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(लोग)
परिजाणियव्या (परिजारण) विधि कृ
6. एतावंति ' ( एतावंति ) 1/2 वि श्रनि सख्यायंति (श्र) - सम्पूर्ण नोगंसि 7/1 कम्मसमारंभा [ ( कम्म ) - ( समारंभ ) 1/2] 1 / 2 भयंति (भव) व 3 / 2 प्रक 6. एतावंति = इतने । सव्वायंति = सम्पूर्ण । लोगंसि = लोक में । कम्मसमारंभा = क्रियाओं के प्रारम्भ । परिजाणियव्या = समझे जाने योग्य । भवंति = होते हैं ।
7. जस्सेते [ ( जस्स) + (एते ) | जस्स (ज) 6/1 एते ( एत) 1 / 2 सवि लोगंसि (लोग) 7/1 कम्मसमारंभा [ ( कम्म ) - ( समारंभ ) 1 / 2 ] परिणाया ( परिणाय) 1/2 वि भवंति (भव) व 3 / 2 अक से (त) 1 / 1 सवि हु ( अ ) = हो मुणी ( मुरिण) 1/1 चि परिणायकम्मे [ ( परिणाय) वि - (कम्म) 1 / 1] त्ति (श्र) इस प्रकार बेमि (लू) व 11 सक
7. जस्स = जिसके जिसके द्वारा । एते = इन | लोगंसि = लोक में । कम्मसमारंभा = क्रियानों के प्रारंभ । परिण्णाया = समझे हुए। भवंति = होते हैं । से = वह । हु = ही । मुणो ज्ञानी । परिण्णायकम्मे = क्रिया- (समूह) जाना हुआ । त्ति = इस प्रकार । बेमि= कहता हूं ।
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8. सूत्र 5 का व्याकरणिक विश्लेपण देखें । से (त) 1 / 1 सवि सयमेव [ ( सयं) + (एव) ] सयं (श्र) स्वयं एव (श्र) ही पुढविसत्यं [ ( पुढवि) - ( सत्य ) 2 / 1 ] समारंभति ( समारंभ ) व 3 / 1 सक ग्रेह (श्रण) 3 / 2 सवि वा (प्र) : | = या समारंभावेति ( समारंभ - आवे
→ समारंभावे) प्रेरक व 3 / 1 सक अ (श्रण) 2/2 सवि समारंभंते ( समारंभ ) वकृ 2 / 2 सम जाणति ( समणुजारा ) व 3 / 1 सक तं
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1. 'एतावंति' नपु. लिंग का बहुवचन है और यह 'समारंभा' (पु) का विशेषण है - विचारणीय है ( एतावत् एतावन्ति )
2. कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया विभक्ति के स्थान पर होता है (हैम प्राकृत व्याकरण: 3-134)
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