिये गये हैं।
76 ]
[ प्राचारांग
Page #109
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________________
:
}
(HH)........]
इस प्रकार के कोटक के दर '' चिह्न समास का द्योतक है ।
● जहाँ कोष्टक के बाहर वस 2/2 माथि) 3/1
संख्या (जैसे 1/1, 2/1 हो लिये है, वहाँ अन्दर काव्य 'संभा' है ।
....
● जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्तमादि प्राकृत के नियमानुसार नहीं बने हैं, वहीं कोष्टक के बाहर 'नि' भी लिया गया है।
कोठक के 3/2
4/1
1 / 1 ग्रक या सक= उत्तम पुरुष / एकवचन
1/2 ग्रक या सक उत्तम पुरुष / बहुवचन
2 / 1 ग्रक या सक मध्यम पुरुष / एकवचन
2 /2 ग्रक या सफ = मध्यम पुरुष / बहुवचन
3 / 1 ग्रक या सफ= श्रन्य पुरुष /
एकवचन
चयनिका ]
1/1 == प्रथमा / एकवचन
1/2
2/1
3/2 अक या सफ= अन्य पुरुष /
बहुवचन
4/2
5/1
5/2
6/1
6/2
7/1
7/2
8/1
8/2
==
1
w
प्रथमा / बहुवचन
द्वितीया / एकवचन
द्वितीया / बहुवचन
तृतीया / एकवचन
तृतीया / बहुवचन
चतुर्थी / एफवचन
चतुर्थी / बहुवचन
पंचमी / एकवचन
पंचमी / बहुवचन
पाठी / एकवचन षष्ठी / बहुवचन
सप्तमी / एकचन
मी / बहुवचन
संयोगन / एकवचन
संबोधन / बहुवचन
[ 77
Page #110
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व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ
1. सुयं (सुय) भूक 11 अनि मे (अम्ह) 3/1 स पाउसं (पाउस) 8/1
वि अनि तेणं (त) 3/1 स भगवया (भगवया) 3/1 अनि एवमक्खायं [(एवं) + (अक्खायं)] एवं (अ) = इस प्रकार. अक्खायं (अक्खाय) भूकृ 1/1 अनि इहमेगेसि [(इह) + (एगेसिं)] इहं (अ) = यहाँ. एगेसि (एग) 6/2 वि यो (अ) = नहीं सण्णा (सण्णा) 1/1 भवति (भव) व 3/1 अक तं जहा (अ) = जैसे
पुरथिमातो (पुरत्थिम-→पुरत्थिमा) 5/1 वि वा (अ) = या दिसातो (दिसा) 5/1 प्रागतो' (आगत) भूकृ 1/1 अनि अहमंसि [(अहं) + (अंसि)] अहं (अम्ह) 1/1 स. अंसि (अस) व 1/1 अक
स्त्री दाहिणाओ (दाहिण-→दाहिणा 5/1 वि पच्चत्थिमातो स्त्री
स्त्री (पच्चत्थिम- →पच्चत्थिमा) 5/1 वि उत्तरातो (उत्तर-→उत्तरा)
स्त्री 5/1 वि उड्ढातो (उड्ढ - उड्ढा) 5/1 वि अधे (अ) = नीचे की
तर प्रत्यय स्त्री अन्नतरीतो (अन्न---→ अन्नतर-- अन्नतरी) 5/2 वि दिसातो (दिसा) 5/2 अरणदिसातो अणुदिसा) 5/2। 1. कभी कभी पष्ठी विभक्ति का प्रयोग सप्तमी विभक्ति के स्थान
पर होता है (हैम प्राकृत व्याकरणः 3-134) 2. 'गति' अर्थ में भूतकालिक कृदन्त कर्तृवाच्य में भी होता है । 3. निर्धारण अर्थ में 'तर' प्रत्यय होता है (अभिनव प्राकृत व्याकरण
पृष्ठ 429) 78 ]
[ आचारांग
Page #111
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.
एवमेगेसि [(एवं + एगेसि)] एवं (अ) = इसी प्रकार. एगेसि' (एग) 6/2 वि गो (भ) = नहीं पातं (णात) 1/1 वि भवति (भव) व 3/1 अक अत्यि (अ) है मे (अम्ह) 6/1 स पाया (आय) 1/1 उववाइए (उववाइअ) 1/1 वि एत्यि (अ)= नहीं है के (क) 1/1 सवि अहं (अम्ह) 1/1 स प्रासी (प्रस) भू 1/1 अक वा (प्र) = या • इसो (अ) = इस लोक से चुते (चुत) भूकृ 1/1 अनि पेच्चा (अ) = आगामी जन्म में भविस्सामि (भव) भवि 1/1 अक
शब्दार्थ
1. सुयं = सुना हुआ । मे= मेरे द्वारा । पाउसं हे प्रायुष्मन् ! तेणं
भगवयाउन भगवान् के द्वारा। एवं इस प्रकार । अक्सायं कहा गया। इह = यहाँ । एगेसि = कई के -कई में । पो= नहीं । सण्णा = होश । भवति= होता है । तं जहा=जैसे। वाया। पुरत्यिमातो दिसातो पूर्वी दिशा से । प्रागतो पाया । अहं = मैं | अंसिहं । दाहिणालो दिसाओ= दक्षिण दिशा से । पच्चत्यिमातो दिसातो-पश्चिमी दिशा से । उत्तरातो दिसातो उत्तर दिशा से । उड्ढातो दिसातो= ऊपर की दिशा से। प्रधे दिसातो नीचे की दिशा से । अन्नतरीतो दिसातो= अन्य ही दिशाओं से । अण दिसातो= ईशान कोण आदि दिशाओं से । एवं= इसी प्रकार । एगेसि = कई केकई के द्वारा । रणो= नहीं। रणातं = समझा हुआ । भवति होता है । अत्यि% है । मे= मेरी। पाया=पात्मा उववाइए= पुनर्जन्म लेने वाली। णस्थिनहीं है। के= कौन ? अहंमैं । प्रासी-था।
-
1. कभी कभी पष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया विभक्ति के स्थान
पर होता है (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-134)
चयनिका ]
[ 79
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के= क्या ? इमो= इस लोक से। चुते = अलग हुआ । वा= या
पेच्चा= आगामी जन्म में । भविस्सामि= होऊंगा। 2. से ज्ज' =से (त) 1/1 सवि पुण (अ) = इसके विपरीत जाणेज्जा
स्वाथिक'य' (जाण) व 3/1 सक सहसम्मुइयाए [(सह) वि-(सम्मुइ----
स्त्रा सम्मुइय---सम्मुइया) 3/1] परवागरणेणं [(पर) वि-(वागरण) 3/1] अण्णेसि (अण्ण) 6/2 वि वा (अ) अथवा अंतिए (अंतिम)
7/1 वि सोच्चा (सोच्चा) संकृ अनि 2. से ज्जं = वह । पुण= इसके विपरीत । जाणेज्जा = जान लेता है।
सहसम्मुइयाए = स्वकीय स्मृति के द्वारा। पर वागरणेणं = दूसरों के कथन के द्वारा । अपरणेसि= दूसरों के । वा=अथवा। अंतिएसमीप
में । सोच्चा=सुनकर । 3. से (त) 1/1 सवि पायावादी [(आया )-(वादी) 1/1 वि) लोगावादी
[(लोगा)-(वादि) 1/1 वि] फम्मावादी [(कम्मा )-(वादि) 1/1
वि किरियावादी [(किरिया)-(वादि)1/1 वि] 3. से= वह । पायावादी आत्मा को माननेवाला । लोगावादी लोक को
मानने वाला । फम्मावादी= कर्म-(वन्धन) को मानने वाला।
किरियावादी क्रियाओं को मानने वाला। 4. अपरिण्णायकम्मे [(अपरिण्णाय) वि-(कम्म) 1/1] खलु (म)=
सचमुच अयं (इम) 1/1 सवि पुरिसे (पुरिस) 1/1 जो (ज) 1/1 सवि इमानो (इमा) 5/2 सवि दिसाप्रो (दिसा) 5/2 वा (अ)= या अणुदिसानो (अणुदिसा) 5/2 अणुसंचरति (अणुसंचर व 3/1
1. पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ, 623 । 2. समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर ह्रस्व के स्थान पर कभी-कभी
दीर्घ हो जाते हैं । (हेम प्राकृत व्याकरण : 1-4)
80
]
[ प्राचारांग
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सक सव्वाओ (सव्वा) 5/2 वि सहेति (सह) व 3/1 सक
स्त्री अणेगरुवाओ (अणंगरूव-अणेगरूवा) 5/2 जोणीओ (जोणि) 5/2 संघेति (संघ) व 3/1 सक विरुवरूवे [(विरुव) वि (रुव) 2/2] फासे (फास) 2/2 पडिसंवेदयति (पडिसंवेदयति) व 3/1 सक अनि अपरिण्णायकम्मे = क्रिया समझी हुई नहीं । खलु =सचमुच । अयं = यह । पुरिसे = मनुष्य । जोजो । इमाओ=इन । दिसाओ= दिशाओं से। वा=या। अणुदिसाओ= अनुदिशाओं से। अणुसंचरति = परिभ्रमण करता है । सन्वाओ दिसाओ= सब दिशाओं से। सव्वाओ अणदिसाओ = सव अनुदिशाओं से । सहेति = सहन करता है । अणेगरुवाओ जोणीओ=अनेक प्रकार की योनियों से । संघेति =जोड़ता है। विरूवरूवे = अनेक रूपों को। फासे = स्पर्शो को। पडिसंवेदयति =
अनुभव करता है। 5. तत्य (अ) = उसके लिए। खलु (अ) =ही भगवता (भगवाता 3/1
अनि परिण्णा (परिण्णा) 1/1 पवेदिता (पवेदित-पवेदिता) 1/1 वि इमस्स (इम) 4/1 सवि चेव (अ)=ही जीवियस्स (जीविय) 4/1 परिवंदण-माणण-पूयणाए [(परिवंदण-(माणण - (पूयण) 4/1] जाती-मरण-मोयणाए (जाती) (मरण)-मोयण 4/1] दुक्खपडिधात
हेतु (दुक्ख)-(पडिघात)-हितु) 1/1] 5. तत्य = उसके लिए । खलु =ही । भगवता= भगवान् के द्वारा । परिणा
=ज्ञान । पवेदिता= दिया हुआ । इमस्स चेय जीवियस्स= इस ही जीवन के लिए । परिवंदण-माणाण-पूयणाए प्रशंसा, आदर तथा पूजा के लिए । जाती-मरणमोयणाए =जन्म, मरण तथा मोक्ष के लिए । दुक्खपडिघात हेतु = दुःखों को दूर हटाने के लिए। 1. समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर ह्रस्व के स्थान पर कभी-कभी
दीर्घ हो जाते हैं । (हैम प्राकृत व्याकरणः 1-4) चयनिका ]
[ 81
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(लोग)
परिजाणियव्या (परिजारण) विधि कृ
6. एतावंति ' ( एतावंति ) 1/2 वि श्रनि सख्यायंति (श्र) - सम्पूर्ण नोगंसि 7/1 कम्मसमारंभा [ ( कम्म ) - ( समारंभ ) 1/2] 1 / 2 भयंति (भव) व 3 / 2 प्रक 6. एतावंति = इतने । सव्वायंति = सम्पूर्ण । लोगंसि = लोक में । कम्मसमारंभा = क्रियाओं के प्रारम्भ । परिजाणियव्या = समझे जाने योग्य । भवंति = होते हैं ।
7. जस्सेते [ ( जस्स) + (एते ) | जस्स (ज) 6/1 एते ( एत) 1 / 2 सवि लोगंसि (लोग) 7/1 कम्मसमारंभा [ ( कम्म ) - ( समारंभ ) 1 / 2 ] परिणाया ( परिणाय) 1/2 वि भवंति (भव) व 3 / 2 अक से (त) 1 / 1 सवि हु ( अ ) = हो मुणी ( मुरिण) 1/1 चि परिणायकम्मे [ ( परिणाय) वि - (कम्म) 1 / 1] त्ति (श्र) इस प्रकार बेमि (लू) व 11 सक
7. जस्स = जिसके जिसके द्वारा । एते = इन | लोगंसि = लोक में । कम्मसमारंभा = क्रियानों के प्रारंभ । परिण्णाया = समझे हुए। भवंति = होते हैं । से = वह । हु = ही । मुणो ज्ञानी । परिण्णायकम्मे = क्रिया- (समूह) जाना हुआ । त्ति = इस प्रकार । बेमि= कहता हूं ।
1
8. सूत्र 5 का व्याकरणिक विश्लेपण देखें । से (त) 1 / 1 सवि सयमेव [ ( सयं) + (एव) ] सयं (श्र) स्वयं एव (श्र) ही पुढविसत्यं [ ( पुढवि) - ( सत्य ) 2 / 1 ] समारंभति ( समारंभ ) व 3 / 1 सक ग्रेह (श्रण) 3 / 2 सवि वा (प्र) : | = या समारंभावेति ( समारंभ - आवे
→ समारंभावे) प्रेरक व 3 / 1 सक अ (श्रण) 2/2 सवि समारंभंते ( समारंभ ) वकृ 2 / 2 सम जाणति ( समणुजारा ) व 3 / 1 सक तं
82 1
1. 'एतावंति' नपु. लिंग का बहुवचन है और यह 'समारंभा' (पु) का विशेषण है - विचारणीय है ( एतावत् एतावन्ति )
2. कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया विभक्ति के स्थान पर होता है (हैम प्राकृत व्याकरण: 3-134)
चयनिका
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(त) 1/1 सवि से (त) 6/1. स अहिताए (अहित) 4/1 से (त) 4/1
स अबोहीए (अबोहि) 6/1 8. इमस्स चेव जीवियस्स= इस ही जीवन के लिए । परिवंदण-माणण-पूय
णाए=प्रशंसा, आदर तथा पूजा के लिए । जाती-मरण-मोयणाए =जन्म, के कारण, मरण. के कारण तथा मोक्ष के लिए । दुक्ख पडिघात हेर्ड (दुक्ख-पडिघात-हेड) = दुःखों को, दूर हटाने के लिए। से=वह । सयमेव (सयं+एव)= स्वयं ही। पुढविसत्यं = पृथ्वीकायिक-जीव-समूह को। समारंभति= हिंसा करता है । अण्णेहि दूसरों के द्वारा । वा-या। समारंभावेति = हिंसा करवाता है। अण्णे= दूसरों को। समारंभंते= हिंसा करते हुए । समणुजाणति =अनुमोदन करता है। तं = वह । से उसके। अहिताएअहित के लिए। से= उसके लिए।
अवोहीए अध्यात्महीन बने रहने का। 9. सूत्र 5 एवं 8 का व्याकरणिक विश्लेषण देखें। उदयसत्यं [(उदय)
(सत्थ) 2/1] अबोधीए (अवोधि) 6/1 9. सूत्र 8 के शब्दार्थ देखें। उदयसत्यं = जलकायिक जीव-समूह । समार
भति = हिंसा करता है। समारभावेति= हिंसा करवाता है। समारभते ____ =हिंसा करते हुए । अबोधीए = अध्यात्महीन बने रहने का । 10. सूत्र 5. एवं 8 का व्याकरणिक विश्लेषण देखें। अगणिसत्यं !(अगरिण)
-(सत्थ)2/1] समारभति (समारभ) व 3/1 सक समारभावेति आवे (समारभ-समारभावे) प्रेरक व 3/1. सक समारभमाणे (समारभ)
वक 2/2 अबोधीए (प्रबोधि)6/1 10. सूत्र 8 व 9 के शब्दार्थ देखें। अगणिसत्यं = अग्निकायिक जीव-समूह ।
समारभमाणे= हिंसा करते हुए। 11. सूत्र 5, 8 एवं 10 का व्याकरणिक विश्लेषण देखें। वरणस्सतिसत्थं
[(वरणस्सति)-(सत्थ) 2/1] 11. सूत्र 8 व 9 व 10 के शब्दार्थ देखें। वणस्सतिसत्यं = वनस्पतिकायिक
जीव-समूह । चयनिका ]
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12. ✯ (a) 1/1 nfa àsa (3) = 1/1 ** (==) 1/1 xir fa (x) = ŵ arfauenù |(mix)-(43) 1/1 refire 'a') nd (g) 1/1 af gfgcmrad |(afg3)-(m3) 1/1 me qi नित्ततयं (वित्तमंत्रग) 1/1 दिन) नः ॥ मिलाति (मिला) व 3/1 एक आहार (प ||| (प्रणितिय ) 1 / 1 वि अनामयं ( ) 1/1 निघोन + (प्रोट) ] ( ( प ) - (चोदन) 1 1 ] - रिणामपम्यं [ ( विग्ग्राम) - ( गम् ) 1/1 व्या में| 12. से वह बेमिकता
अनियं गय)
..
एवं कापि भी जानि धम्मयं = उत्पत्ति स्वभाव याना गाती । युविगम्यं - बोरी स्वभाव वाला/पाली | चित्तमंतयं -नेतना वाला/पाली --
हुई। मिलाति = उदय होता है/होती है। आहार करने वाला) वानी । अणितियं नाशवान् । असास हमेशा नगर्ने याना /धानी चयोवचयं (चव - प्रोवनह) - बहने वाला/वाली पीरी। विपरिणामपम्यं परिवर्तनशील स्वभाव वाला / बानी ।
13. सूत्र 5, 8 एवं 10 का व्याकरणिक विश्लेषण देगे । तमाग [ ( तस्काय) - ( मत्य) 2 / 1 )
1
13. सूत्र 8, 9 व 10 के शब्दार्थ देगें । तमकायसत्यं = सकाय-जीव समूह । 14. से' (थ) = वाक्य की शोभा । चेमि (वृ) व 1/1 तक अप्पे | (सत्य) 4- (एंगे)] [(श्रण) - (एव) 1/2 नवि । प्रच्चाए (प्रच्चा) 4 / 1 यति (वध) व 3 / 2 सक अजिलाए (अजिना) 4 / 1 मंमाए (मंग) 4/1 यति ( वह) व 3 / 2 समः सोणिताए (सोणित) 4/1 हियाए (हिप) 4/1 वहति ( वह) व 3 / 2 सक प्रार्थ प्रयोग एवं (स) प्रकार पिताए (पित्त) 4 / 1 बसाए ( बसा 4 / 1 पिच्छाए (दिच्छ) 4/1 पुच्छाए (पुच्छ) 1. 'से' शब्द का यहां कोई श्रयं नही है तथा यह वाक्य मजाने के नाम श्राया है। (पिदाल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ, (24)
। चयनिका
84 ]
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4 / 1 वालाए ( वाल) 4 / 1 सिंगाए (सिंग) 4 / 1 विसाणाए ( विसारण ) 4/1 दंताए (दंत) 4/1 दाढाए (दाढ) 4/1 नहाए (नह) 4 / 1 हारुणीए ( व्हारुणी) 4/1 अट्ठिए' (अट्ठि) 4/1 अट्ठिमिजाए ( घट्ठिमिजा) 4 / 1 अट्ठाए ( श्रट्ठ) 4/1 अणट्ठाए (प्रगट्ट ) 4 / 1 हिंसिसु (हिस) भू 3 / 2 सक मे (ग्रह) 6 / 1 स ति ( अ ) = इस प्रकार वा ( अ ) = संभवत: हिसंति (हिस) व 3 / 2 सक हिसिस्संति ( हिंस) भवि 3 / 2 सक रगे (त) 2/2 स
।
14. से = वाक्य की शोभा । वेमि = कहता हूं मनुष्य । अच्चाए = पूजा-सत्कार के लिए । अजिणाए = हरिण आदि के चमड़े के लिए । मंसाए = मांस के लिए । चर्हेति = वध करते हैं । सोणिताए= खून के लिए। हिय्याए = हृदय के लिए । वहति = वघ करते हैं । एवं इसी प्रकार । पित्ताए = पित्त के लिए । वसाए = चर्बी के लिए। पिच्छाए = पांख के लिए । पुच्छाए: पूंछ के लिए । वालाए =वाल के लिए। सिंगाए = सींग के लिए । विसाणाए = हाथी आदि के दांत के लिए । दंताए = दाँत के लिए । दाढाए = दाढ के लिए । नहाए = नख के लिए | व्हारुणीए = स्नायु के लिए । अट्ठिए = हड्डी के लिए। अट्ठिमिजाए = हड्डी के भीतरी रस के लिए । अट्ठाए = किसी उद्देश्य के लिए । अणट्ठाए = बिना किसी उद्देश्य के । अप्पेगे (ग्रप्प - एगे) = कुछ मनुष्य । हिंसिसु = हिंसा की थी । मे मेरे । ति= इस प्रकार । वा = संभवतः । हिंसंति = हिंसा करते हैं । हिसिस्संति = हिंसा करेंगे। से= उनको । वर्धेति = वध करते हैं ।
1
अप्पेगे (अप्प - एगे ) = कुछ वर्षेति = वध करते हैं ।
15. मूत्र 5, 8 एवं 10 का व्याकरणिक विश्लेषण देखें । वाउसत्थं | ( वाउ)
- ( सत्य ) 2 / 1
15. सूत्र 8, 9, व 10 का शब्दार्थ देखें ।
वाउसत्थं = वायुकायिक
जीव-समूह |
1. नियमानुसार 'श्रट्ठीए होना चाहिए। यह अपवाद प्रतीत होता है ।
चयनिका ]
[ 85
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16 से (त) 1 / 1 वित्त (त) 2 / 1 स सबुज्नमाणं (गंयुग्म ) यह 1 / 1 श्रायणीयं ( श्रायागीय) विधिक 2 / 1 प्रनि समुट्टाए (समुद्रा) विधि 1/1 श्रक सोच्चा (मोच्चा) संगृ, अनि भगवती (भगवतो) 5/1 पनि णगाराणं (पगार) 6/2 इमेगेसि ( ( ) - (गेम)] यहं (भ) = यहाँ. एगेन' (एग ) 6/2 वि जातं (पात) 1 / 1 वि भगत (भय) व 3/1 क एस (एत) 1 / 1 नवि सतु (प्र) = निश्चय ही गये (य) 7/1 मोहे (मोह) 7/1 मारे (मार) 7/1 निरए (निरम ) 7/1
16 से = वह | तं = उसको । संयुज्भमाणे = समनता हुमा । आपाणीय
1
=
ग्रहण किये जाने योग्य को। समुट्ठाए = उठे । नोच्चा = सुनकर। भगवती = भगवान् से । अनगाराणं माधुयों के माधुयों में । इहगेति (डहं + एगेमि) = यहाँ कुछ के कुछ के द्वारा । नातं = नीगा हुया | भवति = होता है। एस = यह । यलु = निश्चय हो । गंये बन्धन में । मोहे = मूर्च्छा में । मारे = प्रनिष्ट में । निरए = नरक में ।
17 तं (तं) 2 / 1 सवि परिणाम ( परिगा) संकृ मेहावी ( महावि) 1) 1 विर्णव ( श्र) = कभी भी नहीं मयं (प्र) = स्वयं दज्जीवणिकायत्तत्यं [(छ) - ( ज्जीवणिकाय) - ( सत्य ) 2 / 1 ] समारभेज्जा ( समारंभ व 3 / 1 सकवणेह (व) + (हि) ] व (श्र) = कभी मी यावे नहीं । श्रहिं (अण्णा) 3/2 सवि. समारभावेज्जा ( नमारन समारभावे) प्रे. व 3 / 1 सक णेवणे ( ( रोव) + (श्रणे ) ] रोव (श्र) = कभी भी नहीं । श्रणे (प्रण्ण) 2 / 2 सगारभंते ( समारभ) वकृ 212 समगुजाणेज्जा (समरगुजारा ) व 3 / 1 सक
1. कभी-कभी पष्ठी विभक्ति का प्रयोग पंचमी विभक्ति के स्थान पर होता है । ( हम प्राकृत व्याकरण: 3-134 ) 2. कभी-कभी पष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया विभक्ति के स्थान पर होता है । (हैम प्राकृत व्याकरणः 3-134)
86 ]
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जस्सेते [(जस्स) + (एते)] जस्स (ज) 6/1. एते (एत) 1)2 सवि छज्जीवणिकायसत्यसमारंभा [(छ)-(ज्जीवरिणकाय)-(सत्थ)-(समारंभ 1/2] परिणाया (परिण्णाय) 1/2 वि भवंति (भव) व 3/2 अक से (त) 1/1 सवि हु (अ)= ही मुणी (मुणि) 1/1 वि परिण्णायकम्मे [(परिण्णाय) वि-(कम्म) 1/1] ति (अ)= इस प्रकार वेमि (बू) व 1/1 सक
17. तं = उसको । परिण्णाय = समझकर। मेहावी = बुद्धिमान । रणेव =
कभी भी नहीं। सयं =स्वयं । छज्जीवरिणकायसत्यं(छ-ज्जीवरिणकाय-सत्यं = छः जीव-समूह, प्राणी-समूह । समारमेज्जा= हिंसा करता है। ऐवऽणेहि (णेव+अण्णेहि) = कभी भी नहीं दूसरों के द्वारा। समारभावेज्जा= हिंसा करवाता है। ऐवण्णेहि (णेव+अण्णे) = कभी भी नहीं, दूसरों को । समारभंते = हिंसा करते हुए (को)। समणुजारणेज्जा = अनुमोदन करता है । जस्सेते(जस्स+एते) = दूसरे के दूसरे के द्वारा, इन छज्जीवणिकायसत्यसमारंभा (छ-ज्जीवरिणकाय-सत्य-समारंभा)= छ: जीव-समूह, प्राणी-समूह के हिंसा कार्य । परिणाया =समझे हुए। भवंति =होते हैं। से= वह । हु=ही । मुरणी =ज्ञानी । परिण्णायकम्मे (परिण्णाय-कम्मे) = जाना हुआ, हिंसा-कार्य । ति= इस प्रकार ।
वेमि= कहता हूं। 18. अट्ट (अट्ट) 1/1 वि लोए (लोअ) 1/1 परिजुण्णे (परिजुण्ण) 1/1
वि दुस्संवोये (दुस्संवोध) 1/1 वि अविजाणए (अविजाण) 1/1 वि अस्सि (इम) 7/1 सवि लोए (लोअ) 7/1 पवहिए (पन्वहिन) भूक 1/1 अनि
