Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharang Sutra Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 184
________________ → ध्यान करते थे । घरमत्ये = सर्वज्ञ | वि= भी। विप्परक्कममाणे ण नहीं । पमायं = प्रमाद ( को ) । = - साहस के साथ करते हुए । सई = एकवार | पि = भी । कुव्वित्या किया | 3 129 सयमेव [ ( सयं) + (एव) ] सयं ( अ ) = स्वयं एव ( अ ) = ही प्रनिसमागम्म (अभिसमागम्म) संकृ अनि आयतजोगमायसोहीए [ ( श्रायत ) + (जोगं) + (प्राय) + सोहिए ) ] [ ( श्रायत) वि - (जोग) 2 / 1] [ ( श्राय) - सोहि ) 3 / 1] अभिणिव्वुडे [ श्रभिणिव्वुड) 1 / 1 वि अमाइल्ले ( माइल्ल) 1 / 1 वि श्रावकहं (श्र) = जीवन - पर्यन्त भगवं ( भगवं) 1 / 1 समितासी [ ( समित) + (ग्रासी)] समित' (समित) मूल शब्द 1 / 1 आसी (अस) भू 3/1 अक 129 सयमेव ] ( सयं) + एव ) ] = स्वयं ही । अभिसमागम्म = प्राप्त करके । आयतजोगमायसोहीए [ ( श्रायत) + (जोगं) + (प्राय) + (सोहीए ) ] संयत, प्रवृत्ति को, ग्रात्म शुद्धि के द्वारा । अभिणिव्वुडे = शान्त । अमाइल्ले = सरल | श्रावकहं = जीवन पर्यन्त । भगवं= भगवान् । समितासी [ ( समित) + (ग्रासी)] समतायुक्त, रहे । 1. किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है । [ पिशल : प्राकृत भाषात्रों का व्याकरण, पृष्ठ 517] [मेरे विचार से यह नियम विशेषण पर भी लागू किया जा सकता है। आसी अथवा ग्राम सभी पुरुषों और वचनों में भूतकाल में काम याता है | [ देखें गाथा 101] 152 ] [ आचारांग

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