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घोषणा है कि प्राणियों के विकास में अन्तर होने के कारण किसी भी प्रकार के प्रारणी के अस्तित्व को नकारना ग्रपने ही अस्तित्व को नकारना है । प्राणी विविध प्रकार के होते हैं : एकेन्द्रिय, द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इन सभी प्राणियों को जीवन प्रिय होता है, इन सभी के लिए दुःख प्रिय होता है | श्राचारांग ने हिंसा - अहिंसा का विवेचन प्राणियों के सूक्ष्म निरीक्षण के आधार पर प्रस्तुत किया है, जो मेरी दृष्टि में एक विलक्षण प्रतिपादन है । ऐसा लगता है कि श्राचारांग मनुष्यों की संवेदनशीलता को गहरी करना चाहता है, जिससे मनुष्य एक ऐसे समाज का निर्माण कर सके जिसमें शोपरण, अराजकता, नियमहीनता, अशान्ति और आपसी संबंधों में तनाव विद्यमान न रहे। मनुष्य अपने दुःखों को तो ग्रनुभव कर ही लेता है, पर दूसरों के दुःखों के प्रति वह संवेदनशील प्रायः नहीं हो पाता है । यही हिंसा का मूल है । जब दूसरों के दुःख हमें अपने जैसे लगने लगें, जब दूसरों की चीख हमें अपनी चीख के समान मालूम हो, तो ही अहिंसा का प्रारम्भ हो सकता है । मनुष्य को अपने सार्वकालिक सूक्ष्म अस्तित्व में सन्देह न रहे, इस बात को समझाने के लिए पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त से ही ग्रंथ का प्रारम्भ किया गया है । अपने सूक्ष्म अस्तित्व में सन्देह नैतिक-प्राध्यात्मिक मूल्यों को ही सन्देहात्मक बना देगा, जिससे व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन की आधारशिला ही गड़बड़ा जायगी। इसीलिए श्राचारांग ने सर्वप्रथम स्व-अस्तित्व एवं प्राणियों के अस्तित्व के साथ क्रियाओं एवं उनसे उत्पन्न प्रभावों में विश्वास उत्पन्न किया है । ये सभी व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन को वास्तविकता प्रदान करते हैं और इनके ग्राधार पर ही मूल्यों की चर्चा सम्भव वन पाती है ।
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[ आचारांग