1. कभी कभी पष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया विभक्ति के स्थान पर होता है।
(हेम प्राकृत व्याकरण, 3-134) चयनिका ]
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18. अट्ट = पीड़ित । लोए = मनुष्य । परिजुण्णे = दरिद्र । दुस्संवोधे = ज्ञान
देना कठिन । प्रविजाणए = समझने वाला नहीं । अस्सि लोए = इस लोक
में । पन्वहिए =अति दुःखी। 19. जाए (जा) 3/1 स सद्धाए (सद्धा) 3/1 णिक्खंतो (णिक्खंत) भूक
1/1 अनि तमेव [(तं)+(एव)] तं (त) 2/1 स. एव (अ) ही अणुपालिया (अणुपाल) संकृ विजहित्ता (विजह) संकृ विसोत्तियं
(विसोत्तिय) 2/1 19. जाए = जिससे । सद्धाए प्रवल इच्छा से । णिक्खंतोनिकला हुआ।
तमेव (तं+एव) = उसको ही । अणुपालिया=बनाए रखकर ।
विजहिता छोड़कर । विसोत्तियं = हिंसात्मक चिन्तन को। . 20. पणया (पणय) भूक 1/2 अनि वीरा (वीर) 1/2
महावीहि = कभी कभी द्वितीया विभक्ति का प्रयोग सप्तमी के स्थान
पर होता है । (है. प्रा. व्या. 3/135) (महावीहि) 2/1 20. पणया = झुके हुए । वीरा=वीर । महावीहिं महापथ को महापथ पर । 21. लोगं (लोग) 2/1 च (अ) = अच्छी तरह से आणाए (प्राणां) 3/1
अभिसमेच्चा (अभिसमेच्चा) संक अनि अकुतोभयं (अकुतोभय) 2/1 वि से (अ) = वाक्य की शोभा बेमि (बू) व 1/1 सक रणेव (अ) = कभी न सयं (अ)=स्वयं लोगं (लोग) 2/1 अन्भाइक्खेज्जा (अभाइक्ख) विधि 3/1 सक अत्तारणं (अत्ताण) 2/1 जे (ज) 1/1 सवि
अब्भाइक्खति (अन्भाइक्ख) व 3/1 सक से (त) 1/1 सवि 21. लोग =प्राणी-समूह को। च = अच्छी तरह से । आणाए =प्राज्ञा से ।
अभिसमेच्चा =जानकर । अकुतोभयं =निर्भय । से= वाक्य की शोभा । बेमि = कहता हूं । रणेव = कभी न । सयं = स्वयं । लोग=प्राणी-समूह पर। अब्भाइक्खेज्जा झूठा आरोप. लगाये । अत्तारणं निज पर । जेजो। अब्भाइक्खति= झूठा आरोप लगाता है । से= वह । 88 ]
[ चयनिका
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22. जे (ज) 1/1 सवि गुणे (गुण) 1 / 1 से (त) 1 / 1 सवि आवट्टे (आवट्ट)
1 / 1 उड्ढ ( अ ) = ऊपर की ओर अहं ( अ ) = नीचे की ओर तिरियं ( अ ) = तिरछी दिशा में पाईणं (अ) = सामने की ओर पासमारणे (पास) वकृ 1 / 1 रुवाई (रुव) 2/2 पासति (पास) व 3 / 1 सक सुणमांगे (सुरण) वक्र 1 / 1 सद्दाई (सद्द ) 2 / 2 पारोति (सुरण) व 3 / 1 सक मुच्यमाणे (मुच्छ) वकृ 1 / 1 रूवेसु ( रूव) 1/2 मुच्छति (मुच्छ) व 3 / 1सक सद्दासु (सद्द) 1/2 यावि ( अ ) = और भी एस (एत) 1 / 1 स लोगे (लोग) 111 वियाहिते (वियाहिते) भूकृ 1 /1 अनि एत्य ( अ ) = यहां पर श्रगुत्ते ( अगुत्त) 1 / 1 वि अणाणाए ( अरणारा) 7 / 1 पुणो पुणो (प्र) : | = बार बार गुणासाते [ ( गुण + (आसाते ) ] [ ( गुरण - (ग्रासात) 7/1] वंकसमायारे [ ( वंक ) - ( समायार ) 7 / 1 वि] पत्ते ( पमत्त ) 1 / 1 वि गारमावसे [ ( गारं) + (आवसे) ] गारं (गार ) 2 / 1. आवसे' (आवस ) व 3 / 1 सक
।
22. जे = जो । गुणे = दुश्चरित्रता । से = वह । आवट्टे = चक्कर काटना । उड्ढ - ऊपर की ओर । अहं = नीचे की ओर । तिरियं = तिरछी दिशा में । पाईणं = सामने की ओर । पासमारणे = देखता हुआ । रुवाई = रूपों को । पासति = देखता है । सुणमागे = सुनता हुआ । सद्दाई = शब्दों को । सुरोति = सुनता है | मुच्छमाणे = मूच्छित होता हुआ रूवेसु = रूपों में । मुच्छति = मूच्छित होता है । सद्दे सु = शब्दों में । यावि = और भी । एस = यह । लोगे = संसार । वियाहिते = कहा गया । एत्य = यहां पर । अगुत्ते = मूच्छित । अणाणाए = प्राज्ञा में नहीं । पुणो पुणो = वार बार । गुणासाते ( गुण - प्रासाते ) = दुश्चरित्रता के स्वाद में । वंकसमायारे वंक -समायारे) = कुटिल आचरण में । पमत्ते = प्रमादी । गारमावसे (गारं + श्रवसे) = घर में निवास करता है ।
1. 'आवस' का प्रयोग कर्म (द्वितीया ) के साथ होता है ।
चयनिका ]
[ 89
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23. णिज्झाइत्ता (रिणज्झा) संकृ पडिलेहित्ता (पडिलेह) संकृ पत्तेयं (अ)
प्रत्येक परिणिन्वाणं (परिणिव्वाण) 2/1 सवेसि (सव्व) 4/2 सवि पाणाणं (पाण) 4/2 भूताणं (भूत) 4/2 जीवाणं (जीव) 4/2 सत्ताणं (सत्त) 4/2 अस्सातं (अस्सात) 1/1 अपरिणिन्वाणं (अपरिसिव्वाण) 1/1 महन्भयं (महन्भय) 1/1 वि दुक्खं (दुक्ख) 1/1 वि ति (अ) = इस प्रकार । वेमि (बू) व 1/1 सक तसंति (तस) व 3/1 अक पाणा (पाण) 1/2 पदिसों' (पदिसो) 2/2 अनि दिसासु (दिसा) 7/2 य (अ) =तथा तत्य तत्य (अ) प्रत्येक स्थान पर पुढो (अ) = अलग-अलग पास (पास) विधि 2/1 सक । आतुरा (आतुर) 1/2 वि । परितार्वेति (परिता) व प्रेरक 3/2 सक संति (अस) व 3/2 अक पाणा (पाण) 1/2 पुढो
(अ) =अलग-अलग सिता=सिया (अ)= भी (अवधारण अर्थ में)। 23. णिज्झाइत्ता विचार करके । पडिलेहिता-देख करके । पत्तेयं =
प्रत्येक । परिणिन्वाणं = शान्ति को । सव्वेसि = सव (के लिए)। पाणाणं
=प्राणियों के लिए । भूताणं = जन्तुओं के लिए। जीवाणं-जीवों के लिए । सत्ताणं-चेतनवानों के लिए। अस्सातंपीड़ा। अपरिणिन्वाणं
1. बहुधा विशेपणात्मक बल के साथ प्रयुक्त होता है। स्त्री
प्राकृतीकरण 2. प्रदिश् -+ प्रदिशः (द्वितीया बहुवचन)-पदिसो (Everywhere (प्रत्येक स्थान पर) Monier Williams : Sans-Eng. Dictionery P. 679] कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। हम प्राकृत व्याकरणः 3-137)
प्रेरक 3. तव-→ तावे (प्राकृत मार्गोपदेशिका पृष्ठ, 320) 90 ]
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=अगान्ति । महन्भयं = महाभयंकर। दुक्खं =दुःख-युक्त। ति= इस प्रकार | वेमि कहता हूँ । तसंति-भयभीत रहते है। पाणा-प्राणी । पदिसो-प्रत्येक स्थान पर । दिसासु दिशाओं में। य% तथा । तत्थ तत्य--प्रत्येक स्थान पर । पुढो अलग-अलग। पास=देख । आतुरामूच्छित । परितार्वति-दुख पहुंचाते हैं। संति होते हैं। पाणा=
प्राणी । पुढो–अलग-अलग। सिता-भी। 24. जे (ज) 1/1 सवि अन्झत्यं (अज्झत्य) 2/1 जाणति (जाण) व
3/1 सक से (त) 1/1 सवि बहिया (अ)= बाहर की ओर एतं (एता) 2/1 सवि तुलमण्णेसि [(तुलं) + (अण्णेसि)] तुलं (तुला) 2/1
अण्णेसि (अण्णेसि) 1/1 वि "24. जे= जो । अझत्यं = अध्यात्म को । जाणति =जानता है। से वह ।
बहिया बाहर की ओर । एतं = इसको । तुलमण्णेसि (तुलं + अण्णेसि)
तराजू को, खोज करने वाला। 25. एत्यं (अ)= यहाँ । पि = यद्यपि । जाण (जाण) विधि 3/1 सक
उवादीयमाणा [(उव + (आदीयमाणा)] उव (अ) =निकटता अर्थ में प्रयुक्त आदीयमाणा' (आदिय) वकृ 1/2 जे (ज) 1/2 सवि आयारे (आयार) 7/1 ण (अ) = नहीं । रमंति (रम) व 3/2 अक आरंभमाणा (प्रारंभ) वकृ 1/2 विणयं (विरणय) 2/1 (वयंति) (वय) व 3/2 सक छंदोवसीया [(छंद) + (उवणीया)] [(छंद)(उवणीय) भूक 1/2अनि] अज्झोववण्णा [(अज्झ) + (उव)+ (वण्णा)] । अझ (अ)= अत्यन्त उव (अ)=दोष वण्णा (वण्ण) भूकृ 1/2 अनि प्रारंभसत्ता [(आरंभ)-(सत्त) भूक 1/2 अनि । 1. यहाँ अनुस्वार का आगम हुआ है। (हे.प्रा. व्या. : 1-26) 2. यहाँ 'दी' दीर्घ हुआ है । अर्द्धमागधी में ऐसा हो जाता है ।
(पिशल: पृ. 135) चयनिका ]
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पफरेंति' (पकर) व 3/2 सक संगं (संग) 2/1 से (त) 1/1 सवि वसुमं (वसुमन्त- वसुमं) 1/2 वि सव्वसमग्णागतपण्णाऐणं (सव्व) वि-(समण्णागत) वि-(पण्णाण)3/1] अप्पारणेणं (अप्पारण)3/1 अकरणिज्जं (अ-कर) विधि 3 2/1 पांव (पाव) 2/11 फम्म
(कम्म) 2/1 णो (अ) = नहीं। अण्णेसि (अण्णेसि) 1/1 वि । 25. एत्यं = यहाँ । पि = यद्यपि । जाण =जानो उवादीयमाणा [(उव) +
(आदीयमाणा)] =निकट, समझते हुए। जे= जो । प्रायारे प्राचार में । ए नहीं। रमंति = ठहरते हैं। प्रारंभमाणा-हिंसा करते हुए। विणयं = आचार को। वयंति = कथन करते हैं । छंदोवणीया [(छंद) (उवरणीया)]-स्वच्छन्दता, प्राप्त की गई। अज्झोववपणा [(अज्झ)+ (उव) + (वण्णा)] अत्यन्त. दोप (में), वे हुए । प्रारंभसता= हिंसा में, पासक्त । पकरेंति = उत्पन्न करते हैं । संगं= कर्म-बन्धन को। से = वह । वसुमं = अनासक्त । सव्वसमण्णागतपण्णारगणं पूरी तरह से, समता को प्राप्त, प्रज्ञा के द्वारा। अप्पागणं =निज के द्वारा । अफरणिज्जं = अकरणीय । पावं = हिंसक को । कम्मं = कर्म को। णो= नहीं।
अण्णेसि = खोज करने वाला। 26. जे (ज) 1/1 सवि गुणे (गुण) 1/1 से (त) 1/1 सवि मूलढारणे
(मूलट्ठाण) 1/1 इति (अ) = इस प्रकार से (त) 1/1 सवि गुणट्ठी (गुणट्ठि) 1/1 वि महता (महता) 3/1 वि अनि परितावेण (परिताव) 3/1 वसे (वस) व 3/1 सक पमत्ते (पमत्त)7/1 अहो य राम्रो (अ) =दिन में और रात में य= भी परितप्पमाणे (परितप्प] वकृ 1/1 कालाकालसमुट्ठायी [(काल) + (अकाल) + (समुट्ठायी)] [(काल)
1. प्राकृत मार्गोपदेशिका : पृ. 141 या है. प्रा. व्या. 3-158 । 2. अभिनव प्राकृत व्याकरणः पु. 427 ।
3. 'वास करना' अर्थ प्रायः अधिकरण के साथ होता है। 92 ]
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(अकाल)-(समुट्ठायि) 1/1 वि] संजोगट्ठी [(संजोग) + (अट्ठी)]
(संजोग)-(अट्टि) 1/1 वि] अट्ठा लोभी [(अट्ठ-अट्ठ)-(लोभि) 1/1 वि आनुपे (पालुप) 1/1 वि सहसपकारे (सहसक्कार) 1/1 वि विरिणविट्ठचित्ते (विरिणविट्ठचित्त) 1/1 वि एत्य (अ) यहां पर सत्ये
(सत्य) 2/2 पुणो पुणो (अ) = बार-बार 26. जे = जो । गुरो= इन्द्रियासक्ति । से = वह । मूलढाणे= आधार । इति=
इस प्रकार । से= वह । गुणट्ठी= इन्द्रिय-विषयाभिलाषी । महता= महान् (से)। परितावेण= दुःख से । वसेवास करता है । पमते-प्रमादमें। अहो य राम्रोदिन में तथा रात में । य= भी। परितप्पमाणे = दुःखी होता हुआ । कालाकाल समुट्ठायी [(काल)+ (अकाल) + (समुट्ठायी)] काल (में), अकाल (में)प्रयल करनेवाला । संजोगट्ठी [(संजोग) + (अट्ठी)]
= संबंध का, अभिलापी। अट्ठालोमी= धन का लालची। पालुपे ठगनेवाला । सहसपकारे विना विचार किए करने वाला। विरिणविद्वचित्ते = आसक्त चित्तवाला । एत्य =यहाँ पर । सत्ये = शस्त्रों को । पुणो
पुणो बार-बार । 27. अभिपंतं (अभिकंत) भूक 2/1 अनि च (अ) = ही खलु(अ) = वास्तव
में वयं (वय) 2/1 सपेहाए' = संपेहाए (सपेह) संकृ ततो (अ) = बाद में से (त) 6/1 स एगया (अ)= एक समय मूढभावं [(मूढ) वि(भाव) 2/1] जयंति (जयंति) प्रे. 3/2 सक अनि जेहिं (ज) 3/2 स वा (अ)= और सद्धि' (अ) के साथ में संवसति (संवस) व 3/1 अक ते (त) 1/2 सवि व (अ)=ही रणं (त) 2/1 स एगदा (अ) = एक समय रिणयगा (रिणयग) 1/2 वि पुचि (अ)= पहले परिवदंति 1. समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ और
दीर्घ के स्थान पर हस्व हो जाते हैं। (हेम प्राकृत व्याकरण: 1-4) 2. स= सं (सपेहाए = संपेहाए)।
3. सद्धि के योग में तृतीया विभक्ति होती है । चयनिका ]
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(परिवद ) व 3 / 2 सक सो (त) 1 / 1 सवि वा (श्र) = भीते (त) 2/2 स रियगे (गियग) 2 / 2 वि पच्छा (श्र) = वाद में परिवदेज्जा ( परिवद ) व 3 / 1 सक णालं [(ण) + (श्रलं )] ग (प्र) = नहीं. श्रलं (घ) = पर्याप्त ते (त) 1 / 2 सवि तव ( तुम्ह ) 6 / 1 स ताखाए (तारण) 4/1 वा ( 2 ) = या सरणाए (सरण) 4 / 1 तुमं (तुम्ह) 1 / 1 सपि () = भीस (त) 6/2 स से (त) 1/1 सवि ग (श्र ) = नहीं हसाए (हास) 4 / 1 किटुाए (किट्टु ) 4/1 रतीए (रति) 4/1 विनुमाए (विभूसा) 4 / 1
27. श्रभितं = बीती हुई । च = ही । सलु = वास्तव में । वयं = श्रायु को । सपेहाए = देखकर । ततो = बाद में । से = उसके । एगया = एक समय । मूढभाव : = मूर्खतापूर्ण यवस्था ( को ) । जरगयंति = उत्पन्न कर देते हैं । जिह = जिनके । वा = श्रीर। सद्धि = साथ में । संवसति = रहता है । ते = वे 1 व = ही। गं = उसको । एगदा = एक समय । रियगा = आत्मीय । पुन्वि = पहले । परिवदंति = बुरा-भला कहते हैं । सो = वह । वा = भी । रिगयगे = श्रात्मीयों को । परिवदेज्जा = बुरा-भला कहता है । णालं = ( ण + अलं ) = नहीं, पर्याप्त । ते = वे । तव = तुम्हारे । तारणाए = महारे के लिए | वा = या । सरणाए = सहायता के लिए। तुमं= तुम । पि= भी । तसि = उनके । से = वह । रग = नहीं। हासाए = मनोरंजन के लिए। किड्डाए : क्रीड़ा के लिए । रतीए: के लिए |
1
1
प्रेम के लिए । विनूसाए
=
== सजावट
वि श्रहो विहाराए
28. इच्चैवं (अ) = इस प्रकार समुट्ठिते (समुट्ठित ) 1 / 1 ( होविहार ) 4 / 1 अंतरं (अंतर) 2 / 1 च (प्र) = ही खलु ( अ ) = सचमुच इमं (इम) 2 / 1 सवि सपेहाए = संपेहाए (सपेह ) संकृ घोरे (धीर) 1 / 1. वि मुहुत्तमवि [ ( मुहत्तं) + (वि) | मुहुत्तं (क्रिविप्र ): क्षरणभर के लिए. अवि (अ) = भी णो ( अ ) न पमादए ( पमाद ) विधि
1. संप्रदान के साथ 'अलं' का अर्थ 'पर्याप्त' होता है ।
94 ]
-
=
[ चयनिका
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3/1 अक यसो (वय) 1/1 अच्चेति (अच्चेति) व 3/1 अक अनि
जोन्यरणं (जोल्वण) 1/17 (अ) भी।। 28. इच्चेवं = इस प्रकार । समुद्विते = सम्यक् प्रयत्नशील । अहोविहाराए=
पापचर्यकारी संयम के लिए। अंतर =अवसर को। च=ही। इमं% इस (को) । सपेहाए = देखकर । धीरे धीर। मुहत्तमवि (मुहुत्तं+अवि) = क्षण भर के लिए, भी। णो=न । पमादए प्रमाद करे। वो=
पायु । अच्चेति-वीतती है । जोव्वरणं = योवन । च = भी। 29. जोयिते (जीवित) 7/1 इह (इम) 7/1 सवि जे (ज) 1/2 सवि
पमत्ता (पमत्त) 1/2 वि से' (त) 1/1 सवि हंता (हंतु) 1/1 वि छेत्ता (येत्त) 1/1 वि भेत्ता (भत्तु) 1/1 वि लुपित्ता (लुपित्त) 1/1 वि विलुपित्ता (विलुपित्त) 1/1 वि उद्दवेत्ता (उद्दवेत्तु) 1/1 वि उत्तासयित्ता (उत्तासयित्तु) 1/1 वि अफड (अकड) भूक 2/1 अनि फरिस्सामि (कर) भवि 1/1 सक ति (अ)= इस प्रकार
मण्णमाणे (मण्ण) व 1/1 29. जीविते = जीवन में । इह = इस (में)। जे = जो । पमत्ता=प्रमाद-युक्त।
से वह । हता= मारने वाला। छेत्ता= छेदने वाला । भेत्ता = भेदने वाला । लुपिता= हानि करने वाला। वीलु पिता अपहरण करने वाला। उद्दवेत्ता उपद्रव करने वाला। उत्तासयित्ता= हैरान करने वाला । अकड = कभी नहीं किया गया । करिस्सामि = करूंगा । ति=
इस प्रकार । मण्णमाणे = विचारता हुआ। 30. एवं (अ) = इस प्रकार जाणित्त, (जाण) संकृ दुक्खं (दुक्ख) 2/1
पत्तयः (अ)=प्रत्येक सातं (सात) 2/1 अणभिक्कंतं (अणभिक्कतं)
1. किसी समुदाय विशेप का बोध कराने के लिए 'एक वचन' या वहुवचन
का प्रयोग किया जा सकता है । यहाँ 'से' का प्रयोग एक वचन में है । 2. बहुधा विशेपणात्मक वल के साथ प्रयुक्त होता है। चयनिका ]
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नूक 2/1 अनि च (अ) ही मनु (प्र)=मत्रमुत्र वयं (बय) 2:1 सपेहाएसंपहाय (मह) मंक सणं (सरा) 21 जापाहि (जाग) विवि 2/1 सक पंडिते (पंटित) 8/1 जाव (अ)जब तक सोतपणापा [(सोत)-(पल्याण) 12] अपरिहोणा (अपरिहीण) नृक 1/2 अनि तपानामा [(ऐत)(पप्रणाण) 1/2] घाणपगाणा [(पाण)-(पन्यारा) 1/2] जीहपनामा [(जीह)-(पण्यारण) 1/2] फामपन्गाणा [(फाम)-(पणाण)1/2] इच्चेहि (इन्चेत) 3/2 वि विल्बल्बेहि [ (विस्व) वि-(ब) 32] पग्णारोहि (परणाण) 312 अपरिहोरोहिं (अपरिहीण) 3/2 वि प्रापट्ट [(आय) + (अट्ठ)] [(आय)-(भट्ट) 2/1] सम्म (म)= उचित प्रकार से समगुवासेन्जालि (समवास) विधि 2/1 सकति (प्र)-इसी प्रकार
वेमि (बू) व 11 सक 30. एवं = इस प्रकार | जाणित्त =समझकर । दुक्तं = दुःख (को) । पत्तयं
प्रत्येक के । सातं = सुत (को)। अगभिरकत न वोतो हुई (को) । चही । खतु सचमुच । वयं = आयु को । सपैहाए देख कर। खएं उपयुक्त अवसर को । जापाहि जान । पंडिते ! =हे पण्डित । जाव =जव तक | सोतपणाणा(मोत-पागारणा)= श्रवणेन्द्रिय की ज्ञान(शक्ति)। अपरिहोणा= कम नहीं । त्तपणापा= चन-इन्द्रिय की जान (शक्ति) । घाणपप्पाणा-प्राणेन्द्रिय की नान-(शक्ति) । जोहपण्णाणा रसनेन्द्रिय की नान-(शक्ति) । फासपगाण स्पर्शनेन्द्रिय की नान-(शक्ति) 1 इच्चेतेहि =इन इस प्रकार । विस्वहि = अनेक भेद (वाली) । पण्णारोहिं जान (भक्तियों) द्वारा । अपरिहारोहिअसीए । प्रायटुं (आय-अट्ट)-यात्म हित को । सम्म= रत्रित प्रकार से। समगुवासेन्जाति = सिद्ध कर ले। ति= इस प्रकार। वेमि= कहता हूँ। 1. कभी-कभी अकारान्त धातु के अन्तिम 'न' के स्थान पर विधि आदि
में 'या' हो जाता है। हिम प्राकृत व्याकरण : 3-158) 96 ]
[ चयनिका
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31 अरति (अरति) 2/1 आउट्टे (प्राउट्ट) व 3/1 सक से (त) 1/1 सवि
मेधावी (मेघावि) 1/1 वि खरणंसि (खण) 7/1 मुफ्के (मुक्क) 1/1 वि 31 अरति = वेचनी को । प्राउट्ट = समाप्त कर देता है। से= वह । मेधावी
= प्रज्ञावान । खपंसि = पल भर में । मुक्के = बन्धनरहित । 32 अणाणाए (अरणारणा 3/1 पुट्ठा (पुट्ठ) भूकृ 1/2 अनि वि (अ) =ही
एगे (एग) 1/2 सवि णियंति (रिणयट्ट) व 3/2 अक मंदा= (मंद)
1/2 वि मोहेण (मोह) 3/1 पाउडा (पाउड) भूक 1/2 अनि 32 अणाणाए =अनाज्ञा से। पुट्ठा = ग्रस्त । वि=ही। एगे कुछ । णियंति
=रुक जाते हैं । मंदा मूर्ख । मोहेण = आसक्ति से। पाउडा=घिरे हुए। 33 विमुक्का (विमुक्क) 1/2 वि हु (अ) = निश्चय ही ते (त) 1/2 सवि
जणा (जण) 1/2 जे (ज) 1/2 सवि पारगामिणो (पारगामि) 1/2 वि लोभमलोमेण [(लोमं)+ (अलोभेरण)] लोमं (लोभ) 2/1. अलोभेरण (प्रलोभ) 3/1 दुगुछमाणे (दुगुछ) वकृ 1/1 लद्धे (लद्ध) भूकृ2/2 अनि कामे (काम) 2/2 णाभिगाहति [(ण)+ (अभिगाहति)] ण (अ)
= नहीं. अभिगाहति (अभिगाह) व 3/1 सक 33 विमुक्कामुक्त । हु निश्चय ही । ते =वे । जणा= मनुष्य । जे = जो।
पारगामिणो=पार पहुंचने वाले । लोभमलोभेण (लोमं+अलोभेण) = अति-तृष्णा को, अतृष्णा से । दुगुछमारणे = झिड़कता हुआ । लद्धे =प्राप्त हुए । कामे = विषय भोगों को । णाभिगाहति (रणन-अभिगाहति) = नहीं,
सेवन करता है। 34 णो (अ) = नहीं होणे 1/1 वि अतिरित्त (अतिरित्त) 1/1 वि 34 णो नहीं । होणे =नीच । अतिरित्त = उच्च । 35 जीवियं (जीविय) 1/1 पुढो (अ)= अलग-अलग पियं (पिय) 1/1 वि
इहमेगेसि |(इह)+एगेसिं)] इहं (अ) = यहां. एगेसि (एग) 4/2 स चयनिका ]
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माणवारणं (गाणव) 4/2 रोत-पाय | (मेल)-(धन) मृत मन्द 211) ममायमाणाणं (गगा'--गमाय) व 4/2 ण (अ) = नहीं एल्य (एत) 7/1 मवि तयो (तय) 111 या (घ):
और दमो (दम) 1/। णियमो (पिगम) 1/1 दिसति (दिरमनि) य कर्म 3/1 सक अनि 35 जीवियं - जीवन । पुढी- अलग-अलग । पियं = प्रिय । हमेगेनि (इह !.
