Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharang Sutra Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 188
________________ उदासीन रूप से कारण होता है । यह रूप, रसादि रहित होता है। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि यहां वर्म का अर्थ पुण्य और अधर्म का अर्थ पाप नहीं है । ये दोनों रूप रसादि रहित अखण्ड द्रव्य हैं। जो जीवादि द्रव्यों के परिणमन में सहायक है वह काल है। प्रत्येक द्रव्य परिणामी-नित्य होता है। द्रव्य के परिणमन में काल द्रव्य सहायक होता है। सैकिंड, मिनट, घण्टा दिन प्रादि व्यवहार, तथा युवावस्था, वृद्धावस्था, नवी. नता और प्राचीनता, गमन, आदि व्यवहार जिससे होता है वह व्यवहारकाल है । यह क्षणभंगुर और पराश्रित है । परमार्थ काल नित्य और स्वाधित है। जो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, और काल को स्थान देता है वह आकाश है । यह आकाश एक है, सर्वव्यापक है, अखण्ड है और रूप रसादि गुणों से रहित है । जहाँ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल द्रव्य रहते हैं वह लोकाकाश है और इससे परे अलोकाकाश । कर्म-क्रिया जैन-दर्शन के अनुसार सव आत्माएं मूलतः सिद्ध समान है। उनमें स्वरूप अपेक्षा कोई वैषम्य नहीं है । जगत् में राग-द्वेषात्मक अवस्थाओं का कारण कर्म है । जीव के राग-द्वेष आदि भाव 'भाव' कर्म और इनके फलस्वरूप जीव की ओर आकृष्ट होकर निवटने वाले कर्म-पुद्गलों को 'द्रव्य' कर्म कहते हैं । जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। किन्त, जव आत्मा को अपनी शक्ति का भान हो जाता है तो कर्म वलहीन हो जाते हैं और एक दिन वह आत्मा कर्मो पर विजय प्राप्त करके समत्व को प्राप्त कर लेता है। कपाय सहित, मन, वचन, और काय की क्रियाएं कर्मों के वन्वन का कारण होती हैं, जैसे गीला कपड़ा वायु के द्वारा लाई हुई धूल को चारों ओर से चिपटा लेता है, उसी तरह कपायरूपी जल से गीली आत्मा मन, वचन और काय की क्रियाओं द्वारा लाई गई कर्म-रज को चिपटा लेता है। अहिंसात्मक क्रियाएं शुभ होती हैं और हिंसात्मक क्रियाएं अशुभ होती हैं । 156 ] [ याचारांग

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