Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharang Sutra Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 187
________________ मक्खी, भँवरा आदि) । कुछ जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु प्रोर कर्ण - पांच इन्द्रियाँ होती है (मनुष्य, पशु, पक्षी, श्रादि) । परम आत्मा या समतादर्शी वह है जिसने आत्मोत्थान में पूर्णता प्राप्त करली है, जिसने काम, क्रोधादि दोषों को नष्ट कर दिया है, जिसने ग्रनन्तज्ञान, प्रनन्तराशि, और अनन्तसुख प्राप्त कर लिया है तथा जो सदा के लिए जन्ममरण के चक्कर से मुक्त हो गया है । लोक यह लोक छह द्रव्यमयी है। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, और जीव इन छह द्रव्यों से निर्मित है । यह अनादि है तथा नित्य है । जीव चेतन द्रव्य है तथा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल अचेतन द्रव्य है । - जिसमें रूप, रस, गंध श्रीर स्पर्श-ये चार गुण पाये जाते जाते हैं वह पुद्गल हे । सव दृश्यमान पदार्थ पुद्गलों द्वारा निर्मित है। पुद्गल द्रव्य के दो भेद हैं: 1. परमाणु और 2. स्कंध | दो या दो से अधिक परमाणुओं के मेल को स्कंघ कहते हैं । जो पुद्गल का सबसे छोटा भाग है, जिसे इन्द्रियां ग्रहण नहीं कर सकती है, जो विभागी है, वह परमाणु है । परमाणु श्रविनाशी है । परमाणुओं के विभिन्न प्रकार के संयोग से नाना प्रकार के पदार्थ बनते हैं । जो जीव व पुद्गल की गमन क्रिया में सहायक होता है वह धर्म द्रव्य है । यह उसी प्रकार क्रिया में सहायक होता है जिस प्रकार मछलियों को चलने के लिए जल । जैसे हवा दूसरी वस्तुओं में गमन क्रिया उत्पन्न कर देती है, वैसे धर्म द्रव्य गमनक्रिया उत्पन्न नहीं करता है । वह तो गमनक्रिया का उदासीन कारण है, न कि प्रेरक कारण । जो स्वयं चल रहे हैं उन्हें बलपूर्वक नहीं चलाता है । धर्म द्रव्य रूप, रस, गंध आदि स्पर्श रहित होता है । जो जीव व पुद्गल की स्थिति में उसी प्रकार सहायक होता है जिस प्रकार चलते हुए पथिकों के ठहरने में छाया । यह चलते हुए जीव व पुद्गल को ठहरने की प्रेरणा नहीं करता है, किन्तु स्वयं ठहरे हुयों के ठहरने में चयनिका ] [ 155

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