एगेसि) = यहां, कुछ को लिए) । माणवाणं == व्यक्तियों के लिए। मेत्त-वत्यु - भूमि व धन-दौलत । ममायमाणाणं - इन्छा करते हुए के लिए)। ण = नहीं । एत्य = उन में । तयो- तप । या और । दमी-प्रान्म
नियन्त्रण । णियमो-मीमा यन्यन । दिस्मति:- देखा जाता है। 36 इणमेव [ (इणं)--- (एव) णं (इम) 2/1 मवि. एव (प्र) =
निःसन्देह रणावफसंति [(ण)-- (अवमंति)] रा (प्र)- नहीं,अयराति (अवकंस) व 3/2 सक धुवचारिणो (धुवचारि) 1/2 वि जे (ज) 1/2 स जणा (जरण) 1/2 जाती-मरणं [(जाती')-(मरण) :1] परिणाय (परिणा) संकृ चर' (चर) विधि 2/1 सक संफगरणे' (संकमण) 7/1 दर्द (दढ) 7/1 वि णत्यि (अ) = नहीं है कालस्स (काल) 4/| गागमो [(ग)---(भागमा)। ण (अ)= नहीं. आगमो (आगम) 1/1 सव्वे (सव्व) 1/2 सवि पाणा (पाण) 1/2 पिआउया [(पिन):
-
-
-
--
1. 'अ' या 'य' विकल्प से जोड़ा जाता है। 2. कभी-कभी यह प्रत्येक शब्द या उक्ति के साथ प्रयुक्त होता है । 3. समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ
के स्थान पर ह्रस्व प्रायः हो जाते हैं । (हेम प्राकृत व्याकरण, 1-4) 4. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग
होता है (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135)
98 ]
[ आचागंग
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( श्राउया ) ] [ ( प ) वि - ( प्राउय ) 1 / 2] सुहसाता [ ( सुह' ) वि(सात) 1 / 2]
दुक्खपडिकूला [ ( दुक्ख ) - ( पडिकूल ) 1/2 वि] अप्पियवधा [ ( अप्पिय ) वि - (वध) 1 / 2 ] पियजीविणो [ ( पिय) वि - ( जीविरगो 2 ) 1/2 वि अनी ] जीवितुकामा ( जीवितुकाम) 1/2 वि सर्व्वेस (सव्व) 4 / 2 सवि जीवितं (जीवित) 1 / 1पियं ( पिय) 1 / 1 वि
36 इणमेव ( इ + एव) = इस को,.
= न आना ।
,........ | णावकखंति = ( ग + अवकंसंति) - नहीं चाहते हैं । जे = जो । जरणा = लोग । ध्रुवचारिणो = परमशान्ति के इच्छुक | जाती- मरणं = जन्म मरण को । परिण्णाय = जानकर । संकमणे = संयम पर । चर = चल | दर्द = दृढ । गात्थि = नहीं है । कालस्स = मृत्यु के लिए । णागमो = ( ग + आगमो ) सब्वे = = सव | पाणा = प्रारणी | पिआउया प्रिय, आयु । सुहसाता = अनुकूल, सुख । दुक्खपडिकूला = दुःख प्रतिकूल । अप्पियवधा = अप्रिय, वध । पियजीविणो = प्रिय, जिन्दा रहने वाली | जिवितुकामा = जीवन के इच्छुक । सव्र्व्वेसि = सब के लिए । जीवितं = जीवन पियं= प्रिय ।
(पिन + श्राउया =
37 तं (अ) = तो परिगिज्झ (परिगिज्झ ) संकृ अनि दुपयं (दुपय) 2 / 1 चउप्पयं (चउप्पय) 2/1 अभिजु जियाणं (अभिजुंज) संकृ संसिचियाणं ' ( संसिंच) संकृ तिविषेण (तिविध ) 3 / 1 विजा ( जा ) 1 / 1 सवि वि ( अ ) = भी से (त) 6 / 1 सवि तत्थ ( अ ) = उस अवसर पर मत्ता ( मत्ता) 1 / 1 भवति ( भव) व 3 / 1 अक अप्पा (अप्प विवा ( अ ) | = या बहुगा ( बहुग - बहुगा ) 1 / 1 वि से (त)
अप्पा )
1/1
1 / 1
सवि
1. 'सुह' का अर्थ 'अनुकूल' है ।
2. सामान्यतः समास के अन्त में प्रयुक्त । 3. पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकररण, पृष्ठ 838
चयनिका ]
[ 99
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तत्य (त) 7/1 स गढिते (गढित) 1/1 वि चिट्ठति (चिट्ठ) व 3/1 अक भोयणाए (भोयरण) 4/1 ततो (अ) =वाद में से (त) 4/1 स एगदा (अ)= एक समय विप्परिसिठ्ठ (वि-प्परिसिट्ठ) 1/1 वि संभूतं (संभूत) 1/1 वि महोवकरणं [(मह)+ (उवकरणं)] [(मह)वि-(उवकरण) 1/1] भवति (भव) व 3/1 अक तं (त) 2/1 स पि (अ) = भी से (त) 6/1 स एगदा (प्र) = एक समय दायादा (दायाद) 1/2 विमयंति (विभय) व 3/2 सक अदत्तहारो (अदत्तहार) 1/1 वा (अ) =या से (त) 6/1 स अवहरति (अवहर) व 3/1 सक रायाणो (राय) 1/2 वा (अ) = या से (त) 6/1 स विलुपति (विलुप) व 3/2 सक गस्सति (एस्स) व 3/1 अक से (त) 1/1 सवि विणस्सति (विरणस्स) व 3/1 अक से (त) 1/1 सवि अगारदाहेण [(अंगार)-(दाह) 3/1] वा (अ) =या डन्झति (डज्झति व कर्म 3/1 सक अनि इति (अ) = इस प्रकार. से (त) 1/1 सवि परस्स (पर) 4/1 वि अट्ठाए (अट्ठ) 4/1 फराई (कूर) 2/2 वि कम्माइं (कम्म) 2/2 वाले (वाल) 1/1 वि पकुव्वमाणे (पकुव्व) व 1/1 तेण (त) 3/1 स दुक्खेण (दुक्ख) 3/1 मूढे (मूढ) भकृ 1/1 अनि विप्परियासमवेति [(विप्परियासं+(उवेति)] विपरियासं (विप्परियास)/21 उवेति (ज्वे) व 3/1 सक मुणिणा (मुणि) 3/1 हु (अ) =ही एतं (एत) 1/1 सवि पवेदितं (पवेदित) भूकृ 1/1 अनि अणोहंतरा (अणोहंतर) 1/2 वि एते (एत) 1/2 सवि णो (अ)= नहीं य (अ)= विल्कुल अोह (ोह) 2/1 तरित्तए (तर) हेक 1. कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग द्वितीया विभक्ति के स्थान पर
होता है (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 2. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग
पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण :3-137)
100 ]
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आचारांग
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MAILau
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अतीरंगमा (अ-तीरंगम) 1/2 वि तीरं (तीर) 2/1 गमित्तए (गम) हेक अपारंगमा (अ-पारंगम) 1/2 वि पारं (पार) 2/1 आयाणिज्जं (माया) विधिक 1/1 च (अ)=ही आदाय (प्रादा) संकृ तम्मि (त) 7/1 स ठाणे (ठाण) 7/1 ण (अ)= नहीं चिट्ठति (चिट्ठ) व 3/1 अक वितहं (वितह) 2/1 व पप्प (पप्प) सकृ अनि खेतणे (खेतण्ण) 1/1 वि ठाणम्मी (ठाण) 7/
1 32767 37 तं =तो । परिगिज्म = रखकर । दुपयं = मनुष्य (को) । चउप्पयं = पशु
को । अभिजुजियाणं = कार्य में लगाकर । ससिंचियाणं = वढाकर । तिविवेणतीनों प्रकार के द्वारा । जा=जो । वि= भी । से= उसके । तत्य = उस अवसर पर । मत्ता= मात्रा। भवति होती है। अप्पा= अल्प । वाया । बहुगा=बहुत । से= वह । तत्य = उसमें । गढिते = आसक्त । चिट्ठति = रहता है । भोयणाए = भोग के लिए । ततो वाद में । से= उसके लिए। एगदा= एक समय । विप्परिसिट्ठ-बचा हुआ। संभूतं = उपलब्ध । महोवकरणं (मह+उवकरणं)- महान् साधन । भवति हो जाता है। तं = उसको। पि=भी। से= उसके । एगदा= एक समय । दायादा = उत्तराधिकारी । विभयंति=बांट लेते हैं। अदत्तहारो-चोर । वाया । सेऽवहरति (से+अवहरति)= उसका अपहरण कर लेता है । रायाणो=राजा । वाया । से= उसका उसको। विलुपंति = छीन लेते हैं। से = वह । णस्सति = नष्ट हो जाता है। विणस्सति = विनाश हो जाता है। अगारवाहेण = घर के दहन से । डझति = जला दिया जाता है।
इति = इस प्रकार । से वह । परस्सऽछाए (परस्स-+-अट्ठाए) = दूसरे . 1 'खेतण्ण का एक अर्थ 'धूर्त' भी होता है । (Monier Williams.
Sans. Eng. Dictionary, P. 332) 722167 * चयनिका ]
[ 101
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के प्रयोजन के लिए । कूराई कम्माई - क्रूर कर्मों को । बाले = अनानी । पकुव्वमाणे = करता हृया । तेण- उनके द्वारा । दुक्रोण == दुःख में। मुढे = व्याकुल हुआ । विपरियसमुवेति (विप्परियानं उर्वति) = विपरीतता को प्राप्त होता है। मुणिणाजानी के द्वारा। हुम्ही । एतं = यह 1 पवेदितं = कहा गया है। अणोहतरा=पार जाने में असमर्थ । एते == ये । णो= नहीं । य= विल्कुल । ओहं = संसाररूपी प्रवाह को →संसाररूपी प्रवाह में । तरित्तए
-तैरने के लिए। अतीरंगमा तीर पर जाने वाले नहीं। तीरं तीर पर । गमित्तए जाने के लिए। अपारंगमापार जाने वाले नहीं। पारंपार (को) । गमित्तए = जाने के लिए। आयाणिज्जं = ग्रहण किए जाने योग्य को। च-ही। आदाय - ग्रहण करके। तम्मि-उस (पर)। ठाणे स्थान पर । ण = नहीं । चिट्ठति = ठहरता है । वितहं =
असत्य को । पप्प प्राप्त करके । खेतणे-धूर्त । ठाणम्मि-स्थान पर। 38 उद्देसो (उद्देस) 1/1 पासगस्स (पासग) 4/1 वि त्यि (अ) = नहीं
वाले (वाल) 1/1 वि पुण (अ) = और णिहे (गिह) 1/1 वि कामसमणुण्णे [(काम)-(समणुण्ण) 1/1 वि] असमितदुक्से [(असमित) भूक अनि-(दुक्ख) 7/1] दुक्खी (दुखि) 1/1 वि दुक्खाणमेव [(दुक्खाणं) (एव)] दुक्खाणं (दुक्ख) 6/2. एव (अ)= ही भाव (आव) 2/1 अणुपरियति (अणुपरियट्ट) व 3/1 अक त्ति (अ)=
इस प्रकार वेमि (ब) व 1/1 सक 38. उद्देसो उपदेश । पासगस्त =द्रप्टा के लिए । त्यि = नहीं है ।
वाले = अज्ञानी । पुण=और । णिहे-यासक्ति युक्त । कामसमणुण्णे = भोगो 1. कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग
होता है । (हम प्राकृत व्याकरण : 3-135) 2. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग
होता है। हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) 102 ]
[ प्राचारांग
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1
1
,
का अनुमोदन करने वाला । श्रसमितदुक्ले = अपरिमित दुःख में अपरिमित दुःख के कारण । दुक्खी = दुखी। दुक्खाणमेव == ( दुक्खाणं एवं ) दुःखों के ही । आवट्ट - भंवर को भंवर में । प्रणुपरियवृति = फिरता रहता है । त्ति = इस प्रकार । वेमि = कहता हूं |
=
39 आसं (ग्रास) 2/1 च' (प्र) = ओर छंद (छंद ) 2 / 1 विगिच (विगिंच) विधि 2/1 सक घोरे (धीर) 8 / 1 तुमं (तुम्ह ) 1 / 1 स चेव (श्र) = ही तं (त) 2 / 1 सवि सल्लमा हट्टु [ ( सल्लं) + ( ग्राहट्टु ) ] सल्लं (सल्ल) 2 / 1. हट्टु (आहट्टु) संकृ अनि जेण (ज) 3 / 1स सिया ( अ ) = होना तेण (त) 3 / 1 स णो (प्र) = नहीं इणमेव [ ( इणं) + (एव)] इणं (इम) 2 / 1 सवि एव ( अ = ही णावबुज्भंति [ (ण) + (श्रववुज्भंति ) ] ण ( अ ) = नहीं. श्रववुज्भंति ( श्रवबुज्झ ) व 3 / 2 सक जे (ज) 1/2 सवि जणा ( जण ) 1/2 मोहपाउडा [ ( मोह ) - ( पाउड 1 / 2 वि ] 39 श्रासं = आशा को । च = - श्रीर । छंदं = इच्छा को । विगिच = छोड़ । धीरे = हे घीर । तुमंतू । चैव ही । तं = उस ( को ) । सल्लमा हट्ट ( सल्लं + ग्राहट्टु ) = विप को ग्रहण करके । जेण = जिस के कारण । सिया = होता है । तेण = उसके कारण । णो नहीं। सिया होता है। इणमेव ( इणं + एव) = इसको, ही । णाववुज्भंति (ण + श्रववुज्भंति) नहीं समझते हैं । जे= जो । जणा = मनुष्य | मोहपाउडा = मोह से ढके हुए । 40 उदाहु' (उदाहु) भू 3 / 1 श्रार्य वीरे (वीर) 1 / 1 अप्पमादी (अप्पमाद) 1 / 1 वि महामोहे, [ (महा) - (मोह) 7/1] अलं (अ ) == पर्याप्त कुसलस्स (कुसल ) 4 / 1 पमादेणं * ( पमाद ) 3 / 1] संतिमरणं [ ( संति) - ( मरण) 2 / 1] सपेहाए (सपेह) संकृ भेउरधम्मं [ ( भेउर) वि (धम्म)
I
1. 'और' अर्थ को प्रकट करने के लिए कभी-कभी 'च' का प्रयोग दो बार किया जाता है ।
2. पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृ. 755
3. संप्रदान के साथ अर्थ होता है, 'पर्याप्त' ।
4. 'विना ' के योग में तृतीया होती है। यहां 'विना' लुप्त है ।
चयनिका ]
[ 103
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1 / 1] णालं [ ( ण + ( श्रलं )] ण = नहीं श्रलं ( ) == कोई लाभ नहीं पास (पास) विधि 2 / 1 सक ते ( तुम्ह) 4 / 1 स एतेहि (गत ) 3/2 एतं (एव) 2 / 1 मुणि ( मुणि) 8 / 1 महत्भयं (मभयं ) 1 / 1 णातिवातेज्ज [ (ण) + (प्रतिवातेज्ज) ] ण मत 1 अतिवातेज्ज'
प्रेरक
( श्रतिवत प्रतिवात) विधि 2 / 1 सक कंचणं ( ) = किसी भी तरह | 40 उदाहु = कहा | वीरे = महावीर ने । श्रप्पमादो = प्रमादरहित । महामोहे: घोर श्रासक्ति में | अलं = पर्याप्त । कुसलस्स = कुशल के लिए । पमादेणं: प्रमाद ( के विना ) । संतिमरणं = शान्ति, मरण को । सपेहाए = देखकर । मेउर धम्भं ==नखर, स्वभाव को । णालं [ (ण) + (अलं)] = नहीं, कोई लाभ नहीं । अलं = कोई लाभ नहीं । ते = तेरे लिए । एतेहि = इन से । एतं = इस को । पास = सीख । महत्भयं = महाभयंकर । णातिवातेज्ज [(ग) + प्रतिवातेज्ज) ] = मत मार | कंचणं = किसी भी तरह ।
41 एस (एत) 1 / 1 सवि वीरे (वीर) 1 / 1 पसंसिते ( पसंसित) भूकृ 1 / 1 अनि जे (ज) 1 / 1 सवि । ण ( अ ) = नहीं । णिविवज्जति ( णिन्विज्ज) व 3 / 1 ग्रक आदाणाए (श्रादाण - श्रादाणा ) 5 / 1
41 एस = वह । वोरे = वीर । पसंसित = प्रशंसित । जे जो ।
1
ण= नहीं | णिग्विज्जति = दूर होता है । आदाणाए = संयम से । 42 लाभो (लाभ) 1 / 1 ति ( प्र ) = शब्दस्वरूपद्योतक ण ( प्र ) = नहीं मज्जेज्जा (मज्ज) विधि 2 / 1 ग्रक अलाभो (लाभ) 1 / 1 सोएज्जा (सोत्र ) विधि 2 / 1 अक बहुं (बहु) 2 / 1 वि पि (ध) = भी लघुं (लघु) संकृ अनि हेि (हि) 1/1 वि परिग्गहाओ (परिग्गह) 5/1 अप्पा (अप्पाणा) 2 / 1 श्रवसक्केज्जा ( श्रवसक्क) विधि 2 / 1 सक अण्णा ( अ ) = विपरीत रीति से णं (त) 2 / 1 स पासए (पासा) 1 / 1 वि परिहरेज्जा (परिहर) व 3 / 1 सक
42 लाभो = लाभ | णन | मज्जेज्जा = मद कर । अलाभो हानि ।
1. प्राकृतमार्गोपदेशिकाः पृ. 320
104 ]
[ आचारांग
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=
ण = मत । सोएज्जा=शोक कर । बहु = बहुत ( को ) । पि = भी। लधु * =
-
1
प्राप्त करके । णिहे = श्रासक्तियुक्त । परिग्गहाओ = परिग्रह से । अप्पाणं = अपने को । अवसक्केज्जा = दूर रख । अण्णहा = विपरीत रीति से ।
-
णं - उसको (का) । पासए – द्रष्टा । परिहरेज्जा = परिभोग करता है ।
=
43 कामा (काम) 1/2 दुरतिक्कमा ( दुरतिक्कम) 1 / 2 वि जीवियं (जीविय)
[ ( काम ) - ( कामि)
1 / 1 दुप्पडिबूहगं ( दुप्पडिवूहग ) 1 / 1 वि कामकामी 1 / 1 वि खलु ( अ ) = ही अयं (इम) 1 / 1 सवि पुरिसे ( पुरिस) 1 / 1 से (त) 1 / 1 सवि सोयति ( सोय) व 3 / 1 ग्रक जूरति (जूर) व 3 / 1 सक तिप्पति ( तिप्प ) व 3 / 1 ग्रक पिडुति (पिड) व 3 / 1 ग्रक परितप्पति (परितप्प) व 3 / 1 अक
43 कामा = इच्छाएँ । दुरतिक्कमा = दुर्जप । जीवियं = जीवन | दुम्पडिबूहगं= बढ़ाया नहीं जा सकता । कामकामी = इच्छाओं का, इच्छुक । खलु = ही | अयं = यह । पुरिसे = मनुष्य । से = वह । सोयति - शोक करता है । रति = क्रोध करता है । तिप्पति = रोता है । पिड्डति = सताता है । परितप्पति = नुकसान पहुँचाता है ।
44 आयत क्लू [ ( आयत ) वि - ( चक्खु ) 1 / 2] लोगविप्पस्सी [ (लोग) - (विपरिस) 1 / 1 वि] लोगस्स (लोग) 6 / 1 अहे ( अ ) = नीचे भागं (भाग) 2 / 1 जाणति (जाण) व 3 / 1 सक उड्ढं (उड्ढ ) 2 / 1 वि तिरियं ( तिरिय ) 2/1 वि गढिए (गढि ) 1 / 1 वि अणुपरियट्टमाणे (अणुपरियट्ट) वकृ 1 / 1 संधि (संधि) 2 / 1 विदित्ता (विदित्ता) संकृ अनि इह ( अ ) = यहाँ मच्चिएहि (मच्चित्र) 3 / 2 एस (एत) 1 / 1 सवि वीरे (वीर) 1/1 पसंसिते ( पसंसित) भूकृ 1 / 1 अनि जे (ज) 1 / 1 सवि बद्धे ( बद्ध) 2/2 वि पडिमोय (पडिमोयए) व 3 / 1 सक अनि
44 आयत चक्खू - विस्तृत, आँखे | लोगविपस्सी = लोक को देखने वाला । लोगस्स = लोक के । अहेभागं = नीचे, भाग को । जागति जानता है ।
चयनिका ]
[ 105
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उड्ढं-ऊपर(को)। भाग=भाग को । तिरियं तिरछे (को)। गढिए
=आसक्त । अणुपरियट्टमाणे-फिरता हुआ । संघि-अवसर को । विदित्ता=जानकर । इह-यहाँ। मच्चिएहि मनुष्य के द्वारा । एस= यह (वह) । वीरे-वीर । पसंसिते=प्रशंसित । जे-जो । बढे ववे हुओं
को । पडिमोयए-मुक्त करता है। 45 कासंकसे (कासंकस) 1/1 वि खलु (अ)=सचमुच अयं (इम) 1/1 सवि
पुरिसे (पुरिस 1/1 बहुमायो (वहुमायि) 1/1 वि कडेण (अ) के कारण मूढे (मूढ) 1/1 वि पुणो (अ)=फिर तं (अ)-इसलिए करेति (कर) व 3/1 सक लोभं (लोभ) 2/1 वेरं (वेर) 2/1 वड्ढेति (वड्ढ) व
3/1 सक अप्पणो (अप्प) 4/1. 45 कासंकसे आसक्त । खलु सत्रमुच । अयं=यह । पुरिसे-मनुष्य ।
बहुमायी=अति कपटी। कडेण=के कारण । मूढ=अनानी । पुणो= फिर । तं=इसलिए । करेति=करता है । लोभं लोलुपता को । वेरं=
दुश्मनी (को) । वड्ढेति बढ़ाता है । अप्पणो अपने लिए । 46 जे (ज) 1/1 सवि ममाइयमति [(ममाइय) वि-(मति) 2/1] जहाति
(जहा) व 3/1 सक से (त) 1/1 सवि ममाइतं (ममाइत) 2/1 विह (अ) ही दिठ्ठपहे [(दिट्ठ) वि-(पह) 1/1] मुणी (मुणि) 1/1 जस्स
(ज) 4/1 स त्यि (अ) नहीं है ममाइतं (ममाइत) 1/1 वि 46 जेजो । ममाइयमति = ममतावाली वस्तु वुद्धि को। जहाति छोड़ता
है । से वह । ममाइतं ममतावाली वस्तु को । हु=ही । दिट्ठपहे=पथ
जाना गया । मुणी ज्ञानी । जस्स=जिसके लिए । पत्थि नहीं है। 47 णारति [(ण)+(अरति)] =नहीं अरति (अरति) 2/1 सहती' (सह)
व 3/1 सक वीरे (वीर) 1/1 णो नहीं रति (रति) 2/1 जम्हा 1. छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'ति' को 'ती' किया गया है।
106 ]
[ आचारांग
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(अ)=चूंकि अविमणे (अविमण) 1/1 वि तम्हा (अ)=इसलिए रज्जति
(रज्ज) व 3/1 अक। 47 गारति [(ण)+(अरति)]=नहीं, विकर्षण को। सहती=सहन करता है।
वोरे वीर । णो नहीं । रति आकर्षण को। जम्हा=चूंकि । अविमणे
=खिन्न नहीं । तम्हा=इसलिए । ण-नहीं। रज्जति खुश होता है । 48 जे (ज) 1/1 सवि अणण्णदंसी [(अणण्ण) वि-दंसि) 1/1 वि] से (त)
1/1 सवि अणण्णारामे [(अणण्ण)+(आरामे)] [(अणण्ण) वि-(प्राराम)
7/1] 48 जे-जो । अणण्णदंसी=समतामयी के दर्शन करने वाला। सेवह ।
अणण्णारामे (अणण्ण+आरामे)-अनुपम, प्रसन्नता में ! 49 उड्ढं (अ) ऊंची, अहं(अ) नीची तिरियं (अ)-तिरछी दिसासु (दिसा)
7/2 से (त) 1/1 वि सव्वतो (अ)=सव ओर से सवपरिग्णाचारी [(सव्व) वि-(परिण्णा)-(चारि) 1/1 वि] ण (अ)-नहीं लिप्पति (लिप्पति) व कर्म 3/1 सक अनि छणपदेण [(छण)-(पद) 3/1 वीरे
(वीर) 1/1 वि. 49 उड्ढे-ऊंची । अहं नीची । तिरियं-तिरछी । दिसासु = दिशाओं
में । से-वह । सव्वतो=सब ओर से । सवपरिण्णाचारी पूर्ण जागरूकता से चलने वाला। नहीं। लिप्पति संलग्न किया जाता है।
छणपदेन=हिंसा-स्थान के साथ । वीरे= वीर । 50 से (त) 1/1 सवि मेधावी (मेवावि) 1/1 वि जे (ज) .1/1 सवि
अणुग्घातणस्स (अणुग्घातण) 6/1 खेत्तण्णे (खेत्तण्ण) 1/1 वि जे (ज) 1/1 सवि य (अ)=भी बंधपमोक्खमण्णेसी (बंध)+(पमोक्ख)+ (अण्णेसी] [(वंव)-(पमोक्ख)' 2/1] अण्णेसी (अण्णेसि) 1/1 वि 1. कभी कभी द्वितीया विभक्ति का प्रयोग सप्तमी विभक्ति के स्थान पर
