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हिंसा छोड़ दी गई है । (जिनकी) चित्तवृत्तियाँ समाप्त हुई (है), (ऐसे) (अनासक्त) मनुष्य अध्यात्म के जानकार (होते हैं) और (वे) सरल (अकुटिल) (होते हैं) । दुःख हिंसा से उत्पन्न होता है), इस प्रकार इस (वात) को जानकर (मनुष्य अनासक्ति का अभ्यास करे)। ऐसा समत्वदर्शियों ने कहा । इस प्रकार कर्म- (समूह) को सब प्रकार से जानकर वे सभी कुशल व्याख्याता दुःख के
(कारणभूत) ज्ञान का कथन करते हैं। 76 है (समतादर्शी की) आज्ञा (पालन) के इच्छुक, बुद्धिमान्
(व्यक्ति) ! (त) यहाँ अनासक्त (हो जा), अनुपम श्रात्मा को (ही) देखकर (कर्म)-शरीर को दूर हटा, अपने को नियन्त्रित कर (और) आत्मा में घुल जा।। जैसे अग्नि जीर्ण (सूखी) लकड़ियों को नष्ट कर देती है, इसी प्रकार प्रात्मा में लीन, अनासक्त (व्यक्ति) (राग-द्वेष
को नष्ट कर देता है)। 77 आयु सीमित (है); इस (वात) को समझकर (तू) निश्चल
रहता हुया क्रोध को छोड़ । और (आसक्ति से) आगामी अथवा (वर्तमान) दुःख को (तू) जान । तथा (आसक्त) (मनुष्य) विभिन्न दुःखों को प्राप्त करता है । और (दुःखों से) तड़फते हुए लोक को (तू) देख। जो पाप कर्मों से मुक्त (है),वे निदानरहित (स्वार्थपूर्ण प्रयोजनरहित) कहे गये (हैं)। इसलिए महान् ज्ञानी (अनासक्त होते हैं)। (तू) (उनका अनुसरण कर) (और) (इन्द्रियों को) उत्त
जित मत कर, इस प्रकार मैं कहता हूं। 78 (जो) परिसीमित (संयमित) नेत्रों (इन्द्रियों) के होने पर
(भी) इन्द्रियों के प्रवाह में आसक्त (हो जाता है), (वह) चयनिका ]
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