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16 से (त) 1 / 1 वित्त (त) 2 / 1 स सबुज्नमाणं (गंयुग्म ) यह 1 / 1 श्रायणीयं ( श्रायागीय) विधिक 2 / 1 प्रनि समुट्टाए (समुद्रा) विधि 1/1 श्रक सोच्चा (मोच्चा) संगृ, अनि भगवती (भगवतो) 5/1 पनि णगाराणं (पगार) 6/2 इमेगेसि ( ( ) - (गेम)] यहं (भ) = यहाँ. एगेन' (एग ) 6/2 वि जातं (पात) 1 / 1 वि भगत (भय) व 3/1 क एस (एत) 1 / 1 नवि सतु (प्र) = निश्चय ही गये (य) 7/1 मोहे (मोह) 7/1 मारे (मार) 7/1 निरए (निरम ) 7/1
16 से = वह | तं = उसको । संयुज्भमाणे = समनता हुमा । आपाणीय
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=
ग्रहण किये जाने योग्य को। समुट्ठाए = उठे । नोच्चा = सुनकर। भगवती = भगवान् से । अनगाराणं माधुयों के माधुयों में । इहगेति (डहं + एगेमि) = यहाँ कुछ के कुछ के द्वारा । नातं = नीगा हुया | भवति = होता है। एस = यह । यलु = निश्चय हो । गंये बन्धन में । मोहे = मूर्च्छा में । मारे = प्रनिष्ट में । निरए = नरक में ।
17 तं (तं) 2 / 1 सवि परिणाम ( परिगा) संकृ मेहावी ( महावि) 1) 1 विर्णव ( श्र) = कभी भी नहीं मयं (प्र) = स्वयं दज्जीवणिकायत्तत्यं [(छ) - ( ज्जीवणिकाय) - ( सत्य ) 2 / 1 ] समारभेज्जा ( समारंभ व 3 / 1 सकवणेह (व) + (हि) ] व (श्र) = कभी मी यावे नहीं । श्रहिं (अण्णा) 3/2 सवि. समारभावेज्जा ( नमारन समारभावे) प्रे. व 3 / 1 सक णेवणे ( ( रोव) + (श्रणे ) ] रोव (श्र) = कभी भी नहीं । श्रणे (प्रण्ण) 2 / 2 सगारभंते ( समारभ) वकृ 212 समगुजाणेज्जा (समरगुजारा ) व 3 / 1 सक
1. कभी-कभी पष्ठी विभक्ति का प्रयोग पंचमी विभक्ति के स्थान पर होता है । ( हम प्राकृत व्याकरण: 3-134 ) 2. कभी-कभी पष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया विभक्ति के स्थान पर होता है । (हैम प्राकृत व्याकरणः 3-134)
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