पाया जाता है (हम प्राकृत व्याकरण : 3-137)
चयनिका ]
[ 107
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कुसले (कुसल) 1/1 वि पुण (अ) और गो (अ) नहीं बद्ध (बद्ध) भूकृ 1/1 अनि मुफ्के (मुक्क) भूकृ 1/1 अनि से (त) 1/1 सवि जं (ज) 2/1 सच (अ)= भी आरमे (प्रारम) व 3/1 सक च (अ)-विल्कुल गारने [(ण)+(आरभे)] ण (अ)नहीं. प्रारभे (आरभ) व 3/1 सक अणारखं (अणारद्ध) 2/1 वि च (अ)=
विल्कुल ण (अ)नहीं आरने (प्रारम) विधि 3/1 सक 50 से वह । मेघावी मेघावी । जे जो। अगुग्यातणस्स आपात रहितता
का। खेतणे-जानने वाला। य= भी। बंधपमोक्खमणेसी (बं+ पमोक्खं+अण्णेसी)-बन्धन (कर्म से) छुटकारे को- (कर्म से) छुटकारे के विषय में, खोज करने वाला। कुसले-कुशल । पुण= और । गो= नहीं । बद्ध =वंवा हुा । मुक्के= मुक्त किया गया। से वह । ज=जिस को। च= भी । आरने = करता है। च= विल्कुल णारने = (ण+आरभे)=नहीं करता है । अणारद्ध = नहीं किए हुए को।
च = विल्कुल । ण=न । आरने = करे । 51 सुत्ता (सुत्त) भूक 1/2 अनि अमुणी (अमुणि) 1/2 वि मुणिणो (मुणि)
1/2 सया (अं) =सदा जागरंति (जागर) व 3/2 अक 51 सुत्ता सोए हुए । अमुणी = अज्ञानी । मुणिणो-ज्ञानी । सया= सदा ।
जागरंति= जागते हैं। 52 जस्सिमे [(जस्स)+(इमे)] जस्स (ज) 6/1 इमे (इम) 1/2 सवि सद्दा
(सइ) 1/2 य (अ)=और रूवा (रुव) 1/2 गंधा (गंव) 1/2 रसा (रस) 1/2 फासा(फास)1/2 अभि समण्णागता (अभिसमण्णागत) 1/2
1. कभी कभी षष्ठी का प्रयोग तृतीया के स्थान पर होता है (हम प्राकृत
व्याकरण : 3-134) 108 ]
[ आचारांग
108
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वि भवंति (भव) व 3/2 अक से (त) 1/1 सवि आतवं' (प्रातवन्त→ आतवन्तो पातवं) 1/1 वि णाणवं' (णाणवन्त+णाणवन्तो→णाणवं) 1/1 वि वेयवं (वेयवन्त--वेयवन्तो-वेयव) 1/1 वि धम्मवं (धम्मवन्त-धम्मवन्तो-धम्मवं) 1/1 वि बंभवं (बंभवन्त→वंभवन्तोवंभव) 1/1 वि
52 जस्सिमे [(जस्स)+(इमे)] = जिसके-जिसके द्वारा; ये । सदा शब्द ।
य= और । गंधा=गंध । रसा= रस । फासा=स्पर्श । अभिसमण्णागता= अच्छी तरह जाने गए । भवंति = होते हैं। से = वह । आतवं =आत्मवान् णाणवं =ज्ञानवान् । वेयवं वेदवान् । धम्मवं = धर्मवान् । बंभवं = ब्रह्मवान् ।
53 पासिय (पास) संकृ आतुरे (प्रातुर) 2/2 वि पाणे (पाण) 2/2
अप्पमत्तो (अपमत्त) 1/1 वि परिव्वए (परिव्वअ) विधि 2/1 सक मंता (मा) वकृ 1/2 एयं (एय) 2/1 सवि मतिमं (मतिमन्त→मतिमन्तोमतिमं) 8/1 वि पास (पास) विधि 2/1 सक आरंभज (आरंमज) 1/1 वि दुक्खमिणं [(दुक्खं)+ (इणं)] दुक्खं (दुक्ख) 1/1. इणं (इम) 1/1 सवि ति (अ)-इस प्रकार गच्चा (णच्चा ) संकृ अनि मायी (मायि) 1/1 वि पमायी (पमायि) 1/1 वि पुणरेति (पुणरेति) व 3/1 सक अनि गम्भ (गन्भ) 2/1
1. विकल्प से 'त' का लोप तथा 'न्' का अनुस्वार होने से उपर्युक्त रूप
बने । (अभिनव प्राकृत व्याकरण : पृष्ठ 427) 2. 'मा' का एक अर्थ 'चीखना' भी होता है ।
3. 'गमन' अर्थ में द्वितीया का प्रयोग होता है । चयनिका ]
[ 109
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उवेहमाणो (उवेह) वकृ 11 सद्द-स्वेसु' [(सद्द)-(रुव) 7/2] अंजू (अंज) 1/1 वि मारामिसंकी [(मार) + (अगिरांनो)] [(मार)(अभिसंकि) 1/1 वि] मरणा (मरण) 5/1 पमुच्चति (पमुच्चति) व कर्म
3/1 सक अनि 53 पासिय=देखकर । आतुरे पीड़ित को। पाणे-प्राणियों को । अप्पमत्तो
-अप्रमादी। परिव्वए = गमन कर। मंता= चीखते हुए । एयं = इसको । मतिमं-हे बुद्धिमान् । पास = देख । प्रारंभ-हिंसा से उत्पन्न होने वाली । दुवखमिणं [(दुक्खं)+ (इणं)]= पीड़ा, यह । ति= इस प्रकार । णच्चा=जानकर । मायो= माया-युक्त । पमायीप्रमादी । पुणरेति = बार बार आता है। गन्भं गर्भको-गर्म में। उवेहमाणो- उपेक्षा करता हुआ । सह-रूवेसु = शब्द और रूप में-शब्द और रूप की। अंजू =तत्पर । माराभिसंकी (मार)+ (अभिसंकी)] =मरण (से),
डरने वाला । मरणा- मरण से । पमुच्चति = छुटकारा पा जाता है। 54 अप्पमत्तो (अप्पमत्त) 1/3 वि कामेहि (काम) 3/2 उवरतो (उवरत)
भूकृ 1/1 अनि पावकम्मेहि' [(पाव)-(कम्म) 3/2] वीरे (वीर) 1/1 वि पातगुत्ते [(आत)-(गुत्त) 1/1 वि] खेयण्णे (यण्ण) 1/1 वि जे (ज) 1/1 सवि पज्जवजातसत्यस्स [(पज्जव)-(जात)-(सत्य) 6/1]
खेतण्णे (खेतण्ण) 1/1 वि से (त) 1/1 सवि असत्थस्स (असत्य) 6/1। 54 अप्पमत्तो-मूर्छा रहित । कामेहि = इच्छाओं द्वारा ।-→इच्छाओं में ।
1. कभी कभी द्वितीया के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता
है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) 2. कभी कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
(हम प्राकृत व्याकरण : 3-137) 3. कभी कभी पंचमी के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
(हेम प्राकृत व्याकरण 3-136) 110 ]
[ आचारांग
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उवरतो=मुक्त । पावकम्मेहि = पाप कर्मों द्वारा-पाप कर्मों से । वीरे = वीर । आतगुत्ते = आत्मरक्षित । सेयण्णे = जानने वाला । जे= जो । पज्जवजातसत्यस्स=पर्यायों से उत्पन्न शस्त्र का। खेतणे =जानने वाला।
से =वह । असत्यस्स-प्रशस्त्र का । सेतण्णे = जानने वाला। 55 अकम्मरस (अकम्म) 4/1 वि ववहारो (ववहार) 1/1 ण (अ) =नहीं
विज्जति (विज्ज) व 3/1 अक। कम्मुणा (कम्म) 3/1 उवाधि (उवाधि) मूल शब्द 1/1 जायति (जाय)
व 3/1 अक 55 अकम्मस्स= कर्मों से रहित के लिए। ववहारो= सामान्य लोक प्रचलित
आचरण । ण= नहीं । विज्जति =होता है। कम्मुणा= कर्मो से ।
उवाघि = उपाधि । जायति = उत्पन्न होती है। 56 कम्मं (कम्म) 2/1 च (अ) ही पडिलेहाए (पडिलेह) संकृ कम्ममूलं
[(कम्म)-(मूल) 1/1] च (अ)=तथा जं (ज) 1/1 सवि छणं (छण) 1/1 पडिलेहिय (पडिलेह) संकृ सव्वं (सव्व) 2/1 वि समायाय (समाया) संकृ दोहि (दो) 3/2 वि अंतेहि (अंत) 3/2 अदिस्समाणे (अदिस्समाणे)
वकृ कर्म 1/1 अनि 56 कम्म-कर्म को । च =ही । पडिलेहाए = देखकर । कम्ममूलं = कर्म का
आधार। च = तथा । जं=जो। छणं = हिंसा। पडिलेहिय = देखकर। सव्वं = पूर्ण को । समायाय =ग्रहण करके । दोहि = दोनों के द्वारा ।
अंतेहि = अंतों के द्वारा । अदिस्समाणे = नहीं कहा जाता हुआ। 57 अग्गं (अग्ग) 2/1 च' (अ) = और मूलं (मूल) 2/1 विगिंच (विगिंच)
विधि 2/1 सक घोरे (धीर) 8/1 पलिछिदियाणं (पलिछिंद) संकृ णिक्कम्मदंसी [णिक्कम्म) वि-(दंसि) 1/1 वि]
1. कभी कभी और अर्थ को प्रकट करने के लिए 'च' का दो बार प्रयोग किया जाता है।
चयनिका ]
[
111
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57 अग्गं प्रतिफल को। चौर । मूलं = प्राधार को। विगिच%निर्णय ___ कर । धीरे-हे धीर । पलिधिदियाएं - छेदन करके । रिएक्कम्मदंसी
कर्मोरहित का देखने वाला। 58 लोगंसि (लोग) 7/1 परमदंशी [(परम)-(दंसि) 1/1 वि विवित्तजीवी
[(विवित्त) वि-(जीवि) 1/1 वि] उवसंते (उवसंत) 1/1 वि समिते (समित) 1/1 वि सहिते (सहित) 1/1 वि सदा (अ)=सदा जते (जत) 1/1 वि कालफंखी [(काल)-(कंखि) 1/1 वि] परिव्वए (परिवा)
व 3/1 तक 58 लोगंसि= लोक में । परमदंसी= परम तत्व को देखने वाला। विवित्तजीवी
=विवेक-युक्त जीने वाला। उवसंते तनाव-मुक्त । समिते=समतावान् । सहिते= कल्याण करने वाला । सदा सदा । जितेजितेन्द्रिय ।
कालकंखी उचित समय को चाहने वाला । परिव्वए-गमन करता है । 59 सच्चंसि (सच्च) 7/1 धिति (घिति) 2/1 कुवह (कुव्व) विधि 2/2
सक एत्योवरए [(एत्थ)+ (उवरए)] एत्य (एत) 7/1. उवरए (उवरण) भूक 1/1 अनि मेहावी (मेहावि) 1/1 वि सव्वं (सब्ब) 2/1 वि पावं
(पाव) 2/1 वि कम्मं (कम्म) 2/1 झोसेति (झोस) व 3/1 सक 59 सच्चंसि =सत्य में । घिति = धारणा (को)। कुव्वह करो । एत्योवरए
[(एत्य)+ (उवरए)] यहाँ पर, ठहरा हुआ । मेहावी = मेघावी । सव्वं =
सव । पावं = पाप को। कम्म= कर्म को। झोसेति= क्षीण कर देता है । 60 अणेगचित्ते [(अणेग)-(चित्त) 2/2] खलु (अ)= सचमुच अयं (इम)
1/1 सवि पुरिसे (पुरिस) 1/1 से (त) 1/1 सवि केयणं (केयण) 211
अरिहइ (अरिह) व 3/1 सक पूरइत्तए (पूर) हेकृ. 60 अणेगचित्ते = अनेक चित्तों को । खलु सचमुच । अयं = यह ।
1. 'अरिह' के साथ हेकृ या कर्म का प्रयोग होता है । 112 ]
[ आचारांग
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पुरिसे = मनुष्य । से=वह । केयणं चलनी को। अरिहइ =दावा
करता है। पूरइत्तए = भरने के लिए । 61 णिस्सारं (रिणस्सार) 2/1 वि पासिय (पास) संकृ णाणी (णाणि) 8/1
उववायं (उववाय) 2/1 चवणं (चवण) 2/1 रगच्चा (णच्चा) संकृ अनि. अणण्णं (अणण्ण) 2/1 वि चर (चर) विधि 2/1 सक माहणे (माहण) 8/1. से (त) 1/1 सवि ण (अ)= न छरणे (छण) व 3/1 सक छणावए (छणाव) प्रे. व 3/1 सक छणंतं (छण) वकृ 2/1 रणाणुजापति [(ण) + (अणुजाणति)] ण (अ)= न. अणुजाणति (अणुजाण) व 3/1 सक.
61 णिस्सारं = निस्सार को । पासिय= देखकर। गाणी = हे ज्ञानी ।
उववायं जन्म को । चवणं = मरण को । पच्चा =जानकर । अणण्णं = समता को। चराचरण कर। माहणे = हे अहिंसक ! से= वह । रण=न । छणे = हिंसा करता है । छणावए = हिंसा कराता है । छणंतं = हिंसा करते हुए को । पाणुजाणति [(ण)+ (अणुजाणति)] न अनुमोदन करता है।
62 कोधादिमाणं [(कोध) + (आदि)+(माणं)] [(कोघ)-(आदि)-(माण)
2/1] हणिया (हण) संकृ य (अ) = सर्वथा वीरे (वीर) 1/1 वि लोभस्स' (लोभ) 6/1 पासे (पास) व 3/1 सक णिरयं (णिरय) 2/1 महंतं (महंत) 2/1 वि तम्हा (अ) = इसलिए हि (अ) ही विरते (विरत) भूकृ 1/1 अनि वधातो (वघ) 5/1 छिदिज्ज (छिद) व 3/1 सक सोतं (सोत) 2/1 लहुभूयगामी [(लहु)-(भूय) संकृ-(गामि) 1/1 वि]
1. कभी कभी द्वितीया विभिक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग
पाया जाता है । हिम प्राकृत व्याकरण (3-134) 2. पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ट 680
चयनिका ]
[ 113
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62 कोषादिमाणं = ग्रोधादि (को) नया अहंकार को । हणिया नष्ट करके।
य= (अ) =सर्वथा। बोरे = वीर । लोनस्स = लोन का लोभ को। पासे - देखता है । रिसरयं = नरक मय को। महंत= प्रचण्ड को । तम्हा= इसलिए । हि = ही । वीरे- वीर । विरतेमुक्त हृया । वयातो-हिंसा को । हिदिज्ज = नष्ट कर देता है। सोतं= प्रवाह को । लहनूयगामी
हलका होकर, गमन करने वाला। 63 गंयं (गंथ) 2/1 परिणाय (परिग्गा) संकृ इहज्ज [(हो- (अज्ज)]
इह (अ) = यहां, अज्ज (अ) =ग्राज वोरे (वीर) 1/1 वि सोयं (सोय) 21 चरेज्ज (चर) विधि 3/1 नक दते (दंत) 1/1 वि उम्मुग्ग (उम्मुग्ग) मूलगब्द 6/1 लद्धं (ल) संकृ अनि इह (अ) =यहां मारणवेहि (माणव) 3/2 णो (अ) =मत पाणिनी (पाणि) 6/2. पाणे
(पाण) 2/2 समारनेज्जासि (तमारभ) व 2/1 सक 63 गंयं = परिग्रह को । परिणाय =जानकर । इहज्ज =यहां, अाज । वीरे
= वीर । सोयं =प्रवाह को । परिणाय =जानकर । चरेज्ज व्यवहार करे । दंते = आत्म नियन्त्रित । उम्मुग्गवाहर निकलने के। ल = प्राप्त करके । इह यहां । माणवेहि = मनुष्य होने के कारण । गो= मत । पारिगणं प्राणियों के। पारणे प्राणों की। समारनेज्जाति =
हिंसा कर। 64 समयं (समय) 2/1 तत्युवेहाए [(तत्य)+(वेहाए) तत्य (अ) = वहां.
उवेहाए (उवेह) संकृ अप्पाणं (अप्पाण) 2:1 विप्पसादए (वि-प्पसाद) विवि 3/1 सक अणण्णपरमं [(अणण्ण) (परम)] [(अणग)-(परम)
1. प्राकृत में विभक्ति जुड़ते समय दीर्घ स्वर वहुवा पद्य में ह्रस्व हो जाते
हैं । (पिगल : प्राकृत भापात्रों का व्याकरण, पृष्ठ, 182) 2. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हम प्राकृत व्याकरण : 3-137)
114]
[ प्राचारांग
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2 / 1 ] णारी ( णाणि) 1 / 1 विणो ( अ ) = न पमादे ( पमाद) विधि 3 / 1 क कयाs (अ) कभी वि (अ) भी प्रातगुत्ते [ ( आत) - (गुत्त) 1/1 वि] सदा ( अ ) = मदा वीरे (वीर) 1 / 1 वि जातामाताए [ ( जाता ) -
-
स्त्री
1
मात → (माता) 4 / 1 वि] जावए (जाव) विधि 3 / 1 सक विरागं ( विराग ) 2 / 1 रूह' (रुव) 3 /2 गच्छेज्जा ( गच्छ ) विधि 3 / 1 सक महता ( महता ) 3 / 1 वि अनि खुड्डएहि ' ( खुड्डु ) 3 / 2 वि वा (प्र) = और आर्गात (ग्रागति) 2 / 1 गत (गति) 2 / 1 परिष्णाय ( परिण्णा) संकृ दोहि (दो) 3 / 2 वि वि (अ) = ही अंतहि (अंत) 3 / 2 प्रदित्समाणेह ( प्र - दिस्सारण) व कर्म 3/2 अनि से (त) 1 / 1 सवि ण ( अ ) = न. छिज्जति (हिज्जति) व कर्म 3 / 1 सक अनि भिज्जति (भिज्जति) व कर्म 3 / 1 सक अनि उज्झति (उज्झति ) व कर्म 3 / 1 सक अनि हम्मति (हम्मति ) व कर्म 3 / 1 सक ग्रनि कांचणं (प्र) = थोड़ा सा सव्वलोए [(सव्व) - (लो) 7/1]
-
64 समयं = समता को । तत्यु वेहाए [ ( तत्य) + उवेहाए ) ] वहाँ, धारण करके । अप्पाणं = स्वयं को विप्पसादए = प्रसन्न करे । अणण्णपरमं = अद्वितीय, परम को परम के प्रति । रगारगी = ज्ञानी । णो=न । पमादे = प्रमाद करे | कयाइ= कमी | वि= भी। आतगुत्ते = ग्रात्मा से, संयुक्त | सदा = सदा । वीरे = वीर । जातामाताए = यात्रा के लिए। जावए = शरीर का प्रतिपालन करे । विरागं = विरक्ति को । स्वहि = रूपों से | गच्छेज्जा = करे । महता = बड़े से । खुडएहि = छोटे से । वा = और। आगत = आने को । गति = जाने को । परिण्णाय = जानकर । दोहि = दोनों द्वारा । वि= ही | अंतेहि = अन्तों द्वारा । श्रदिस्समार्णोह - समझा जाता हुआ
1
=
1. कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-136)
चयनिका ]
[ 115
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नहीं होने के कारण । से = वह । ण= न । छिज्जति = छेदा जाता है । भिज्जति = भेदा जाता है । उज्झति = जलाया जाता है। हम्मति = मारा जाता है । कंचणं = थोड़ा सा । सव्वलोए = कहीं भी, लोक में ।
1 / 1 विकि ( कि)
=
65 अवरेण (वर) 3 / 1 पुव्वं (पुत्र) 2 / 1 विण ( अ ) = नहीं सरंति (सर) व 3 / 2 सक एगे (एग ) 1/2 सवि किमस्स [ ( किं) + (ग्रस्स)] कि (कि) 1 / 1 स. अस्स (इम) 6 / 1 स ( ) 2 तीतं (तीत) 1 / 1 स वाऽऽगमिस्सं ( (वा) + (आगमिस्सं ) ] वा (प्र) = और. ग्रागमिस्सं ( आगमिस्स ) 1 / 1 वि भासंति ( भास) व 3 / 2 सक इह (प्र) : यहाँ माणवा ( मारणव) 1 / 2 तु ( अ ) = किन्तु जमस्स [ ( जं) --- (ग्रस्स ) ] जं (ज) 1 / 1 सवि. अस्स (इम) 6 / 1 स तं (त) 1 / 1 सवि श्रागमिस्सं ( ग्रागमिस्स ) 1 / 1 वि णातीतमट्ठ [ (ण) + (प्रतीतं) + (श्रट्ट)] ण ( अ ) = नहीं. अतीतं ( प्रतीत ) 2 / 1 वि. श्रट्ठ (अट्ठ) 2 / 1 य (अ) = तथा नियच्छिन्ति ( नियच्छ) व 3 / 2 सक तथागता ( तयागत) 1 / 2 उ ( 2 ) = इसके विपरीत विद्युतकप्पे [ ( विधूत) वि- (कप्प ) 3 7/1] एताणुपस्सी [ ( एत) + (अणुपस्सी ) ] एत ( अ ) = अव. अणुपस्सी (अणुपरिस) 1 / 1 विणिज्भोसइत्ता ( णिज्झोसइत्तु ) 1 / 1 वि
65 अवरेण = भविष्य के ( साथ-साथ ) । पुव्वं = पूर्वगामी को 1 ण = नहीं । सरंति=लाते हैं । एगे = कुछ लोग । किमस्स = [ ( किं) + (ग्रस्स)] क्या, इसका । तीतं = अतीत को । कि = क्या ? वाऽऽगमिस्सं [ (वा) + (आगमिस्सं)] और, भविष्य । भासंति = कहते हैं । एगे = कुछ मनुष्य । इह 1 यहाँ । माणवा = मनुष्य । तु = किंतु । जमस्स [(जं) + (अस्स)] जो,
=
1. 'सह' के योग में तृतीया होती है ।
2. 'अ' का लोप (हेम प्राकृत व्याकरण : 1-66)
3. कभी कभी तृतीया के स्थान पर सप्तमी होती है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-135)
116 ]
[ आचारांग
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इसका । तीतं = प्रतीत । तं = वह । आगमिस्सं = भविष्य । णातीतमट्ठ
I
[(ण) + (प्रतीतं) + (अट्ठ ) ] = न, प्रतीत को, प्रयोजन को । य= तथा । श्रागमिस्सं = भविष्य को । अट्ठ = प्रयोजन को । णियच्छंति = देखते हैं । तथागता = वीतराग उ = इसके विपरीत । विद्युतकप्पे = सम्यक् स्पृष्ट आचरण के द्वारा । एतायुपस्सी [ ( एत ) + श्रणुपस्सी)] अव का, देखने वाला | रिगज्झोसइत्ता = कर्मो का नाश करने वाला ।
तुमं ( तुम्ह ) 1 / 1 स.
=
66 पुरिसा ( पुरिस ) 8 / 1 तुममेव [ (तुम) + (एव) ] एव ( 2 ) = ही तुमं (तुम्ह ) 6 / 1 स मित्तं ( मित्त) 1 / 1 कि (श्र) = क्यों बहिया ( अ ) = बाहर की ओर मित्तमिच्छसि [ ( मित्तं) + ( इच्छसि ) ] मित्तं ( मित्त) 2 / 1. इच्छसि ( इच्छ ) व 2 / 1 सक जं (ज) 2 / 1 सवि जाणेज्जा (जाण) विधि 2 / 1 सक उच्चालयित्त [ (उच्च) + ( चालयितं ) ] [ (उच्च) वि- (आलयित ) ] भूकृ 2 / 1 अनि ] तं (त) 2 / 1 सवि दूरालयितं [ (दूर) + आलयितं ) ] [ (दूर) वि- (आलयित) मूकृ 2 / 1 अनि ] दूरालइतं [(दूर) + (ग्रालइतं ) ] [ (दूर) वि - (ग्रालइत) भूकृ 2 / 1 अनि ]
8
66 पुरिसा ! = हे मनुष्य ! तुममेव [ (तुमं ) + एव ) ] = तू, ही । तुमं = तेरा । मित्तं = मित्र । किं = क्यों । वहिया = बाहर की ओर । मित्तमिच्छसि [ ( मित्तं ) + ( इच्छसि ) ] = मित्र को तलाश करता है । जं = जिसे । जागेज्जा = जानो । उच्चालयितं [ (उच्च) + ( श्रालयितं ) ] = ऊंचे (में) जमा हुया ( को ) । तं = उसे । दूरालयितं = [ (दूर) + (प्रालयितं ) ] = दूरी पर, जमा हग्रा । दूरालइतं [ (दूर) + ( श्रालइतं ) ] = दूरी पर, जमा हुआ |
67 पुरिसा (पुरिस) 8 / 1 अत्ताणमेव ( ( प्रत्ताणं) + (एव) ] ग्रत्ताणं (प्रत्ताण ) 2 / 1. एव ( अ ) = ही श्रभिणिगिज्म ( श्रभिणिगिज्झ ) संकृ अनि एवं (अ) इस प्रकार दुक्खा ( दुक्ख ) 5 / 1 पमोक्खसि ( मोक्खसि ) भवि 2 / 1 कार्प
चयनिका ]
[ 117
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67 पुरिसा! = हे मनुष्य ! अत्ताणमेव [ (अत्ताणं) + (एव)] = मन को, ही।
अभिणिगिज्झ= रोक कर । एवं = इस प्रकार। दुक्खा= दुःख से ।
पमोक्खसि= छूट जायेगा। 68 पुरिसा (पुरिस) 8/1 सच्चमेव [(सच्चं)+ (एव)] सच्चं (सच्च) 2/1.
एव (अ) = ही समभिजाणाहि (समभिजाण) विवि 2/1 सक सच्चस्स (सच्च) 6/1 आणाए (आणा) 7/1 से (त) 1/1 सवि उवहिए (उवट्ठि) 1/1 वि मेधावी (मेवावि) 1/1 वि मारं (मार) 2/1 तरति (तर) व 3/1 सक. सहिते (सहित) 1/1 वि धम्ममादाय [(धम्म) + (आदाय)] धम्म (धम्म) 2/1. आदाय (आदा) संकृ सेयं (सेय) 2/1 वि समणुपस्सति (समणुपस्स) व 3/1 सक दुक्खमत्ताए [(दुक्ख)-(मत्ता) 3/1] पुट्ठो (पुट्ठ) भूकृ 1/1 अनि णो (अ)= नहीं
झंझाए (झंझा) 7/1 68 पुरिसा! =हे मनुष्य ! सच्चमेव [(सच्चं) (एव)] = सत्य को, ही ।
समभिजाणाहि-निर्णय कर । सच्चस्स= सत्य की । आणाए= आज्ञा में । से=वह । उवट्ठिए = उपस्थित । मेघावी= मेधावी । मारं = मृत्यु को। तरति= जीत लेता है । सहिते-सुन्दर चित्तवाला । धम्ममादाय [(धम्म)+ (आदाय)] = धर्म को, ग्रहण करके । सेयं = श्रेष्ठतम को। समणुपस्सति = भली-भांति देखता है। सहिते = सुन्दर चित्तवाला। दुक्खमत्ताए = दुःख की मात्रा से । पुढो= ग्रस्त । णो=
नहीं । झंझाए = व्याकुलता में। 69 जे (ज) 1/1 सवि एगं (एग) 2/1 सवि जाणति (जाण) व 3/1 सक
से (त) 1/1 सवि सव्वं (सव्व) 2/1 वि सव्वतो (अ) = सव ओर से पमत्तस्स (पमत्त) 4/1 वि भयं (भय) 1/1 अप्पमत्तस्स (अप्पमत्त) 4/1 वि पत्थि (अ) = नहीं
एग (एग) मूल शब्द 2/1 रणामे (णाम) व 3/1 सक से (त) 1/1 सवि 118 ]
[ आचारांग
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बहु (बहु) मूल शब्द 2/1 दुक्खं (दुवस) 2/1 लोगस्स (लोग) 6/1 जाणिता (जाण) संकृ वंता (वंता) संकृ अनि. लोगस्स' (लोग) 6/1 संजोगं (संजोग) 2/1 जंति (जा) व 3/2 सक वीरा (वीर) 1/2 वि महाजारणं (महाजाण) 2/1 परेण (क्रिवित्र) = आगे से परं' (क्रिविन) =
आगे को णावखंति [(ण)+ (अवकखंति)] ण (अ) = नहीं. अवकंखंति (अवकंख) व 3/2 सक जीवितं (जीवित) 2/1 एगं (एग) 2/1 सवि विगिचमाणे (विगिच) वकृ 1/1 पुढो (अ) = एक एक करके विगिचइ (विगिंच) व 3/1 सक सड्ढी (सड्ढि) 1/1 वि आणाए (आण) 7/1 मेधावी (मेघावि) 1/1 वि लोगं (लोग) 2/1 च (अ)= ही आणाए (प्राणा) 3/1 अभिसमेच्चा (अभिसमेच्चा) संकृ अनि. अकुतोभयं (अकुतोभय) 1/1 वि अस्थि (अ)= होता है सत्यं (सत्थ) 1/1 परेण (अ)= तेज से. परं (पर) 1/1 वि पत्थि (अ) = नहीं होता है असत्यं (असत्थ)
1/1 69 जे=जो। एगं= अनुपम को । जाणति = जानता है। से = वह । सव्वं =
सब को। सव्वतो= सव ओर से या किसी ओर से । पमत्तस्स= प्रमादी के लिए । भयं = भय । अप्पमत्तस्स-अप्रमादी के लिए। णत्यि-नहीं। एगणामे = एक (को), झुकाता है । बहुणामे = बहुत (को), झुकाता है । दुक्खं = दुःख को। लोगस्स = प्राणी-समूह के । जाणित्ता= जानकर । वंता-वाहर निकाल कर। लोगस्स = संसार का-संसार के प्रति । संजोगं ममत्व को । जति= चलते है। वीरा-वीर । महाजाणं- महा
1. कभी कभी सप्तमी के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया जाता
है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 2. जा-जान्ति-जन्ति (हेम प्राकृत व्याकरण : 1-84) 3. कर्म, करण और अधिकरण के एक वचन के 'पर' शब्द के रूप क्रिया
विशेपण की भांति प्रयोग किए जाते हैं ।
चयनिका ]
[ 119
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पथ को — महापथ पर । परेण = आगे से । परं = आगे को । जंति = चलते
-
जाते हैं। णावकंति [ (ण) + (श्रवकंखंति ) ] = नहीं, चाहते हैं । जीवितं जीवन को । एगं = केवल मात्र को । विगिचमाणे = दूर हटाता हुया । पुढो = एक एक करके । विगिचइ = दूर हटा देता है । सड्ढी = श्रद्धा रखने वाला । आणाए = श्राज्ञा में । मेधावी = शुद्धबुद्धि वाला । लोगं = प्रारणी-समूह को । चही । आणाए = श्राज्ञा से । अभिसमेच्चा = जानकर | अकुतोभयं = निर्मय । अत्थि = होता है । सत्यं = शस्त्र । परेण = तेज से । परं = तेज । णत्थि = नहीं होता है । असत्यं = शस्त्र । (त) 1 / 1
(
( माय ) -
पेज्जदंसी
1 / 1 वि | से
|
मायदंसी
1 / 1 वि]
70 जे (ज) 1 / 1 सवि कोहदंसी ( ( कोह) - ( दंसि ) सव | माणदंसी [ ( माण ) - ( दंसि ) 1 / 1 वि ] ( दंसि ) 1 / 1 वि) लोभदंसी [ (लोभ) - ( दंसि ) [ ( पेज्ज) - ( दंसि ) 1 / 1 वि] दोसदंसी [ ( दोस ) - ( दंसि ) 1 / 1 वि] मोहदंसी [ ( मोह) - ( दंसि ) 1 / 1 वि] दुक्खदंसी [ ( दुक्ख ) - ( दंसि ) 1/1 fa]
70 जे = जो । कोहदंसी = क्रोध को समझने वाला । से = वह | माणदंसी = अहंकार को समझने वाला । मायदंसी = मायाचार को समझने वाला । लोभदंसी = लोभ को समझने वाला । पेज्जदंसी = राग को समझने वाला | दोसदंसी = द्वेष को समझने वाला । मोहदंसी = आसक्ति को समझने वाला । दुक्खदसी = दुःख को समझने वाला ।
71 किमत्थि [ ( किं) + (श्रत्थि ) किं (अ) = क्या. अत्थि (अ) = है उवधी ण ( अ ) = नहीं विज्जति ( विज्ज) (अ ) = इस प्रकार बेमि (बू) व
( उवधि) 1 / 1 पासगस्स ( पासग) 6 / 1 व 3 / 1 अक णत्थि (अ ) = नहीं है त्ति 1 / 1 सक.
।
71 किमत्थि [ ( किं) - ( प्रत्थि ) ] क्या ?, है द्रष्टा का । ण = नहीं । विज्जति = है । प्रकार | बेमि = कहता हूँ ।
120 ]
उवधी = नाम । पासगस्स =
=
नहीं है । त्ति = इस
णत्थि :
1=
[ आचारांग
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--------------------------------------------------------------------------
________________
72 सव्वे ( सव्व) 1/2 वि पाणा (पारण) 1/2 भूता (भूत) 1/2 जीवा (जीव ) 1/2 सत्ता (सत्त) 1 / 2 ण ( अ ) = नहीं हंतव्वा (हंतव्वा) विधि कृ 1 / 2 अनि अज्जावेतव्वा (अज्जाव ) विधि कृ 1/2 परिपेत्तव्वा (परिघेत्तव्वा ) विधि कृ 1/2 अनि परितावेयव्वा ( परिताव) विधि कृ 1/2 उद्दवेयव्वा (उद्दव) विधि कृ 1 / 2
एस ( एत) 1 / 1 सवि धम्मे (धम्म) 1 / 1 सुद्धे (सुद्ध) 1 / 1 वि णितिए ( रिणति ) 1 / 1 वि सासए (सास) 1 / 1 वि समेच्च ( समेच्च) संकृ अनि लोयं (लोय) 2/1 खेतेोह (खेतण्ण) 3 / 2 पवेदिते (पवेदित) मूकृ 1 / 1 अनि
72 सव्वे = कोई भी । पाणा = प्राणी । भूता = जन्तु । जीवा = जीव । सत्ता = प्रारणवान् । ण = नहीं । हंतव्वा = मारा जाना चाहिए । अज्जावेतव्वा = शासित किया जाना चाहिए । परिघेत्तव्वा = गुलाम बनाया जाना चाहिए | परितावेयव्वा = सताया जाना चाहिए । उद्दवेयव्वा : प्रशान्त किया जाना चाहिए । एस = यह । धम्मे = धर्म सुद्धे = शुद्ध । णितिय = नित्य | सासए = शाश्वत । समेच्च = जानकर । समूह को । खेतेोहि = कुशल द्वारा । पवेदिते = कथित |
=
।
लोयं = जीव
73 णो (ग्र ) = न लोगस्सेसरगं [ (लोगस्स ) + (एसणं ) ] लोगस्स े (लोग) 6 / 1 एसणं (एसणा) 2 / 1 चरे (चर) विधि 3 / 1 सक
73 णो = न | लोगस्सेसरगं [ (लोगस्स ) + एसणं ) ] इच्छा को । चरे = करे |
लोक के—लोक के द्वारा,
74 णाऽणागमो [ (रणा ) + (श्ररणागमो ) ] णा ( अ ) = नहीं. श्ररणागमो (अरणागम) 1/1 मच्चुमुहस्स' [ ( मच्चु ) - (मुह ) 6 / 1] अस्थि (अ) है. इच्छापणीता
*
1. कभी कभी सप्तमी के स्थान पर पष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है । ( हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134 )
चयनिका ]
[ 121
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ( इच्छा ) - (पणीत ) भूकृ 1/2 श्रनि) वंकाणिकेया [ अंक (का) -
--
→
(णिकेय 1 / 2] कालग्गहीता | (काल) - (ग्गहीत ) भूकृ 1/2 श्रनि ] णिचये ( णिचय) 7/1 णिविट्ठा (रिगविट्ठ) 1/2 वि पुढो पुढो (प्र) = श्रलग लग जाई (जाइ) 2/1 पकप्पैति (पकप्प) व 3/2 सक
---
74 णाणागमो [ (णा) + (श्रणागमो ) ] नहीं, न श्राना । मच्चुमुहस्स = मृत्यु (के) मुख का मुख में । अस्थि = है । इच्छापणीता = इच्छात्रों द्वारा, उपस्थित | वंकाणिकेया = कुटिल, घर । कालग्गहोता = मृत्यु (के द्वारा ) पकड़े हुए। णिचये = संग्रह में । णिविट्ठा = श्रासक्त | पुढो पुढो - अलग अलग । जाई = जन्म को । पकप्पैति = धारण करते हैं ।
वि
श्रणुवियि = अणुविइ
सक शिक्खित्तदंडा
75 उवेहेणं [ ( उबेह) + (इणं)] उवेह ( उवेह) विधि 2 / 1 सक इ ( इम) 2 / 1 सवि वहिता ( अ ) = वाहर य ( अ ) = ओर लोक (लोक) 2/1 से (त) 1 / 1 सवि सव्य लोकंसि [ ( सव्व ) - ( लोक 7/1] जे (ज) 1/1 सवि केइ (श्र) = कोई विष्णु (विष्णु) 1 / 1 ( अ ) = बड़ी सावधानी से पास ( पास ) विधि 2 / 1 [ (रिक्खित्त) भूकृ अनि = (दंडा ) 1 / 2] जे (ज) 1 / कोइ सत्ता (सत्त) 1/2 पलियं (पलिय ) 2 / 1 चयंति (चय) व 3 / 2 सक परा (गर) 1/2 मुतच्चा [ ( मुत) = (प्रच्चा ) ] [ ( मुत भूकृ अनिअच्चा ) 1 / 2] धम्मविदु [ ( धम्म) = ( विदु) भूलशब्द 1/2 वित्ति (अ) = और अंजू (अंजू ) 1/2 वि आरंभजं (प्रारंभज 1 / 1 वि दुक्खमिण
1
सवि केइ (
)
=
1. समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर हस्व हो जाते हैं । (हेम प्राकृत व्याकरण: 1-4)
2-3. कभी कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-137)
122 ]
[ आचारांग
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________________
[(दुक्खं) + (इणं)] दुक्खं ( दुक्ख ) 1/1 इणं (इम) 2 / 1 सवि वि (अ) - इस प्रकार णच्चा (गच्चा) संकृ अनि एवमाहु [ ( एवं ) + (आहु ) [ एवं (अ) = ऐसा आहु ( चाहु) सू 3 / 1 आर्प सम्मत्तसिणी ( सम्मत्तदंसि ) 1 / 2 ते (त) 1 / 2 सवि सव्वे (सव्व) 1 / 2 सवि पावादिया (पावादिय) 1 / 2 विदुक्खस्स ( दुक्ख 6/1 कुसला ( कुसल ) 1/2 परिष्णमुदाहरति [ ( परिणं) + (उदाहरंति)] परिण्णं (परिण्णा) 2 / 1 उदाहरंति ( उदाहर) व 3 / 2 सक इति (श्र) = इस प्रकार कम्मं (कम्म) 2 / 1 परिण्णाय (परिण्णा) संकृ सव्वसो (अ) + सव्वसो
75 उवेहेणं [(उवेह) + (इ) = समझ, इसको - इस में । वहिता = बाहर । य = ठीक | लोकं = लोक को - लोक में । से = वह । सव्वलोकंसि समस्त, लोक में । जे= जो । केइ = कोई । विष्णू = बुद्धिमान् । श्रणुवियि = बड़ी सावधानी से । पास = समझ । णिक्खित्तदंडा=छोड़ दी गई, हिंसा । जे = जो । केइ = कोई | सत्ता = प्रारणी । पलियं = कर्म - समूह को । चर्यति = दूर हटाते हैं ।
=
=
गरा = मनुष्य । मुतच्चा [ ( मुत) + (श्रच्चा ) ] समाप्त हुई, चित्तवृत्तियाँ । धम्मविदु = अध्यात्म, जानकार । त्ति = और। अंजू = सरल | आरंभजं= हिंसा से उत्पन्न । दुक्ख मिणं [ ( दुक्खं) + (इणं ) ] दुःख, इस को । वि इस प्रकार । णच्चा = जानकर । एवमाह [ ( एवं ) + (ग्रा)] ऐसा, कहा । सम्मत्तदं सिणो: = समत्व दशियों ने । ते = वे । सव्वे = सभी। पावादिया = व्याख्याता | दुक्खस्स = दुःख के । कुसला - कुशल । परिण्णमुदाहरति [ ( परिणं) + (उदाहरति ) ] = ज्ञान को, कथन करते हैं । इति = इस प्रकार । कम्मं = कर्म - समूह को । परिण्णाय = जानकर । सव्वसो = सव प्रकार से ।
76 इह (प्र) = यहाँ श्राणाकंखी [ ( श्रारणा ) - (कंखि ) 8 / 1 वि] पंडिते (पंडित) 8 / 1 वि अणि (रिह) 1 / 1 वि एगमप्पाणं [ (एग ) + (अप्पाणं ) ]
चयनिका ]
[ 123
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--------------------------------------------------------------------------
________________
एग (एग) 2/1 वि. अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 सपेहाए (संपेह-संपेह') संकृ धुणे (धुण) विधि 2/1 सक सरीरं (सरीर) 2/1 फसेहि (कस) विधि 2/1 सक जरेहि (जर) विधि 2/1 अक अप्पाएं (अप्पाण) 21 जहा (अ)=जैसे जुम्नाई (जुन्न) 2/1 वि कट्ठाई (कट्ठ) 2/2 हव्यवाहो (हन्ववाह) 1/1 पमत्यति (पमत्य) व 3/1 सक एवं (अ)% इसी प्रकार अत्तसमाहित [(अत्त)-(समाहित) 1/1 वि अणिहे (अणिह) 1/1 वि.
76 इह = यहां । आणाकंखो-हे आज्ञा का इच्छुक । पंडिते= बुद्धिमान् ।
अणिहे = अनासक्त । एगमप्पाणं [(एग)+ (अप्पाणं)] = अनुपम को, आत्मा को । सपेहाए=देखकर । पुणे दूर हटा। सरीरं शरीर को । कसेहि = नियन्त्रित कर । अप्पाणं = अपने को। जरेहि = घुल जा। अप्पाणं =आत्मा में । जहा=जैसे । जुन्नाई - जीर्ण को । कट्ठाई = लकड़ियों को। हव्ववाहो= अग्नि । पमत्यति = नष्ट कर देती है। एवं = इसी प्रकार । अत्तसमाहिते= आत्मा (में), लीन । अणिहे = अनासक्त ।
77 विगिच= (विगिच) विधि 2/1 सक कोहं (कोह) 2/1 अविकपमाणे
(अविकंप) वकृ 1/1 इमं (इम) 2/1 सवि निरुद्धाउयं [(निरुद्ध)+ (आउयं)] [(निरुद्ध) भूकृ अनि-(आउय) 1/1] सपेहाए (सपेहा) संकृ. दुक्खं (दुक्ख) 2/1 च (अ) = और जाण (जाण) विधि 2/1 सक अदुवाऽऽगमेस्सं [(अदुवा)+ (आगमेस्स)] अदुवा = अथवा आगमेस्सं (आगमेस्स) 2/1 वि पुढो (अ) = विभिन्न फासाई (फास) 2/2 च (अ)
=तथा फासे (फास) व 3/1 सक लोयं (लोय) 2/1 च (अ)-और पास (पास) विधि 2/1 सक विष्फंदमाणं (विप्फंद) व 2/1 जे (ज)
1. स=सं। 2. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हम प्राकृत व्याकरण : 3-137)
124 ]
[ आचारांग
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________________
1/2 सवि णिन्वुडा (रिणव्वुड) भूक 1/2 अनि पहि' (पाव) 3/2 कम्मेहि' (कम्म) 3/2 अणिदाणा (अणिदाण) 1/2 वि ते (त) 1/2 सवि वियाहिता (वियाहित) भूकृ 1/2 अनि तम्हाऽतिविज्जो [(तम्हा) +(अतिविज्जो)] तम्हा-इसलिए अतिविज्जो (अतिविज्ज) 1/1 वि णो मत पडिसंजलेज्जासि (पडिसंजल) विधि 2/1 सक ति (अ)=
इस प्रकार वेमि (बू) व 1/1 सक 77 विगिच = छोड़ । कोहं = क्रोध को । अविकंपमाणो= निश्चल रहता हुआ।
इमं = इस को । निरुद्धाउयं [(निरुद्ध)+ (प्राउयं)] सीमित, आयु । सपेहाए = समझकर। दुक्खं दुःख को। च= और । जाण= जान । अदुवागमेस्सं [(अदुवा)+ (आगमेस्स)] अथवा, आगामी को । पुढो= विभिन्न । फासाई = दुःखों को। च= तथा । फासे प्राप्त करता है। लोयं = लोक को । च=और । पास = देख । विष्फंदमाण = तड़फते हुए। जे-जो । णिचुडा=मुक्त । पार्वेहि = पापों द्वारा-पापों से । कम्मेहि= कर्मों द्वारा→कर्मों से। अणिदाणा=निदानरहित । ते=वे। वियाहिता= कहे गये। तम्हाऽतिविज्जो [(तम्हा) + (अतिविज्जो)] इसलिए, महान ज्ञानी। णो मत । पडिसंजलेज्जासि = उत्तेजित कर। ति=
इस प्रकार । वेमि = कहता हूँ। 78 ऐहि' (णेत्त) 3/2 पलिछिण्णेहिं (पलिछिण्ण) भूकृ 3/2 अनि
आताणसोतगढिते [(आताण)-(सोत)-(गढित) 1/1 वि] वाले (बाल) 1/1 वि अन्वोच्छिण्णवंधणे [(अब्बोछिन्न) वि-(वधण) 1/1] अणभिक्कं
तसंजोए [(अणभिक्कंत) वि-(संजो) 1/1] तमंसि (तम) 7/1 1. कभी कभी पंचमी के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता
है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-136) 2. पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण : पृ. 681. 3. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग
पाया जाता है । (हम प्राकृत व्याकरण : 3-137) 4. यहाँ 'आयाण' पाठ होना चाहिए। चयनिका ]
[ 125
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अविजाणओ ( श्रविजाणत्र) 1 / 1 वि आणाए (ग्राणा) 6/1 लंभो (लंभ) 1 / 1 णत्यि ( अ ) = नहीं त्ति (प्र) = इस प्रकार बेमि (बू) व 1 / 1 सक. 78 सत्त हि = नेत्रों के द्वारा नेत्रों के होने पर । पलिद्दिेहि = परिसीमित । श्राताणसोतगढिते = इन्द्रियों (के), प्रवाह (में), ग्रासक्त । वाले = अज्ञानी । अस्वोच्छिष्णवंध = बिना टूटे हुए, कर्म वन्वन । अणमिक्कतसंजोए = विना नष्ट हुए, संयोग । तमंसि = अन्धकार के प्रति । अविजाणओ : अनजान । आणाए = उपदेश का । लंभो=लाम । णत्यि = नहीं | त्ति = इस प्रकार । वेमि = कहता हूँ ।
(प्र) = पूर्व में
6
/ 1 स कुश्रो
से (त) 1 / 1
79 जस्स (ज) 6/1 स णत्थि ( अ ) = विद्यमान नहीं पुरे पच्छा ( ) = वाद में मज्झे (मज्झ ) 7/1 तस्स (त) (अ) = कहाँ से ? सिया' (सिया) विधि 3 / 1 ग्रक अनि सवि हु (प्र) = ही पन्नाणमंते ( पन्नाणमंत ) 1 / 1 वि बुद्धे (बुद्ध) 1 / 1 आरंभोवरए [ ( आरंभ) + (उवरए ) ] [ (प्रारंभ ) - ( उवरय) नूकृ 1 / 1 अनि ] सम्ममेतं ( ( सम्म) + ( एवं ) ] सम्म (सम्म) 1 / 1 वि एतं ( एत) 2 / 1 सति = इस प्रकार पासहा" (पास) विधि 2/2 सक जेण (अ) = जिसके कारण बंधं (वंघं) 2 / 1 व (वह) 2 / 1 घोरं (घोर) 2 / 1 वि परितावं (परिताव) 2/1 च (प्र) = श्रोर दारुणं (दारुण) 2/1 पछि दिय (पलिदि) संकृ वाहिरंग ( वाहिरंग) 2 / 1 विच (प्र) = और सोतं (सोत) 2 / 1 णिक्कम्मदंसी [ ( णिक्कम्भ ) - ( दंसि ) 1/1 वि] इह = यहाँ मच्चिएहि (मच्चित्र ) 3 / 2 कम्मुणा (कम्म) 3 / 1 सफलं
1. पिशल : प्राकृत भाषानों का व्याकरण पृष्ठ 685
2. पिशल : प्राकृत भाषायों का व्याकरण : पृष्ठ 136
3. कभी कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-137)
4. कभी कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-137)
126 1
[ आचारांग
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________________
[(स)-(फल) 2/1] दट्टे (दठ्ठ) संकृ ततो (अ) इसलिए णिज्जाति'
(णी) व 3/1 सक वेदवी (वदवि) 1/1 वि ।। 79 जस्स = जिसके । एत्यि = विद्यमान नहीं। पुरे पूर्व में । पच्छा = बाद
में। मज्झ= मध्य में। तस्स = उसके । फुओ= कहाँ से ? सिया= हो-होगी। से= वह । हुम्ही । पन्नाणमंते-प्रज्ञावान् । बुद्ध = बुद्ध । आरंभोवरए (प्रारंभ)+(उवरए)] हिंसा से, विरक्त । सम्ममेतं [(सम्म+ (एतं)] =सत्य, यह । जेण= जिसके कारण । बंधं-कर्म-बंधन को । वह = हत्या को-हत्या में । घोरं घोर (को)। परितावं-दुःख को। चौर । पलिछिदिय-हटा कर । वाहिरगंवाहर की ओर । च= ही। सोतं = ज्ञानेन्द्रिय-समूह को । णिक्कम्मदंसी-निष्कर्म को अनुभव करने वाला । इह = यहाँ । मच्चिएहिमनुष्यों में से । कम्मुणा= कर्म के साथ । सफलं फल को। द देखकर । ततो इसलिए । पिज्जाति = दूर ले जाता है । वेदवी=समझदार । 80 जे (ज) 1/2 सवि खलु (अ)= निश्चय ही भो= अरे ! वीरा (वीर)
1/2 समिता (समित) 1/2 वि सहिता (सहित) 1/2 वि सदा (अ)= सदा जता (जत) भूकृ 1/2 अनि संथडदसिणो [(संथड)-(दंसि) 1/2 वि पातोवरता [(प्रात)+ (उवरता)] अहातहा (अ) = उचित प्रकार से लोगं (लोग) 2/1 उवेहमाणा (उवेह) वकृ 1/2 पाईणं (पाईणा) 2/1 पडीणं (पडीणा) 2/1 दाहिणं (दाहिणा) 2/1 उदीणं (उदीणा) 2/1 इति = अत : सच्चंसि (सच्च) 7/1 परिविचिट्ठिसु
(परिविचिट्ठ) भू 3/2 आर्ष 80 जेजो । खलु निश्चय ही । भो=अरे ! वीरा-वीर । समिता
रागादिरहित । सहिता= हितकारी । सदा सदा । जता-जितेन्द्रिय । संथडदंसिणो= गहरी अनुभूतिवाले । पातोवरता शरीर से विरत ।
1. हेम प्राकृत व्याकरण : 3-158
चयनिका ].
[ 127
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________________
अहातहा उचित प्रकार से । लोग = लोक को।उघेहमाणा= जानते हुए। पाईणं = पूर्व दिशा को-पूर्व दिशा में। पडीणं = पश्चिम दिशा को पश्चिम दिशा में। दाहिणं = दक्षिण दिशा को दक्षिण दिशा में। उदी] = उत्तर दिशा को उत्तर दिशा में । इति = अतः। सच्चंसि (सच्च)
7/1 परिविचिद्विसु-स्थित हुए। 81 गुरू (गुरु) 1/1 वि से (त) 6/1 स कामा (काम) 1/2 तत्तो (अ) =
इसलिए से (त) 1/1 सवि मारस्स (मार)6/1 अंतो (अंत) 1/1 वि
जतो (अ) = चूंकि से (त) 1/1 सवि दूरे (अ)= दूर 81 गुरू =तीव्र । से- उसकी। कामा= इच्छाएँ । ततो इसलिए । से
वह । मारस्स-अनिष्ट, अहित । अंतो- समीप । जतो= चूंकि । से वह । मारस्स= अनिष्ट, अहित । अंतोसमीप । ततो इसलिए।
से वह । दूरे-दूर। 82 रणेव = नहीं से (त) 1/1 वि अंतो (अंत) 1/1 वि दूरे (अ)-दूर से(त)
1/1 वि पासति (पास) व 3/1 सक फुसितमिव [(फुसितं)+ (इव)] फुसितं (फुसित) 1/1 इव (अ)= की तरह कुसग्गे ! (कुस)+ (अग्गे)] [(कुस)-(अग्ग) 7/1] पणुण्ण (पणुण्ण) भूकृ 1/1 अनि गिवतितं (णिवतित) भूकृ 1/1 अनि वातेरितं [(वात)+(ईरित)] [(वात+ (ईरित)भूकृ 1/1 अनि)] एवं (अ) = इस प्रकार बालस्स (बाल) 6/1 वि जीवितं (जीवित) 1/1 मंदस्स' (मंद 6/1 वि अविजाणतो (अवि
जाण) पंचमी अर्थक 'तो' प्रत्यय । 82 रणेव = नहीं । से= वह । अंतो= समीप रणेव = नहीं । से=वह । दूरे =
दूर । से = वह । पासति = देखता है । फुसितमिव [(फुसित)+ (इव)] = जल-विन्दु, की तरह । कुसग्गे [(कुस) + (अग्गे)]=कुश के, नोक पर । 1. पणण्ण- (पणुन्न) भूक । 2. 'गमन' अर्थ में द्वितीया होती है। 3. कभी कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया विभक्ति के स्थान पर
होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-134)
128 ]
[ आचारांग
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________________
पणुण्णं = मिटाए हुए । णिवतितं नीचे गिरते हुए । वातेरितं [(वात)+ ईरित)] =वायु द्वारा, हिलते हुए । एवं = इस प्रकार । वालस्स= मूर्ख के - मूर्ख के द्वारा। जीवितं =जीवन । मंदस्स= अज्ञानी का अज्ञानी
के द्वारा । अविजाणतो नहीं जानने से। 83 संसयं (संसय) 2/1 परिजाणतो (परिजाण) पंचमी अर्थक 'तो' प्रत्यय
संसारे (संसार) 1/1 परिण्णाते (परिण्णात) भूकृ 1/1 अनि भवति (भव) व 3/1 अक अपरिजाणतो (अपरिजाण) पंचमी अर्थक 'तो'
प्रत्यय अपरिग्णाते (अपरिण्णात) भूक 1/1 अनि 83 संसयं =संशय को । परिजाणतो समझने से । संसारे संसार ।
परिण्णाते =जाना हुआ । भवति= होता है। अपरिजाणतो नहीं
समझने से । अपरिण्णाते =जाना हुआ नहीं। 84 उद्विते (उद्वित) भूकृ 1/1 अनि. गो (अ)=नहीं पमादए (पमाद) व)
3/1 अक 84 उढिते प्रगति किया हुआ। णो= नहीं । पमादए = प्रमाद करता है। 85 से (अ)=वाक्य की शोभा पुव्वं (अ)= पहले पेतं (पेत) भूकृ 1/1
अनि पच्छा (अ)= बाद में मेउरधम्म [(भेउर) वि-(धम्म) 1/1] विद्धसणघम्म [(विद्धसण)-(धम्म) 1/1] अधुवं (अधुव) 1/1 वि अणितियं (अणितिय) 1/1 वि असासतं (असासत) 1/1 वि चयोवचइयं [(चय)+ (प्रोवचइय)] [(चय)-(प्रोवचइए-अवचइय) 1/1 वि विप्परिणामघम्म [(विप्परिणाम)-(धम्म) 1/1] पासह (पास) विधि
2/2 सक एयं (एय) 2/1 सवि स्वसंघि [(रूव)-(संघि) 2/1]. 85 से = वाक्य की शोभा । पुव्वं = पहले । पेतं = छूटा । पच्छा=बाद में ।
भेउरधम्म = नश्वर, स्वभाव । विद्ध सणधम्म=विनाश, स्वभाव ।
अधुर्वअध्र व । अणितिय = अनित्य । असासतं अशाश्वत । चयोवचइयं चयनिका ]
[ 129
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________________
[(चय) + (प्रोवचइयं)] =बढने वाला, क्षम वाला। विप्परिणामधम्म - परिणमन, स्वभाव । पासह = देखो। एवं इसको। स्पसंधि = देहसंगम को।
स्त्री 86 आवंती' केसावंती (प्रावंत-प्रावंती केसावंत-केयावती) 1/2 वि
लोगंसि (लोग) 7/1 परिगहावेतो (परिग्गहावंत-परिगहावंती) 1/2 वि से (त) 1/1 सवि अप्पं (अप्प) 2/1 वि वा (अ)=या बहुं (वह) 2/1 वि अणु (अणु) 2/1 वि धूलं (थूल) 2/1 वि चित्तमंतं (चित्तमंत) 2/1 वि अचित्तमंतं (अचित्तमंत) 2/1 वि एतेसु (एत) 7/2 चेव (घ) =ही परिग्गहावंती (परिग्गहावंत-परिग्गहावंती) 1/1 वि एतदेवेगेसि [(एतदेव)+ (एगेसिं)] एतदेव (अ)=इसलिए ही एगेनि' (एग) 6/2 महन्मयं (महन्भय) 1/1 भवति (भव) व 3/1 अक लोगवित्तं (लोग) -(वित्त) 2/1] च (अ)=ही णं (अ)=वाक्यालंकार उवेहाए (उवेह) संकृ एते (एत) 2/2 सवि संगे (संग) 2/2 अविजाणतो (अविजाण)
पंचमी अर्थक 'तो' प्रत्यय । 86 आवंती केमावंती=जितने । लोगंसिलोक में । परिग्गहावंती
परिग्रह-युक्त । से वह । अप्पं थोडी (को)। वा-या। बहुं बहुत (को)। अणु-छोटी (को)। पूलं = बड़ी (को)। चित्तमंतं = सजीव (को)। अचित्तमंतं निर्जीव (को)। एतेसु=इनमें ही। चेव =ही। परिगहावंती= ममता-युक्त । एतदेवेगेसि=[(एतदेव)+एगेति)] इसलिए ही, कई में। महन्भयं-महाभय । भवति उत्पन्न होता है ।
स्त्री 1. जावंत आवंत अवंती। 2. कभी कभी पष्ठी विभक्ति का प्रयोग सप्तमी के स्थान पर किया
जाता है : (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 130 ]
[ आचारांग
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लोगवित्तं = लोक श्राचरण को । इन । संगे = आसक्तियों को । अविजाणतो
चही । उवेहाए = देखकर । एते : नहीं जानने से ।
87 से ( अ ) = वाक्य की शोभा सुतं (सुत) भूकृ 1 / 1 अनि च (प्र) = और मे (श्रम्ह ) 3 / 1 स अज्झत्यं ( अज्झत्थ ) 1/1. बंधपमोक्खो [ ( बंघ) - ( पमोक्ख ) 1 / 1] तुज्झऽज्झत्येव [ ( तुज्झ ) + (अज्झत्थ) + (एव) ] तुज्झ ( तुम्ह) 6 / 1 स. अज्झत्य (अज्झत्य) मूलशब्द 7 / 1. एव ( अ ) = ही.
87 से = वाक्य की शोभा । सुतं = सुना गया। मे मेरे द्वारा । च = श्रर । अज्झत्थं = श्रात्म-संबंधी । बंध पमोक्खो बंघ, मोक्ष । तुज्झऽज्झत्येव [ ( तुज्झ ) + (अज्झत्य) + (एव) ] तेरे, मन में, ही ।
88 समिया (समिया) 7 / 1 पवेदिते (पवेदित) भूकृ 1 / 1 अनि.
-
धम्मे ( धम्म) 1 / 1 आरिएहि ( श्रारि) 3/2
88 समियाए = समता में । धम्मे = धर्म । आरिएहि = तीर्थंकरों द्वारा । पवेदिते = कहा गया ।
चयनिका ]
89 इमेण' (इम) 3/1 चेव ( अ ) = ही जुज्झाहि (जुज्झ ) विधि 2 / 1 अक कि ( कि) 1/1 से ते (तुम्ह) 4 / 1 स. जुज्भेण ( जुज्झ ) 3 / 1 वज्झतो ( अ ) = बाहर से जुद्धारिहं [ ( जुद्ध) + (अरिहं) ] [ ( जुद्ध ) - (अरिह) 1 / 1 वि] खलु ( प्र ) = निश्चय ही दुल्लभं (दुल्लभ) 1 / 1 वि 89 इमेण = इसके साथ । चेव ही । जुज्झाहि = युद्ध कर । किं = क्या लाभ ? ते = तुम्हारे लिए । जुज्भेण = युद्ध करने से । बज्झतो = वाहर से । जुद्धारिहं [( जुद्ध) + (अरिहं) ] युद्ध करने के, योग्य । खलु = निश्चय ही । दुल्लभं दुर्लभ |
--
1. 'सह' के योग में तृतीया होती है ।
[ 131
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90 जं (ज) 1/1 सवि सम्मं (सम्म) 1/1 सि (प्र)=इस प्रकार पामहा'
(पास) विधि 2/2 सक तं (त) 1/1 मवि मोणं (मोण) 2/1 ति (अ)-अतः जं (ज) 1/1 सवि मोणं (मोरण) 2/1 ति (प्र)-इस प्रकार तं (त)
1/1 सवि सन्म (सम्म) 2/1 ति (अ)-प्रतः 90 जंजो । सम्म=समता । ति= इस प्रकार । पासहा=जानो। तं=
वह । मोणं मौन को-मीन में। ति =ग्रतः । पामहासमनो। जंजो । मोणं मौन को-मोन में। ति= इस प्रकार। पासहा= जानो । तंवह । सम्मं समता को-समता में । ति-प्रतः।
पासहा-समझो। 91 उण्णतमाणे [(उण्णत')-(माण) 7/1] य (अ) ही परे (गर) 1/1
महता (महता) 3/1 वि अनि मोहेण (मोह) 3/1 मुमति (मुज्न)
व 3/1 अक 91 उग्णतमाणे-उत्थान का, अहंकार होने पर । य-ही। गरे मनुष्य ।
महता तीव्र । मोहेण=मोह के कारण । मुज्झति = मूढ बन जाता है । 92 वितिगिछसमावन्नेणं [(वितिगिछ)-(समावन्न) 3/1 वि] अप्पारण 1. क्रिया के आज्ञाकारक रूप में अन्तिम 'अ' को दीर्घ किया जाता है।
(पिशल: प्रा. भा. व्या. पृष्ठ, 136) 2. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग
पाया जाता है । (हम प्राकृत व्याकरण : 3-137) 3. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग
पाया जाता है । (हम प्राकृत व्याकरणः 3-137) 4. यहाँ 'उण्णत' शब्द संज्ञा है। विभिन्न कोश देखें। 5. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग __ पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137)
132 ]
[ आचारांग
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(अप्पाण) 3/1 णो (भ) =नहीं लभति (लभ) व 3/1 सक समाधि
(समाधि) 2/1 92 वितिगिछ समावन्नेणं-सन्देह के कारण, गहण किए हुए । अप्पाणेणं=
मन के द्वारा मन में। णो नहीं। लभति प्राप्त नहीं कर पाता
है। समाधि-समाधि को। 93 से (अ)= वाक्य की शोभा उद्वितस्स (उठित) भूक 6/1 अनि ठितस्स
(ठित) भूक 6/1 अनि गति (गति) 2/1 समणुपासह (समणुपास) विधि 2/2 सक एत्य (अ)=यहां वि (अ)= विल्कुल वालभावे (िवाल)-(भाव) 7/1] अप्पाणं (अप्पारण) 2/1 णो (अ)=मत
उवदंसेज्जा (उवदंस) विधि 2/1 सक 93 से वाक्य की शोभा । उद्वितस्स-प्रगति किए हुए की। ठितस्स =
दृढता पूर्वक लगे हुए की। गति=अवस्था को। समणुपासह = देखो । एत्य = यहाँ । वि= विल्कुल । वालभावे = मूच्छित, अवस्था में ।
अप्पाणं = अपने को । णो=मत । उवदंसेज्जा=दिखलायो। 94 तुमं (तुम्ह) 1/1 स सि (अस) व 2/1 अक णाम (अ)=निस्सन्देह तं
(त) 1/1 सवि चेव (अ)=ही जं (ज) 2/1 स हंतव्वं (हंतव्व) विधिक 1/1 अनि ति (अ)= देख ! मण्णसि (मण्ण) व 2/1 सक अज्जावेतन्वं (अज्जाव) विधिक 1/1 परितावेतव्वं (परिताव) विधिक 1/1 परिघेतव्वं (परिघेतव्व) विधिक 1/1 अनि उद्दवेतन्वं (उद्दव) विधिक 1/1
__ अंजू (अंजु) 1/1 वि चेयं (अ) ही पडिवुद्धजीवी [(पडिवुद्ध) वि-(जीवि) 1/1 वि] तम्हा (अ)=इसलिए ण (अ)= न हंता (हंतु) 1/1 वि (अ)=ही घातए (धात) व 3/1 सक अणुसंवेयणमप्पारणेणं [(अणुसंवेयणं)+(अप्पाणेणं)] अणुसंवेयणं (अणुसंवेयण) 1/1. अप्पाणेणं (अप्पाण) 3/1 जं (ज) 2/1 स हंतव्वं (हंतव्वं) विधिक 1/1 अनि
चयनिका ]
[ 133
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णाभिपत्यए [(ण)+ (अभिपत्थए) ण (अ)=नहीं. अभिपत्याए (अभिपत्य)
विधि 2/1सक 94 तुमंतू । सि=है। णाम= निस्सन्देह । चेव= ही। तंवह । जं=
जिसको। हंतव्वं = मारे जाने योग्य । ति=देव । मण्णसि = मानता है। अज्जावेतव्वं = शासित किए जाने योग्य । परितायेतव्यं = सताए जाने योग्य । परिघेतव्वं गुलाम बनाए जाने योग्य । उद्दयेतव्यं = अशान्त किए जाने योग्य । अंजू =सरल । चेयं-ही। पडियुद्धजीवीजागरूक (होकर) जीने वाला । तम्हा-इसलिए । ण=न । हता= हिंसा करने वाला । विही। घातए दूसरों से हिंसा करवाता है । अणुसंवेयणमप्पागणं [(अणुसंवेयरणं)+अप्पारणेणं)] भोगना, अपने द्वारा। जं= जिसको । हंतव्वं मारे जाने योग्य । णामिपत्यए = [(ए)+
(अभिपत्यए)]= मत, इच्छा कर 95 जे (ज) 1/1 सवि आता (प्रात) 1/1 से (त) 1/1 सवि विप्णाता
(विण्णातु) 1/1 वि जेण (ज) 3/1 स विजाणति (विजारए) व 3/1 सक तं (त) 2/1 स पडुच्च (अ) प्राचार बनाकर पडिसंखाए (पडिसंखा) व 3/1 सक एस (एत) 1/1 सवि आतावादी (आतावादि) 1/1 वि समियाए (समिया) 6/1 परियाए (परियाअ) 1/1 वियाहिते (वियाहित) भूक 1/1 अनि ति (अ) इस प्रकार वेमि (बू) व
1/1 सक 95 जे=जो । आता-आत्मा । से वह । विण्णाता=जानने वाला । जेण
= जिससे । विजाणति = जानता है। तं =उसको । पडुच्च=आधार बनाकर । पडिसंखाएव्यवहार करता है। एस-यह । आतावादीआत्मवादी । समियाएसमता का । परियाए = रूपान्तरण । वियाहिते
= कहा गया । ति=इस प्रकार । बेमिकहता हूँ। 96 आणाणाए (अणाणा) 7/1 एगे (एग) 1/2 सवि सोवहाणा [(स)+
134 ]
[ आचारांग
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(उवट्ठाणा)] [(स) वि-(उवट्ठाण) 1/2] आणाए (प्राणा) 7/1 . णिरुवट्ठाणा (णिरुवट्ठाण) 1/2 वि एतं (एत) 1/1 सवि ते (तुम्ह)
4/1 स मा (अ) = न होतु (हो) विधि 3/1 अक 96 अणाणाएअनाज्ञा में । एगे कुछ लोग । सोवट्ठाणा = तत्परता सहित ।
आणाए-आज्ञा में । णिरुवहाणा=आलसी। एतं = यह । ते= तुम्हारे
लिए । मा=न । होतु= होवे । 97 सण्वे (सन्व) 1/2 वि सरा (सर) 1/2 नियति (नियट्ट) व 3/2 अक
तक्का (तक्क→तक्का) 1/1 तत्थ (ज) 7/1 स ण (अ) = नहीं विज्जति (विज्ज) व 3/1 अक मती (मति) 1/1 तत्थ (त) 7/1 स ण (अ)= नहीं गाहिया (गाहिया) 1/1 ओए (प्रो) 1/1 अप्पतिद्वाणस्स (अप्पतिवाण) 6/1 खेत्तण्णे (खेत्तण्ण) 1/1 वि
से (त) 1/1 सवि ण (अ) = नहीं दोहे (दीह) 1/1 वि हस्से (हस्स) 1/1 वि व? (वट्ठ) 1/1 वि तसे (तंस) 1/1 वि चउरसे (चउरंस) 1/1 वि परिमंडले (परिमंडल) 1/1 वि किण्हे (किण्ह) 1/1 वि णोले (णील) 1/1 वि लोहिते (लोहित) 1/1 वि हालिद्दे (हालिद्द) 1/1 वि सुक्किले (सुक्किल) 1/1 वि सुरभिगंधे (सुरभिगंध) 1/1 वि दुरभिगंधे (दुरभिगंध) 1/1 वि तित्ते (तित्त) 1/1 वि कडुए . (कडुअ) 1/1 वि कसाए (कसाअ) 1/1 वि अंबिले (अंविल) 1/1 वि महुरे (महुर) 1/1 वि कक्खडे (कक्खड) 1/1 वि मउए (मउन) 1/1 वि गरुए (गरुप) 1/1 वि लहुए (लहुन) 1/1 वि सीए (सीअ) 1/1 वि उण्हे (उण्ड) 1/1 वि गिद्धे (णिद्ध) 1/1 वि लुक्खे (लुक्ख) 1/1 वि काऊ (काउ) 1/1 वि रूहे (रूह) 1/1 वि सगे (संग) 1/1 इत्थी (इत्थि) 1/1 पुरिसे (पुरिस) 1/1 अण्णहा (अ) = इसके विपरीत 1. कभी कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग सप्तमी विभक्ति के स्थान पर
पाया जाता है । (हम प्राकृत व्याकरण : 3-134)
चयनिका ]
135
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परिणे (परिण) 1/1 वि सण्णे (सण्ण) 1/1 वि उवमा (उवमा) 1/1 विज्जति (विज्ज) व 3/1 अक अस्वी (अरूवि) 1/1 वि सता (सत्ता) 1/1 अपदस्स (अपद) 4/1 वि पदं (पद) 1/1 त्यि (अ)न सद्दे (सई) 1/1 रूवे (रूव) 1/1 गंधे (गंध) 1/1 रसे (रस) 1/1 फासे (फास) 1/1 इच्चेतावंति (इच्चेतावंति) 2/2 वि अनि ति (अ)= इस प्रकार वेमि (बू) व 1/1 सक.
97 सव्वे=सव । सरा= शब्द । नियट्ट तिलौट आते हैं । तफ्का तर्क ।
जत्य=जिसके विपय में। ण= नहीं। विज्जति =होता है। मती= बुद्धि । तत्थ=उसके विषय में । ण=नहीं। गाहिया=पकड़ने वाली । ओए आभा। अप्पतिद्वाणस्स= किसी ठिकाने पर नहीं। खेतण्णे - ज्ञाता-द्रष्टा ।
से = वह । ण=न । दोहे = वडी हस्से। हस्से = छोटी । वट्ट - गोल । तंसे=त्रिकोण । चउरंसे चतुष्कोण । परिमण्डले परिमण्डल । किण्हे = काली । णीले= नीली । लोहिते= लाल। हालिद्द =पीली । सुक्किले = सफेद । सुरभिगंधे=सुगन्वमयी । दुरभिगवे = दुर्गन्धमयी। तित्ते तीखी । कडुए = कडुवी। कसाए = कपली । अंबिले = खट्टी। महुरे= मीठी। कक्खडे = कठोर । मउए= कोमल । गरुए =भारी । लहुए-हलकी । सीए = ठण्डी । उण्हे - गर्म । णिद्धे =चिकनी। लुक्खे =रूखी । काऊ= लेश्यावान् । रहे = उत्पन्न होने वाली। संगे= आसक्ति । इत्थी-स्त्री । पुरिसे= पुरुष । अण्णहा=इसके विपरीत (नपुंसक) । परिणे ज्ञाता । सपणे =अमूच्छित । उवमा तुलना । विज्जति = है । अस्वी= अमूर्तिक । सत्ता= सत्ता। अपदस्स= पदातीत के लिए। पदं =नाम । त्थिनहीं। न । सद्दे = शब्द । रूवे =रूप । गंधे ==गंध । रसे = रस । फासे= स्पर्श । इच्चेतावंति=वस इतने ही को । त्ति= इस प्रकार । वेमिकहता हूँ।
136 ]
[ प्राचारांग
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98 संति (अस) व 3 / 2 अक पारणा (पाण) 1/2 अंधा (अंघ ) 1 / 2 वि मंसि (तम) 7 / 1 विग्राहिता (वियाहित ) भूकृ 1/2 अनि. पाणा (पाण) 1/2 पारणे (पारण) 2/2 किलेसंति ( किलेस ) व 3 / 2 सक बहुदुक्खा [ ( बहु ) - ( दुक्ख ) 1/2 वि ] हु ( अ ) = निस्सन्देह जंतवो (जंतु ) 1/2 सत्ता (सत्त) 1/2 वि कामेहि' (काम) 3/2 माणवा ( मारणव) 1/2 अवलेण' (अवल) 3/1 वि वहं ( वह ) 2 / 1 गच्छति ( गच्छ ) व 3 /2 सक सरीरेण ' ( सरीर) 3 / 1 पभंगुरेण' (पभगुर ) 3 / 1 वि
1
98 संति = रहते हैं । पाणा = प्रारणी । अन्धा = अन्धे । तमंसि = अन्धकार में | विवाहिता = कहे गए । पाशे = प्राणियों को । किलेसंति = दुःख देते हैं । बहुदुक्खा = बहुत दुःखी । हु = निस्सन्देह । जंतवो = प्राणी । सत्ता= आसक्त । कामेह = इच्छाओं द्वारा इच्छात्रों में । माणवा = मनुष्य | अवलेण = निर्वल | वहं = हिंसा । गच्छति = करते हैं । सरीरेण = शरीर के द्वारा शरीर के होने पर । पभंगुरेण = अत्यन्त नाशवान् ।
99 आरणाए (आरणा) 7 / 1
मामगं ( मामग) 1 / 1 वि या मामगं ( मामा )
2 / 1 विधम्मं (धम्म) 1 / 1 या धम्मं (धम्म) 2 / 1
99. आरणाए = श्राज्ञा में या आज्ञा को । मामगं= मेरा या मेरे ( को ) । धम्मं = कर्तव्य या धर्म को ।
100 जहा ( ) = जैसे से ( अ ) = वाक्य की शोभा दीवे (दीव) 1 / 1 असंदीणे (असंदीण) 1 / 1 वि एवं ( अ ) = इस प्रकार धम्मे ( धम्म ) 1 / 1 आरियपदेसिए [ (रिय ) - (पदेसि ) भूकृ 1 / 1 अनि ]
1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-137)
2. (द्वितीय अर्थ में) सप्तमी का प्रयोग द्वितीया विभक्ति के स्थान पर किया गया है | ( हेम प्राकृत व्याकरण: 3-137)
चयनिका ]
[ 137
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100 जहाजैसे । से= वाक्य की गोमा। दीवे द्वीप । असंदीने = असंदीन
(पानी में न डूबा हुआ)। एवं = इसी प्रकार । धम्मे = धर्म। आरिय
पदेसिए = समतादर्शी द्वारा प्रतिपादित । 101 दयं (दया) 2/1 लोगस्स (लोग) 6/1 जापिता (जाण) संकृ पाई
(पाईणा) 2/1 पडीरणं (पढीणा) 2/1 दाहिणी (दाहिया) 2/1 उदीणं (उदीणा) 2/1 आइक्ले (प्राइक्स) विधि 3/1 तक विभए (विभय) विधि 3/1 सक फिट्ट (किट्ट) विवि 3/1 सक वेदवी
(वेदवि) 1/1 वि 101 दयं =दया को। लोगस्स-जीव-समूह की। जाणित्ता-समझकर।
पाईणं पूर्व दिशा को-पूर्व दिशा में। पडोपं = पश्चिम दिशा कोपश्चिम दिशा में। दाहिणं-दक्षिण दिशा को-दक्षिण दिशा में। उदीणं = उत्तर दिशा को- उत्तर दिशा में। माइक्ते उपदेश दे।
विभए = वितरित करे । कि? = प्रशंसा करे । वेदवी=ज्ञानी । 102 गामे (गाम) 7/1 अदुवा (अ) =अथवा रणे (रण्ण) 7/1 पेव
(अ)=न ही घम्ममायाणह [(धम्म)+ (आयाणह)] धम्म (घम्म) 2/1. पायाणह (आयाण) विधि 2/2 सक पवेदितं (पवेदितं) भूक
2/1 अनि माहणेण (माहण) 3/1 वि मतिमया (मतिमया) 3/1 अनि 102 गामे = गांव में । अदुवा प्रयवा । रण्ये= जंगल में। ऐव= न ही।
धम्ममायाणह% [(धम्म) + (आयाणह)] धर्म को, समझो। पवेदितं = प्रतिपादित । माहरणेण= अहिंसक के द्वारा। मतिमया=प्रज्ञावान्
(के द्वारा)। 103 अहासुतं (अ) जैसा कि सुना है. वदिस्सामि (वद) भवि 1/1 सक.
जहा (अ) =प्रत्यक्ष उक्ति के प्रारम्भ करते समय प्रयुक्त से (त) 1/1 1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग
पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137)
138 ]
[ आचारांग
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सवि समणे (समण) 1/1 भगवं' (भगवन्त-भगवन्तो+भगवं) 1/1 उहाय (उ8) संकृ संखाए (संख) संकृ तसि (त) 7/1 स हेमंते (हेमंत) 7/1 अहुणा (अ)= इस समय पन्वइए (पन्वइअ) भूक 1/1 अनि.
रीइत्या (री) भू 3/1 सक 103 अहासुतं = जैसा कि सुना है। वदिस्सामि = कहूंगा। जहा= प्रत्यक्ष
उक्ति के प्रारम्भ करते समय प्रयुक्त । से= वे (वह) । समणे-श्रमण। भगवं भगवान् । उढाय= त्यागकर । संखाए जानकर । तसि= उस (में)। हेमंतेहेमन्त में। अहुरणा= इस समय । पन्वइए दीक्षित
हुए। रोइत्याविहार कर गए। 104 अदु (अ)= अव पोरिसिं (पोरिसी) 2/1 तिरिभित्ति' (तिरिय)
(भित्ति) 2/1] चक्खुमासज्ज [(चक्खं) + (प्रासज्ज)] चखं (चक्खु) 2/1 प्रासज्ज (अ)= रखकर या लगाकर अंतसो (अ)आन्तरिक रूप से झाति' (झा) व 3/1 सक अह (अ)= तव चपलभीतसहिया [(चक्खु)-(भीत)-(सहिय) 1/2] ते (त) 1/2 सवि हंता (अ)= यहां आनो हंता' (अ)= देखो वहवे (बहव) 2/2 वि कदिसु (कंद) भू 3/2 सक
1. अर्घ मागधी में 'वाला' अर्थ में 'मन्त' प्रत्यय जोड़ा जाता है, 'म का विकल्प से 'व' होता है । विकल्प से 'त' का लोप और 'न' का
अनुस्वार हो जाता है (अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 427) 2. काल वाचक शब्दों के योग में द्वितीया होती है। 3. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का
प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-137) 4. भूतकाल की घटनाओं का वर्णन करने में वर्तमान काल का प्रयोग
किया जा सकता है। 5. भीत= डर यहाँ 'भीत' नपुंसक लिंग संज्ञा है (विभिन्न कोश देखें) 6-7. 'हंता' शब्द अव्यय है (विभिन्न कोश देखें) 8. 'कंद' का कर्म के साथ अर्थ होगा, 'पुकारना'।
. चयनिका ]
[ 139
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104 अदु= अव । पोरिसि= प्रहर तक (तीन घंटे की अववि)| तिरियभित्ति
= तिरछी भीत पर । चक्खुमासज्ज [(च) + (प्रासज्ज)] आँखों को लगा कर। अंतसो आन्तरिक रूप से । झाति= ध्यान करते हैं, ध्यान करते थे। अह = तव । चक्खुभीतसहिया= आँखों के डर से युक्त । ते=वे । हता= यहाँ आयो । हता= देखो । वहवे = वहुत
लोगों को। दिसु पुकारते थे। 105 जे (A) =पादपति केयिमे के इमे के (अ) = कभी इमे (इम) 1/1
सवि अगारत्था (अगार-स्थ) 5/1 वि मोसीभावं (मीसीभाव) 2/1 पहाय (पहा) संक से (त) 1/1 सवि भाति (झा) व 3/1 सक पुट्ठो (पुट्ठ) भूकृ 1/1 अनि वि (अ)= भी णाभिभासिसु [(ण)+ (अभिभासिसु)] ण (अ)= नहीं अभिभासिसु (अभिभास) भू-3/1 सक गच्छति (गच्छ) व 3/1 सक गाइवत्तत्ती [(ण)+ (अइवत्तत्ती)] ण
(अ) = नहीं अइवत्तत्ती' (अइवत्त) व 3/1 सक अंजू (अंजु) 1/1 वि 105 जे=पादपूर्ति । केयिमे [(क)+ (इमे)] = कभी, यह (ये) । अगारत्या=
घर में रहने वाले से । मीसी-भावं मेल-जोल के विचार को । पहाय = छोड़कर। से-वे (वह)। झाति= ध्यान करते हैं-ध्यान करते थे। पुट्ठो-पूछी गई। वि= भी । णाभिभासिसु] (अ)+(अभिभासिंसु)] नहीं बोलते थे। गच्छति=चले जाते हैं+चले जाते थे। णाइवत्तत्ती [(ण)+अइवत्तत्ती)] नहीं उपेक्षा करते हैं--उपेक्षा करते थे। अंजू =
संयम में तत्पर। 106 फरिसाई (फरिस) 2/2 दुत्तितिक्खाइं (दुत्तितिक्ख) 2/2 वि अतिमच्च
(अतिअच्च) संकृ अनि मुणी (मुणि) 1/1 परक्कममारणे (परक्कम)
1. छंद-मात्रा की पूर्ति हेतु यहाँ ह्रस्व स्वर दीर्घ हुआ है । (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ट, 137,138)
140
]
[ प्राचारांग
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वक 1/1 आघात-गट्ट-गीताई [(आघात)-(गट्ट)-(गीत) 2/2]
दंडजुदाई' [(दंड)-(जुद्ध) 2/2] मुठिजुदाई' [मुट्ठि-(जुद्ध) 2/2] 106 फरिसाई = कटु वचन । दुत्तितिक्खाई = दुस्सह । अतिप्रच्च = अवहेलना
करके । मुणी = मुनि । परक्कममाणे = पुरुषार्थ करते हुए । प्राघात-गट्टगोताई = कथा, नाच, गान को कथा, नाच, गान में। दंड-जुखाई= लाठी-युद्ध को + लाठी-युद्ध में । मुजुिदाई = मूठी-युद्ध को -
मूठी युद्ध में। 107 गढिए (गढिय) 2/2 वि मिहु (अ) = परस्पर कहासु (कहा) 7/2
समम्मि (समय) 7/1 णातसुते (णातसुत) 1/1 विसोगे (विसोग) 1/1वि अदक्खु (अदक्खु) भू प्रार्प एताइं (एत) 2/2 सवि सो (त) 1/1 सवि उरालाई (उराल) 2/2 गच्छति (गच्छ) व 3/1 सक
णायपुत्ते (णायपुत्त) 1/1 असरणाए' (असरण) 4/1 107 गढिए = पासक्त को । मिहु-कहासु = परस्पर कथानों में । समयम्मि=
इशारे में। णातसुते = ज्ञातपुत्र । विसोगे= गोक-रहित । अदक्खुदेखते थे । एताई इन । सेवे (वह)। उरालाई= मनोहर को। गच्छति = करते हैं-करते थे। णायपुत्ते- ज्ञात-पुत्र । असरणाएं =
स्मरण नहीं। 108 पुढवि (पुढवी) 2/1 च (अ) = और आउकायं (अाउकाय) 2/1
तेजकार्य (तजकाय 2/1 वायुकार्य (वायुकाय) 2/1 पणगाई (पणग) 2/2 वीयहरियाई [(वीय)-(हरिय) 2/2 वि] तसकार्य (तसकाय) 2/1 सव्वसो (अ) = पूर्णतया गच्चा (गच्चा) संकृ अनि
1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग
पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3:137) 2. मार्गभिन्न गत्यर्थक क्रियाओं के कर्म में द्वितीया या चतुर्थी विभक्ति
का प्रयोग होता है।
चयनिका ]
[ 141
Page #174
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108 पुढवि पृथ्वीकाय को। चौर। आउफायं = जलकाय को।
तेउकायं = अग्निकाय को। वायुकायं=वायुकाय को । पणगाई= शवाल को। वीयहरियाई वीज, हरी वनस्पति । च= तथा ।
तसकायं = त्रसकाय को । सव्वसो= पूर्णतया । गच्चा जानकारी। 109 एताई = (एत) 1/2 सवि संति(अस) व 3/2 अक पडिलेहे' (पडिलेह)
व 3/1 सक चित्तमंताई (चित्तमंत) 1/2 वि से (त) 1/1 सवि अभिण्णाय (अभिण्णा) संकृ परिवज्जियारण (परिवज्ज) संकृ विहरित्या (विहर) भू 3/1 सक इति (अ)= इस प्रकार संखाए (संखा) संक
महावीरे (महावीर) 1/1 109 एताई =ये । संति हैं । पडिलेहे- देखते हैं-देखा। चित्तमंताई
चेतनवान् । से=उसने(उन्होंने) । अभिण्णाय-समझकर । परिवज्जियाण
परित्याग करके । विहरित्या= विहार करते थे । इति-इस प्रकार।
संखाए =जानकर । सेवे (वह)। महावीरे= महावीर । 110 मातणे (मातण्ण) 1/1 वि असणपाणस्स [(असण)-(पाण) 6/1]
णाणुगिद्धे [(ण) + (अणुगिद्ध)] ण (अ) =नहीं अणुगिद्ध (अणुगिद्ध) 1/1 वि रसेसु (रस) 7/2 अपडिग्रणे (अपडिण्ण) 1/1 वि अच्छि (अच्छि) 2/1 पि (अ)= भी णो (अ)= नहीं पमज्जिया (पमज्ज) संकृ वि (अ)= भी य (अ)= और कंडुयए (कंडुय) व 3/1 सक मुणी
(मुणि) 1/1 गातं (गात) 2/1 110 मातण्णे मात्रा को समझने वाले। असणपाणस्स= खाने-पीने की।
णाणुगिद्धे [(ण)-(अणुगिद्ध)] ण= नहीं। रसेसु= रसों में। अपडिपणे = निश्चय नहीं। अच्छि = आंख को। पि= भी। णो= नहीं। 1. भूतकाल की घटनाओं का वर्णन करने में वर्तमानकाल का प्रयोग
किया जा सकता है।
142
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[ आचारांग
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पमज्जिया = पोंछकर । णो= नहीं । वि= भी । य= और । कंडुयए=
खुजलाते हैं-खुजलाते थे । मुणी=मुनि । गातं = शरीर को। 111 अप्पं (अ)= नहीं तिरियं (तिरिय) 2/1 पेहाए (पेह) संकृ पिठो
(अ)= पीछे की ओर उप्पेहाए (उप्पेह) संकृ बुइन (बुइन) भूक 7/1 अनि पडिभाणी (पडिभाणि) 1/1 वि पथपेही [(पथ)-पेहि) 1/1
वि] चरे (चर) व 3/1 सक जतमारणे (जत) वकृ 1/1 111 अप्पं नहीं। तिरिय= तिरछे को। पेहाए-देखकर । पिट्ठओ=
पीछे की ओर। उप्पेहाए = देखकर । वुइए=संवोधि किए गए होने पर । पडिभाणी-उत्तर देने वाले। पथपेही मार्ग को देखने वाला। चरे-गमन करते हैं--गमन करते थे। जतमाणे = सावधानी बरतते
हुए।
112 प्रावेसण-सभा-पवासु [(आवेसण)-(सभा)-(पवा) 7/2] पणियसालासु
(परिणयसाल) 7/2 एगदा (अ) = कभी वासो (वास) 1/1 अदुवा (अ) = अथवा पलियबाणेसु (पलियट्ठाण) 7/2 पलालपुजेसु
[(पलाल)-(पुज) 7/2] 112 आवेसण-सभा-पवासु= शून्य घरों में, सभा भवनों में । प्याउओं में ।
पणियसालासु= दुकानों में । एगदा= कभी । वासो रहना । अदुवा= अथवा । पलियारणेसु= कर्म स्थानों में। पलालपुजेसु = घास-समूह
में । वासो= ठहरना। 113 आगंतारे (आगंतार) 7/1 आरामागारे [(आराम) + (पागार)]
[(आराम)-पागार) 7/1] नगरे (नगर) 7/1 वि (अ)= भी एगदा (अ)= कभी वासो (वास) 1/1 सुसाणे (सुसाण) 7/1 सुग्णागारे
[(सुण्ण)+(आगारे)] [(सुण्ण)-(आगार) 7/1] वा (अ) तथा ___ रुक्खमूले [(रुक्ख)-(मूल) 7/1] वि (अ) = भी 113 आगंतारे- मुसाफिर खाने में। आरामागारे बगीचे में (वने हुए) चयनिका ]
[ 143
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स्थान में । नगरे = नगर में। वि= भी। एगदा= कभी। वासो = रहना । सुसाणे= मसारण में। सुपणगारे सूने घर में । वा= तथा ।
रुक्खमूले = पेड़ के नीचे के भाग में । वि= भी। 114 एतेहि (एत) 3/2 सवि मुणी (मुणि) 1/1 सयर्णेहि (सयण) 3/2
समणे (स-मण) 1/1 वि आसि. (अस) भू 3/1 अक पतेलस' (पतेलस) मूल शब्द 7/1 वि वासे (वास) 7/1 राइदिवं' (क्रिवित्र)= रात-दिन पि (अ) ही जयमाणे (जय) वकृ 1/1 अप्पमत्त (अप्पमत्त) 7/1 वि समाहित (समाहित) 7/1 वि झाती (झा) व 3/1 सक
114 एतेहि = इन द्वारा→इनमें । मुणी = मुनि । सयरोहि स्थानों के द्वारा
-स्थानों में । समरणे =समता युक्त मनवाले । आसि = रहे। पतेलस= तेरहवें । वासे वर्ष में । रादिवं = रातदिन । पि=ही। जयमाणे = सावधानी बरतते हुए। अप्पमत्ते-अप्रमाद-युक्त । समाहिते-एकान (अवस्था) में। झाती = ध्यान करते हैं-ध्यान करते थे। 1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग
पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) 2. आसी अथवा आसि, सभी-पुरुषों और वचनों में भूतकाल में काम में
आता है। (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 749) 3. किसी भी कारक के लिए मूल शब्द (संज्ञा) काम में लाया जाता है। (मेरे विचार से यह नियम विशेषण पर भी लागू किया जा सकता है)
(पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) 4. राइंदिवं-यह नपुंसक लिंग है । (Eng. Dictionary, Monier
Williams). इससे क्रिया-विशेषण अव्यय बनाया जा सकता है। (राइंदिवं) 5. छंद की मात्रा की पूर्ति हेतु 'ति' को 'ती' किया गया है।
(पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ, 137, 138) 144 ]
[ आचारांग
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115 णिइं (णिद्द) 2/1 पि (अ) = कभी भी णो (अ) = नहीं पगामाए
(पगाम) 4/1 सेवइ (सेव) व 3/1 सक या=जा=जाव (अ)= ठीक उसी समय भगवं' (भगवन्त-भगवन्तो→भगवं) 1/1 उट्ठाए (उ?) संकृ जग्गावतीय [(जग्गावति)+ (इय)] जग्गावति (जग्गा-प्रेरक जग्गाव) व 3/1 सक इय (अ)=और अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 ईसि (अ) = थोड़ासा साईय साई (साइ) 1/1 वि य (अ)=बिल्कुल
अपडिपणे (अपडिण्ण) 1/1 वि 115 णि = नीद को । पि= कभी भी । णो-नहीं। पगामाए=आनन्द के
लिए । सेवइ = उपभोग करते हैं--उपभोग करते थे। या= ठीक उसी समय । भगवं = भगवान् । उट्ठाए खड़ा करके । जग्गावतीय = [(जगावति)+(इय)] जगा लेते हैं-जगा लेते थे। इय-और । अप्पाणं = अपने को। ईसि = थोड़ा सा। साई =सोने वाले । य=
विल्कुल । अपडिण्णे = इच्छारहित । 116 संवुज्झमाणे (संवुज्झ) वकृ 1/1 पुणरवि (अ)= फिर आसिसु (पास)
भू 3/1 अक भगवं' (भगव) 1/1 उठाए (उट्ट) संकृ णिक्खम्म (णिक्खम्म) संकृ अनि एगया (अ)= कभी कभी राशी (अ)= रात में
वहिं (अ) = बाहर चक्रमिया (चक्कम) संकृ मुहत्तागं(मुहुत्ताग) 2/1 116 संबुज्झमाणे पूर्णतः जागते हुए । पुणरवि = फिर । प्रासिसु=बैठ जाते
थे। भगवं भगवान् उछाए = सक्रिय होकर। णिक्खम्म=बाहर निकलकर। एगया = कभी-कभी। राओ= रात में। वहि = बाहर । चक्कमिया= इधर-उधर घूमकर । मुहुत्तागं = कुछ समय तक ।
1. देखें सूत्र 87 2. समय के शब्दों में द्वितीया होती है। 3. पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ, 834.
चयनिका ]
[
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117 सयह' (सयरण) 3 / 2 तस्सुवसग्गा [ ( तस्स ) + ( उवसग्गा) ] तस्स (त) 4 / 1 स. उवसग्गा ( उवसग्ग) 1/2 भीमा (भीम) 1/2 वि आसी (अस) भू 3 / 2 अक अणेगरुवा (अगरूव) 1/2 वि य ( अ ) = भी. संसप्पा (संसप्पग) 1/2 वि य (प्र) = भी जे (ज) 1/2 सवि पाणा (पारण) 1/2 अदुवा (प्र) = श्रौर पक्खिणो (पक्खि ) 1/2 उवचरंति ( उवचर) व 3 / 2 सक
117 सयर्णाह = स्थानों के द्वारा
स्थानों में । तस्सुवसग्गा [ ( तस्स) + ( उवसग्गा ) ] = उनके लिए, कष्ट । भोमा = भयानक । आसी = वर्तमान थे । अणेगरुवा = नानाप्रकार के । य = भी। संसप्पगा = चलने फिरने वाले । य=भी । जे= जो । पाणा = जीव । अदुवा = श्रौर। पक्खिणो= पंख-युक्त | उवचरंति = उपद्रव करते हैं → उपद्रव करते थे । 118 इहलोइयाइ' (इहलोइय) 2 / 2 वि परलोइयाइ (परलोइय) 2 / 2 वि भीमाई (भीम) 2 / 2 वि अणेगरूवाई ( श्ररणेगरूव) 2 / 2 वि अवि (घ) = और सुविभदुभिगंधाइ [ (सुब्भि) विदुब्भि) वि- (गंध) 2/2] सद्दाइ (स) 2/2 श्रणगरूवाई (प्रणेगरूव) 2 / 2 वि
+3
118 इहलोइयाई = इस लोक सम्बन्धी । परलोइयाइ = पर लोक सम्बन्धी | भीमाई : = भयानक को । अणेगरूवाई नाना प्रकार के । अवि: और । सुविभदुभिगंधाई = रुचिकर और अरुचिकर गधों को में । सद्दाई शब्दों को में ।
1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3 - 137)
2. 'सी' अथवा 'सि' सभी पुरुषों और वचनों में भूतकाल में काम आता है । (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण पृष्ठ 749) 3-4. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है | ( हेम प्राकृत व्याकरण: 3 - 137 )
146 1
[ आचारांग
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119 अधियासए (अधियास) व 3/1 सक सया (अ)=सदा समिते (समित)
1/1 वि फासाई (फास) 2/2 विस्वरूवाई (विरूवरूव) 2/2 वि अरति (अरति) 2/1 वि रति (रति) 2/1 वि अभिभूय (अभि-मू) संकृ रीयति' (री) व 3/1 सक माहणे (माहण) 1/1 वि अवहुवादी
[(अ-बहु) वि-(वादि) 1/1 वि] 119 अधियासए = झेलता है→भेला । सया-सदा । समिते- समता-युक्त ।
फासाईकष्टों को । विस्वरुवाई-अनेक प्रकार के । अरति = शोक को । रति-हर्प को । अभिभूय-विजय प्राप्त करके । रोयतिगमन करते हैं-गमन करते रहे। माहणे अहिंसक । अवहुवादी-बहुत न
वोलने वाले। 120 लाढेहि (लाढ) 3/2 तस्सुवसग्गा [(तस्स)+(उवसग)] तस्त (त)
4/1 स उवसग्गा (उवसग्ग) 2/2 बहवे (वहव) 2/2 वि जाणवया (जाणवय) 1/2 लूसिस (लूस) भू 3/2 सक अह (अ)= उसी तरह लूहदेसिए [(लूह)-(देसिन) 1/1 वि भत्ते (भत्त) भूक 1/1 अनि कुक्कुरा (कुक्कुर) 1/2 तत्थ (अ)- वहां पर हिसिसु (हिंस) भू 3/2
सक रिणवतिस (रिणवत) भू 3/1 सक 120 लादेहि = लाढ़ देश में । तस्सुवसग्गा=(तस्स)+(उवसग्गा)) उनके
लिए, कष्ट । वहवे-बहुत । जाणवया= रहनेवाले लोगों ने । लूसिसुहैरान किया । अह = उसी तरह । लूहदेसिए - रूखे, निवासी । भत्ते = पकाया हुआ भोजन । कुक्करा=कुत्ते । तत्य-वहां पर । हिसिस संताप देते थे। णितिसु =टूट पड़ते थे। 1. अकारांत धातुओं के अतिरिक्त अन्य स्वरान्त घातुओं में विकल्प से __'अ' या 'य' जोड़ने के पश्चात् विभक्ति चिह्न जोड़ा जाता है। 2. देशों के नाम प्रायः बहुवचन में होते हैं। कभी कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
(हेम प्राकृत व्याकरण 3-137)
चयनिका ]
[ 147
Page #180
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121 अप्पे (अप्प) 1/1 वि जणे (जण) 1/1 णिवारेति (णिवार) व 3/1
सक लूसणए (लूसणअ) 2/2 वि स्वार्थिक 'अ' सुणए (सुरण) 2/2 उसमाणे (डसमाण) 2/2 छुच्छ करेंति (छुच्छुकर) व 3/2 सक
आहंसु (प्राह) भू 3/2 सक समण (समण) 2/1 फुक्कुरा (कुक्कुर)
2/2 दसंतुः (दस) विधि 3/2 अक त्ति (अ)= जिससे 121 अप्पे = कुछ । जणे = लोग । णिवारेति = दूर हटाते हैं-दूर हटाते थे।
लूसणए हैरान करने वाले को । सुणए = कुत्तों को। डसमाणे= काटते हुए। छुच्छुकरति = छू-छू की आवाज करते हैं-छू-छू की आवाज करते थे। आहंस = बुला लेते थे । सम]= महावीर के
(पीछे) । कुक्करा कुत्तों को । दसंतु= थक जाएँ। ति= जिससे । 122 हत-पुवो (हतपुव्व) 1/1 वि तत्थ (अ) = वहाँ डंडेण (डंड) 311
अदुवा (अ)= अथवा मुट्ठिणा (मुट्ठि) 3/1 अदु (अ) = अथवा फलेणं (फल) 3/1 लेलुणा (लेलु) 3/1 कवालेणं (कवाल) 3/1 हंता (अ) =
आयो हंता (अ) =देखो वहवे (बहव) 2/2 वि दिसु (कंद) भू
3/2 सक 122 हतपुव्वो-पहले प्रहार किया गया । तत्थ = वहाँ । डंडेण = लाठी से ।
अदुवा=अथवा । मुट्टिणा-मुक्के से । अदुअथवा । फलेण= चाक, तलवार, भाला आदि से । अदु = अथवा। लेलुणा= ईंट, पत्थर आदि के टुकड़े से। कवालेण = ठीकरे से। हंता=आओ। हंता=देखो।
वहवे= बहुतों को। कंदिसु = पुकारते थे। 123 सूरो (सूर) i/1 वि संगामसीसे [(संगाम)-)सीस) 7/1] वा (अ) =
जैसे संवुडे (संवुड) भूकृ 1/1 अनि तत्थ (अ) वहाँ से (त) 1/1 सवि 1. 'पीछे के योग में द्वितीया होती है। 2. दस =Te become exhausted (Eng. Dictionary by
Monier Williams, P. 473 Col. 1) तथा सम्मान प्रदर्शित करने में बहुवचन का प्रयोग हुआ है।
148 ]
[ आचारांग
Page #181
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महावीरे (महावीर ) 1 / 1 पडिसेवमारणो ( पडिसेव) वकृ 1 / 1 फरुसाई ( फरुस) 2 / 2 वि श्रचले (अचल) 1 / 1 वि भगवं ( भगवन्त --→ भगवन्तो भगवं ) 1/1 रोमित्या (री) 1 भू 3 / 1 सक
123 सूरो = योद्धा । संगामसीसे = संग्राम के मोर्चे पर । वा = जैसे । संबुडे ढका हुआ । तत्य== वहाँ से वे । महावीरे = महावीर । पडिसेवमाणो = सहते हुए। फरुसाई = कठोर को । श्रचले अस्थिरता - रहित । भगवं == भगवान् । रोयित्या - विहार करते थे ।
124 अवि (अ) =और साहिए (साहिय) 2/2 वि दुवे (दुव) 2/2 वि मासे " (मास) 2/2 छप्पि [(छ) + (अपि)] छ (छ) 2/2. अपि (अ) भी अदुवा (प्र) = श्रथवा अपिवित्था ( श्रपिव) भू 3 / 1 सक ओवरातं [ (रान) + (उवरातं ) ] [ (रान) - ( उवरात) 2/1] अपडoर्ण (पडिण ) 1 / 1 वि अण्णगिलायमेगता [ ( अण्ण) + (गिलायं) + ( एगता)] [(श्रण) - ( गिलाय ) 2 / 1] एगता (प्र) = कभी कभी भुजे (भुज) व 3 / 1 सक
-
124 अवि = श्रौर | साहिए = अधिक | दुवे दो । मासे = मास में । छप्पि ( ( छ + ग्रपि ) ] = छः, भी । मासे = मास तक । आपिवित्था: नहीं पीते थे । राम्रोवरातं = [ (राम) + ( उवरातं)]: | = रात में दिन को → दिन में 1 अपडणे = राग-द्वेषरहित । श्रवणगिलायमेगता =
?
1 ( अण्ण ) - ( गिलायं) + ( एगता ) ] भोजन, बासी को, कभी कभी । भुजे = खाता है → खाया |
1. अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य स्वरान्त धातुओं में विकल्प से 'प्र' या 'य' जोड़ने के पश्चात् विभक्ति चिह्न जोड़ा जाता है ।
2 कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-137) और समय वोधक शब्दों में सप्तमी होती है ।
चयनिका ]
[ 149
Page #182
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125 छठेण' (छट्ठ) 3/1 एगया ()=कभी मुंजे (भुज) व 3/1 सक
अदुवा (अ)=अथवा अट्ठमेण' (अट्ठम) 3/1 दसमेण! (दसम) 3/1 दुवालसमेण (दुवालसम) 3/1 एगदा (अ) कभी पेहमाणे (पह)
वक 1/1 समाहि (समाहि) 2/1 अपडिण्णे (अपडिण्ण) 1/1 वि 125 छठेण = दो दिन के उपवास के वाद में। एगया=कभी । भुजे
भोजन करते हैं भोजन करते थे। अदुवा=अथवा। अट्टमेण तीन दिन के उपवास के वाद में । दसमेण =चार दिन के उपवास के वाद में । दुवालसमेण =पांच दिन के उपवास के बाद में। एगदा= कभी। पेहमारणे-देखते हुए। समाहि=समाधि को। अपडिपणे
निष्काम । 126 णच्चाण' (णा) संक से (त) 1/1 सवि महावीरे (महावीर) 1/1
णो (अ)= नहीं वि (अ) = भी य (अ) विल्कुल पावर्ग (पावग) 2/1 सयमकासी [(सयं) + (अकासी)] सयं (अ)=स्वयं, अकासी (अकासी) भू 3/1 सक अण्णेहि (अण्ण) 3/2 वि वि (अ)=भी ण (अ)=नहीं
कारित्या (कर-कार) भू 3/1 सक कीरतं (कीरत) वक कर्म 2/1 अनि पि (अ) =भी णाणुजाणित्या [(ण) + (अणुजारिणत्या)] ण (अ)
= नहीं अणुजाणित्या (अणुजाण) भू 3/1 सक 126 णच्चाण=जानकर । सेवे । महावीरे-महावीर । णो नहीं ।
वि= भी । य=विल्कुल । पावर्ग=पाप (को) सयमकासी [(सयं)+ (अकासी)] स्वयं, करते थे। अण्णेहि-दूसरों से। वि= भी । ण= नहीं। कारित्या=करवाते थे। कीरंतं =किए जाते हुए। पिभी । 1. कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान में उतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। हिम प्राकृत व्याकरण: 3-136) यहां 'वाद में अर्थ लुप्त है, तथा 'वाद में अर्थ के योग में पंचमी होती है । 2. पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ, 830.
150 ]
[ आचारांग
Page #183
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णाणुजाणित्या [(ण) + (अणजाणित्था)] ण नहीं; अनुमोदन
करते थे। 127 गाम (गाम) 2/1 पविस्स' (पविस्स) संकृ अनि णगरं (णगर) 2/1
वा (अ)=या घासमेसे [(घास)+(एसे)] घासं (घास) 2/1 एसे (एस) व 3/1 सक कडं (कड) भूक 2/1 अनि परवाए (परट्ठा) 4/1 सुविसुद्धमेसिया [(सुविसुद्ध)+ (एसिया)] सुविसुद्ध (सुविसुद्ध) 2/1 वि एसिया (एस) संकृ भगवं (भगवं) 1/1 आयतजोगताए [(मायत)
वि-(जोगता) 3/1j सेवित्या (सव) भू 3/1 सक । 127 गाम= गांव । पविस्स-प्रवेश करके । णगरं = नगर को→ में । वा=
या । घासमेसे [(घासं)-(एसे)] आहार को, भिक्षा ग्रहण करता है। करते थे। कई =बने हुए। परवाए - दूसरे के लिए। सुविसुद्धमेसिया [(सुविसुद्ध)+(एसिया)] सुविसुद्ध, भिक्षा ग्रहण करके । भगवं = भगवान् । आयतजोगताए=संयत, योगत्व से । सोवित्था = उपयोग में
लाते थे। 128 अकसायी (अकसायि) 1/1 वि विगतगेही [(विगत) भूकृ अनि-(गेहि)
1/1] य (अ) और सद्द-रुवेसुऽमुच्छिते [(सद्द) + (रुवेसु)+ (अमुच्छिते)] [(सद्द)-(रुव) 7/2] अमुच्छिते (अमुच्छित) 1/1 वि भाती (झा) व 3/1 सक छउमत्ये (छउमत्थ) 1/1 वि वि (अ)= भी विप्परक्कममाणे (विप्परक्कम) वकृ 1/1 ण (अ) = नहीं पमायं (पमाय) 2/1 सई (प्र)= एकवार पि (अ)=भी कुन्वित्या (कुन्व)
भू 3/1 सक 128 अकसायी-कषाय-रहित । विगतगेही= लोलुपता नष्ट करदी गई।
सद्द-रुवेसुऽमुच्छिते- शब्दों, रूपों में अनासक्त । झाती= ध्यान करते हैं 1. 'गमन' अर्थ के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। 2. पिशल : प्राकृत भापाओं का व्याकरण : पृष्ठ, 834.
3. छंद की मात्रा की पूर्ति हेतु 'ति' को 'ती' किया गया है। चयनिका ]
[ 151
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________________
→ ध्यान करते थे । घरमत्ये = सर्वज्ञ | वि= भी। विप्परक्कममाणे ण नहीं । पमायं = प्रमाद ( को ) ।
=
- साहस के साथ करते हुए ।
सई = एकवार | पि = भी । कुव्वित्या किया |
3
129 सयमेव [ ( सयं) + (एव) ] सयं ( अ ) = स्वयं एव ( अ ) = ही प्रनिसमागम्म (अभिसमागम्म) संकृ अनि आयतजोगमायसोहीए [ ( श्रायत ) + (जोगं) + (प्राय) + सोहिए ) ] [ ( श्रायत) वि - (जोग) 2 / 1] [ ( श्राय) - सोहि ) 3 / 1] अभिणिव्वुडे [ श्रभिणिव्वुड) 1 / 1 वि अमाइल्ले ( माइल्ल) 1 / 1 वि श्रावकहं (श्र) = जीवन - पर्यन्त भगवं ( भगवं) 1 / 1 समितासी [ ( समित) + (ग्रासी)] समित' (समित) मूल शब्द 1 / 1 आसी (अस) भू 3/1 अक
129 सयमेव ] ( सयं) + एव ) ] = स्वयं ही । अभिसमागम्म = प्राप्त करके । आयतजोगमायसोहीए [ ( श्रायत) + (जोगं) + (प्राय) + (सोहीए ) ] संयत, प्रवृत्ति को, ग्रात्म शुद्धि के द्वारा । अभिणिव्वुडे = शान्त । अमाइल्ले = सरल | श्रावकहं = जीवन पर्यन्त । भगवं= भगवान् । समितासी [ ( समित) + (ग्रासी)] समतायुक्त, रहे ।
1. किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है । [ पिशल : प्राकृत भाषात्रों का व्याकरण, पृष्ठ 517] [मेरे विचार से यह नियम विशेषण पर भी लागू किया जा सकता है।
आसी अथवा ग्राम सभी पुरुषों और वचनों में भूतकाल में काम याता है | [ देखें गाथा 101]
152 ]
[ आचारांग
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टिप्पण
द्रव्य-पर्याय
जो गुण और पर्यायों से संयुक्त है वही द्रव्य है । गुण और पर्याय को छोड़कर द्रव्य कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है । द्रव्य गुणों और पर्यायों के बिना नहीं होता तथा गुण और पर्यायें द्रव्य के बिना नहीं होती। उदाहरणार्थ, स्वर्ण से पृथक् उसके पीलेपन आदि गुणों का तथा कुण्डलादि पर्यायों का अस्तित्व संभव नहीं है । अतः यह स्पष्ट है कि जो नित्य रूप से द्रव्य में पाया जाय वह गुण है तथा जो परिणमनशील है वह पर्याय है। इस तरह से पर्याय परिणमनशील होती है तथा गुण नित्य । इसके अतिरिक्त गुण वस्तु में एक साथ विद्यमान रहते हैं। किन्तु, पर्यायें क्रमशः उत्पन्न होती हैं । अतः द्रव्य गुण की अपेक्षा नित्य होता है
और पर्याय की अपेक्षा अनित्य या परिणामी होता है। इस प्रकार द्रव्य नित्यअनित्य सिद्ध होता है।
आचारांग का कथन है कि पर्याय-दृष्टि अनित्य पर दृष्टि होने के कारण नित्य से व्यक्ति को विमुख करती है, इसलिए द्रव्य-दृष्टि नाशक होने से शस्त्र है । द्रव्य-दृष्टि नित्य पर दृष्टि होने के कारण अशस्त्र कही गई है।
इस प्रकार विचारने से व्यक्ति सुख-दुःख, हर्ष-शोक, से परे आत्मा में स्थित हो जाता है। प्रात्मा
द्रव्य के छह भेद हैं: 1. जीव अथवा आत्मा, 2. पुद्गल, 3. धर्म, 4. अधर्म, 5. आकाश और 6. काल ।
सब द्रव्यों में आत्मा ही सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि केवल आत्मा को ही हितअहित, हेय-उपादय, सुख-दुःख आदि का ज्ञान होता है। अन्य द्रव्यों में इस प्रकार
चयनिका ]
[ 153
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के ज्ञान का अभाव होता है । अतः वे अजीव हैं । आत्मा का लक्षण चैतन्य है। यह चैतन्य ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक रूप में प्रयुक्त होता है ।
आत्मा ज्ञाता होने के साथ-साथ कर्ता और भोक्ता भी है। आत्मा संसार अवस्था में अपने शुभ अशुभ कर्मों का कर्ता और उनके फलस्वरूप उत्पन्न सुखदुखः का भोक्ता भी है। मुक्त अवस्था में आत्मा अनन्तज्ञान का स्वामी होता है । शुभ अशुभ से परे शुद्ध क्रियाओं का (राग-द्वेष रहित क्रियाओं का) कर्ता होता है और अनन्त आनन्द का भोक्ता होता है । जैन-दर्शन के अनुसार प्रात्मा एक नहीं अनेक अर्थात् अनन्त है ।
संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्मों से प्राबद्ध है। इसी कारण संसारी जीव जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। इतना होते हुए भी प्रत्येक संसारी आत्मा सिद्ध समान है। दोनों में भेद केवल कर्मों के वन्धन का है। यदि कर्मों के बन्धन को हटा दिया जाए, तो आत्मा का सिद्ध स्वरूप (जो अनन्त ज्ञान, सुख और शक्ति रूप में) प्रकट हो जाता है।
जीव या आत्मा ही अपने उत्थान व पतन का उत्तरदायी है। वही अपना शत्रु है और वही अपना मित्र है। अज्ञानी होने से ज्ञानी होने का और बद्ध से मुक्त होने का सामर्थ्य उसी में होता है। वह सामर्थ्य कहीं बाहर से नहीं आता है, वह तो उसके प्रयास से ही प्रकट होता है।
सांसारिक दृष्टिकोण से जीवों का वर्गीकरण इन्द्रियों की अपेक्षा किया गया है । सबसे निम्न स्तर पर एक इन्द्रिय जीव है, जिनके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है। एक इन्द्रिय जीव के पांच भेद हैं: पृथ्वीकायिक जलकायिक, अग्निकायिक, वनस्पतिकायिक तथा वायुकायिक । इनमें चेतना सबसे कम विकसित होती है । इनसे उच्चस्तर के जीवों में दो इन्द्रियों से पांच इन्द्रियों तक के जीव हैं । ये त्रस जीव कहलाते हैं। कुछ जीवों में स्पर्शन और रसना-ये दो इन्द्रियाँ होती है (सीपी, शंख, आदि) । कुछ जीवों के स्पर्शन, रसना और प्राण-ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं (जूं, खटमल, चींटी आदि)। कुछ जीवों के स्पर्शन, रसना, प्राण और चक्षु -ये चार इन्द्रियाँ होती हैं (मच्छर,
154 ]
[ आचारांग
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________________
मक्खी, भँवरा आदि) । कुछ जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु प्रोर कर्ण - पांच इन्द्रियाँ होती है (मनुष्य, पशु, पक्षी, श्रादि) ।
परम आत्मा या समतादर्शी वह है जिसने आत्मोत्थान में पूर्णता प्राप्त करली है, जिसने काम, क्रोधादि दोषों को नष्ट कर दिया है, जिसने ग्रनन्तज्ञान, प्रनन्तराशि, और अनन्तसुख प्राप्त कर लिया है तथा जो सदा के लिए जन्ममरण के चक्कर से मुक्त हो गया है ।
लोक
यह लोक छह द्रव्यमयी है। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, और जीव इन छह द्रव्यों से निर्मित है । यह अनादि है तथा नित्य है । जीव चेतन द्रव्य है तथा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल अचेतन द्रव्य है । -
जिसमें रूप, रस, गंध श्रीर स्पर्श-ये चार गुण पाये जाते जाते हैं वह पुद्गल हे । सव दृश्यमान पदार्थ पुद्गलों द्वारा निर्मित है। पुद्गल द्रव्य के दो भेद हैं: 1. परमाणु और 2. स्कंध | दो या दो से अधिक परमाणुओं के मेल को स्कंघ कहते हैं । जो पुद्गल का सबसे छोटा भाग है, जिसे इन्द्रियां ग्रहण नहीं कर सकती है, जो विभागी है, वह परमाणु है । परमाणु श्रविनाशी है । परमाणुओं के विभिन्न प्रकार के संयोग से नाना प्रकार के पदार्थ बनते हैं ।
जो जीव व पुद्गल की गमन क्रिया में सहायक होता है वह धर्म द्रव्य है । यह उसी प्रकार क्रिया में सहायक होता है जिस प्रकार मछलियों को चलने के लिए जल । जैसे हवा दूसरी वस्तुओं में गमन क्रिया उत्पन्न कर देती है, वैसे धर्म द्रव्य गमनक्रिया उत्पन्न नहीं करता है । वह तो गमनक्रिया का उदासीन कारण है, न कि प्रेरक कारण । जो स्वयं चल रहे हैं उन्हें बलपूर्वक नहीं चलाता है । धर्म द्रव्य रूप, रस, गंध आदि स्पर्श रहित होता है ।
जो जीव व पुद्गल की स्थिति में उसी प्रकार सहायक होता है जिस प्रकार चलते हुए पथिकों के ठहरने में छाया । यह चलते हुए जीव व पुद्गल को ठहरने की प्रेरणा नहीं करता है, किन्तु स्वयं ठहरे हुयों के ठहरने में
चयनिका ]
[ 155
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उदासीन रूप से कारण होता है । यह रूप, रसादि रहित होता है।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि यहां वर्म का अर्थ पुण्य और अधर्म का अर्थ पाप नहीं है । ये दोनों रूप रसादि रहित अखण्ड द्रव्य हैं।
जो जीवादि द्रव्यों के परिणमन में सहायक है वह काल है। प्रत्येक द्रव्य परिणामी-नित्य होता है। द्रव्य के परिणमन में काल द्रव्य सहायक होता है। सैकिंड, मिनट, घण्टा दिन प्रादि व्यवहार, तथा युवावस्था, वृद्धावस्था, नवी. नता और प्राचीनता, गमन, आदि व्यवहार जिससे होता है वह व्यवहारकाल है । यह क्षणभंगुर और पराश्रित है । परमार्थ काल नित्य और स्वाधित है।
जो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, और काल को स्थान देता है वह आकाश है । यह आकाश एक है, सर्वव्यापक है, अखण्ड है और रूप रसादि गुणों से रहित है । जहाँ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल द्रव्य रहते हैं वह लोकाकाश है और इससे परे अलोकाकाश । कर्म-क्रिया
जैन-दर्शन के अनुसार सव आत्माएं मूलतः सिद्ध समान है। उनमें स्वरूप अपेक्षा कोई वैषम्य नहीं है । जगत् में राग-द्वेषात्मक अवस्थाओं का कारण कर्म है । जीव के राग-द्वेष आदि भाव 'भाव' कर्म और इनके फलस्वरूप जीव की ओर आकृष्ट होकर निवटने वाले कर्म-पुद्गलों को 'द्रव्य' कर्म कहते हैं ।
जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। किन्त, जव आत्मा को अपनी शक्ति का भान हो जाता है तो कर्म वलहीन हो जाते हैं और एक दिन वह आत्मा कर्मो पर विजय प्राप्त करके समत्व को प्राप्त कर लेता है।
कपाय सहित, मन, वचन, और काय की क्रियाएं कर्मों के वन्वन का कारण होती हैं, जैसे गीला कपड़ा वायु के द्वारा लाई हुई धूल को चारों ओर से चिपटा लेता है, उसी तरह कपायरूपी जल से गीली आत्मा मन, वचन और काय की क्रियाओं द्वारा लाई गई कर्म-रज को चिपटा लेता है। अहिंसात्मक क्रियाएं शुभ होती हैं और हिंसात्मक क्रियाएं अशुभ होती हैं ।
156 ]
[ याचारांग
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आचारांग-चयनिका के विषयों की रूपरेखा
प्राचारांग की दार्शनिक पृष्ठ-भूमि और धर्म का स्वरूप (i) प्राचारांग का महत्त्व (क) व्यक्ति के उत्थान व समाज के विकास सूत्र-संख्या
को समान महत्व (ii) याचारांग का प्रारम्भ : मनोवैनानिक (क) मनुप्य की सामान्य जिज्ञासा : मैं कहां 1
से पाया हूँ और कहां जाऊंगा
(पूर्वजन्म और पुनर्जन्म) (ख) पूर्वजन्म का ज्ञान : (ग) शाश्वत प्रात्मा का ज्ञान (ग्रात्मवादी) 3, 95 (घ) संसार-अवस्था में शरीर और आत्मा 3
का मेल : मन-वचन और काय की
क्रियाएं होती रहती है (क्रियावादी) (च) प्रिया का प्रभाव वर्तमान रहता है 3
(कर्मवादी) (छ) प्राणियों का अस्तित्व, देश-काल का 3
अस्तित्व, पुद्गल का अस्तित्व तथा गमन-स्थिति में सहायक द्रव्यों का
अस्तित्व (लोकवादी) (iii) व्यक्तित्व में क्रियाएँ महत्वपूर्ण : (क) क्रियाओं का प्रयोजन
5,6 (ख) मनुष्य को क्रियाओं की सही दिशा 4
का ज्ञान नहीं
चयनिका ]
[ 157
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________________
102
101
(ग) हिंसात्मक क्रियाएँ क्यों ? एवं कायिक 8 से 17 एवं 12
जीव की मनुष्य से तुलना (iv) वर्म की दो व्याख्याएँ :
सूत्र संख्या (क) अहिंसामूलक
72 (ख) समतामूलक (सामाजिकपक्ष एवं 34, 88 एवं 90
वैयक्तिक पक्ष) (ग) धर्म कहां? (v) अहिंसा का चारों दिशाओं में प्रचार : (vi) प्राणियों का अस्तित्व :
21 (vii) हिंसा क्यों नहीं ? तर्क : (क) मनोवैज्ञानिक तर्क
23,36 (ख) सामाजिक तर्क
69 (अंतिम पंक्ति) (ग) दार्शनिक-आध्यात्मिक तर्क (viii) हिंसा से हानि
8,9,10,11,13,15
16 (अंतिम पंक्ति) 2. मूच्छित मनुष्य की अवस्था
(i) मूच्छित व्यक्ति की स्थिति : 51, 98 (ii) इन्द्रिय-विषयों में आसक्त :
22,26,38,45,78 (ii) अर्हत् की आज्ञा से दूर :
22 (iv) इच्छाओं की तीव्रता :
43,81,98 (५) संग्रह में आसक्त :
74,35 (vi) अनेकचित्तो का होना : (vii) वस्तुओं के दोहरे स्वभाव को न समझना :
39 (viii) भय से ग्रसित होना
69,86
94
60
158 ]
[ आचारांग
Page #191
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________________
37
सूत्र-संख्या (ix) हिंसात्मक क्रियाओं में संलग्न होना फिर 29, 43, 23 भी अहिंसा का उपदेश देना :
तथा 25 (x) पार जाने में असमर्थता : (xi) असत्य में ठहरना :
37 (अंतिम पंक्ति) (xii) वैर की वृद्धि तथा वारम्बार जन्म : 45 तथा 53 (xiii) उत्थान में मूढ़ बनना :
91 (xiv) मूच्छित मनुष्य की स्थिति-संक्षेप में : 18 3. मूर्छा कैसे टूट सकती है ? (i) मृत्यु की अनिवार्यता का भान होने से
या शरीर की नश्वरता का भान होने 36,74, 85 से या जन्म-मरण के दुःख को अनुभव 82, 61
करने से : (ii) वुढ़ापे की स्थिति को समझने से : 27, 28 (क) आत्मीय-जन सहारे के लिए
पर्याप्त नहीं होते हैं : (ख) शक्ति क्षीण होने से पूर्व प्रात्म
हित करना : (iii) धन-वैभव की अस्थिरता का ज्ञान होने से : 37 (iv) कर्मों के फल भोगने का ज्ञान होने से : 94 (अन्तिम पंक्ति)
56, 79 (अन्तिम पंक्ति) (v) प्राणियों की पीड़ा को समझने से : 53, 69 (पांचवीं पंक्ति)
27
30
77
(vi) द्रष्टा-भाव का अभ्यास करने से :
62, 23
चयनिका ]
[ 159
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
4.
(vii) जागृत व्यक्ति के दर्शन से :
जीवन - विकास के सूत्र
(i) अन्तर्यात्रा या वाह्य यात्रा से आगे बढना, यात्रा के लिऐ संकल्प की हढ़ता, त्याग का ग्रहण
(ii) अन्तर्यात्रा के लिए श्रद्धा की आवश्यकता : (iii) बाह्य यात्रा के लिए संशय की आवश्यकताः
(iv) व्यक्तित्व को बदलने के सूत्र :
160 ]
सूत्र संख्या
93
24, 69
( प्रथम पंक्ति ) ;
19, 33.
32, 92, 96, 99
83
(क) दार्शनिक तथा वैज्ञानिक के लिए 68, 59 ( सत्य को समझना ) : (ख) मनोवैज्ञानिक के लिए
( श्रासक्ति के फल को देखना) (ग) अल्प बुद्धिवाले के लिए
( एक को समझना ) : (घ) विस्तार - बुद्धि वाले के लिए ( बहुत को समझना )
57, 40 ( अन्तिम पंक्तियाँ) 69 (चौथी पंक्ति)
एवं (ग्राठवीं पंक्ति)
69 (चौथी पंक्ति)
एवं (आठवीं पंक्ति)
(च) बुद्धिमान व्यक्ति के लिए :
39
(छ) व्यवसायी के लिए :
42
(ज) सामान्य व्यक्ति के लिए :
66
(झ) सदैव सुविधाओं में डूबने वाले के लिए : 87 ( प ) खोजी के लिए :
50
(फ) मानसिक तनाव में जीने वाले के लिए : 64
(a) द्रष्टाभाव के अभ्यासी के लिए : (भ) पशु जीवन में प्रवृत्त के लिए:
62, 63
41, 67
[ आचारांग
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
65
11
सूत्र-संख्या (v) वर्तमान का देखने वाला बनना : (vi) जीवन-विकास का माप-दण्ड :
66 (दूसरी और
तीसरी पंक्ति) 5. जागृत मनुष्य की अवस्था (i) जागृति के मार्ग पर चलते हुए लोक-प्रशंसा 73
के आकर्षण से दूर रहना : (ii) जागृति के मार्ग पर चलने से चित्त का 68
सुन्दर होना : (iii) जागृत व्यक्ति के लक्षण :
(क) उपदेश सुनने की आवश्यकता नहीं : 38 (ख) कोई नाम नहीं होता : (ग) 'वीर' संज्ञा को प्राप्त होना: 20, 54 (घ) लोक प्रचलित आचरण का होना 55
आवश्यक नहीं : (च) ममाज व व्यक्ति के लिए प्रकाश स्तंभ : 50, 47 () विकल्पों से परे हो जाना : 50 (ज) 'सरल' होना :
54, 75 (क) आश्रित होना :
100 (प) द्वन्द्वातीत होना और समता में स्थित 56,25,31, होना :
92 (फ) अनुभव अपरिवर्तनशील :
47,64 (क) पूर्ण जागरूक व अप्रमादी:
49,51,84 (भ) अनुपम प्ररामना में रहना : (त) इन्द्रियों के विषयों का द्रष्टा : 52 (थ) लोक कल्याण में संलग्न :
58
नगनिया ]
161
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
6.
महावीर का साधनामय जीवन
(द) कुशल व्याख्याता व ग्रासक्ति-रहित तथा सत्य में स्थित :
(य) जागृत के अनुभव वर्णनातीत, केवल 97, 90 ज्ञाता-द्रष्टा श्रवस्था, मोन में ही प्रकट, निषेध की भाषा उपयोग :
(i) महावीर के द्वारा सांसारिक परतन्त्रता (सम्पत्ति, सत्ता एवं अनुभवहीन पाण्डित्य )
का त्याग :
(ii) हिंसा व पाप का परित्याग :
(iii) ध्यान की उपेक्षा नहीं :
(iv) ध्यान की पद्धति :
(v) ध्यान के स्थान : (vi) निद्रा का त्याग : (vii) ध्यान की बाधाएँ :
(क) इन्द्रिय- जन्य वाघाएँ : (ख) काम - जन्य वाधाएँ : (ग) मनोरंजन संबंधी वाघाएं : (घ) शारीरिक बाधाएँ : (च) स्थान - जन्य वाघाएँ : (छ) लौकिक-अलौकिक बाधाएं : (ज) सामाजिक वाघाएँ :
(viii) भोजन - पान के प्रति अनासक्ति :
(ix) गमन में सावधानी :
162 1
(x) मौन का जीवन : (xi) कष्टों में समतावान् होना :
सूत्र संख्या 75, 79, 80
44
103
108, 109, 126
105
104
112, 113, 114
115, 116
118, 128 107
106
110
117
118
120, 121, 122
106
124, 125, 110
111
105, 119
112, 123, 129
[ आचारांग
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचारांग-चयनिका एवं आचारांग
सूत्र-क्रम
चयनिका आचारांग क्रम सूत्र-क्रम
चयनिका आचारांग क्रम सूत्र-क्रम
चयनिका आचारांग क्रम सूत्र-क्रम
31
22
22
78
41
37
79
24
80
1 16 14 25 36 30
44 52 59 33 17 623270 46 18 1033 71 5 7
19 20 34 75 6 . 8 20 21 35 77 79 21
36 8 13 22
23 49
38 35 24 56 39
83 11 43 25624085 12 45 26
4186 27
64 1452 28 .65 4390 ___1558 2966 4491 आयारंग सुत्तं (आचारांग सूत्र),
(श्री महावीर जैन विद्यालय सम्पादक
बम्बई) 1976 मुनि जम्बूविजय
63
13
51
42
चयनिका ]
. [ 163
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
चयनिका प्राचारांग क्रम सूत्र-क्रम
चयनिका प्राचारांग क्रममूत्र-क्रम
चयनिका यात्रारांग कम मूत्र-क्रम
45
68
91
162
46
97
92
167
169
47 48 49
93
69 98 7 0 101 71 10372 104
127 129 130 131 132 133
93 94
170
95
171
50
96
172
51
74
134
97
176
52
106 107 108
75
140
98
180
53
76
141
99
54
109
77
142
100
78
144
101
110 111
185 189 196 202 254
56
79
145
57
80
146
८०
58
81
147
258
82
148
60
115 116 117 118 119 120 121
260 262
61
8 3 84 85 8 6
263
102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112
265
149 152 153 154 155 157 159
62 63
266
6A
123
87
273
65
124 125
274
8 8
89
66
278
67
126
90
161
113
279
164 ]
[ आचारांग
Page #197
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________________
चयनिका श्राचारांग
क्रम
सूत्र - क्रम
114
.115
116
117
118
119
280
281
282
283
285
286
चयनिका ]
चयनिका आचारांग
क्रम
सूत्र-क्रम
120
121
122
123
124
125
295
296
302
305
312
313
000
चयनिका ग्राचारांग
क्रम
सूत्र - क्रम
126
127
128
129
314
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321
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1. आयारंग सुत्तं
2. आयारो
3. श्राचारांगसूत्र
지
सहायक पुस्तकें एवं कोश
4. समता दर्शन और व्यवहार
5. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
6. समणसुत्त
7. हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण भाग 1-2
8. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण
166 ]
: सम्पादक : मुनि जम्बूविजय (श्री महावीर जैन विद्यालय,
बम्बई )
:
: सम्पादक : मधुकर मुनि श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, ( राजस्थान )
सम्पादक : मुनि नथमल ( जैन विश्व भारती, लाडनूं)
: ग्राचार्य श्री नानालालजी महाराज ( श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर )
: देवेन्द्र मुनि
::
: सर्व सेवा संघ प्रकाशन,
राजघाट, वाराणसी
:
(तारक गुरु ग्रन्थमाला, उदयपुर)
व्याख्याता श्री प्यारचंदजी महाराज (श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, व्यावर, ( राजस्थान)
डा. आर. पिशल
( विहार- राष्ट्र-भाषा-परिषद्,
पटना)
[ श्राचारांग
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________________ 9. अभिनव प्राकृत व्याकरण : डा. नेमिचन्द्र शास्त्री (तारा पब्लिकेशन, वाराणसी) 10. प्राकृत भाषा एवं साहित्य का : डा. नेमिचन्द्र शास्त्री आलोचनात्मक इतिहास (तारा पब्लिकेशन, वाराणसी) 11. प्राकृत मार्गोपदेशिका : पं. वेचरदास जीवराज दोशी (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) 12. संस्कृत निबन्ध-शिका : वामन शिवराम प्राप्टे (रामनारायण बेनीमाधव, इलाहावाद) 13. प्रौढ़-रचनानुवाद कौमुदी : डा. कपिलदेव द्विवेदी (विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी) 14. पाइअ-सह-महण्णवो : पं. हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेठ (प्राकृत ग्रन्थ परिपद्, वाराणसी) 15. संस्कृत-हिन्दी-कोश : वामन शिवराम आप्टे (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) 16. Sanskrita-English M. Monier Williams Dictionary (Munshiram Manoharlal, New Delhi) 17. बृहत् हिन्दी कोश सम्पादक : कालिका प्रसाद आदि (ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस) चयनिका ] . [ 167