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से विरत (थे), उचित प्रकार से लोक को जानते हुए (स्थित थे), अतः वे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण (दिशा) में सत्य में
स्थित हुए। 81 उसकी (मूच्छित की) इच्छाएं तीन (होती हैं)। इसलिए वह
अनिष्ट/ अहित के समीप (होता है)। चूकि वह अनिष्ट अहित के समीप (होता है), इसलिए वह (समता/शांति से)
दूर (होता है)। 82 वह (अनासक्त मनुष्य) (अहित के) समीप नहीं (होता है),
(इसलिए) वह (शान्ति/समता से) दूर नहीं (रहता है)। वह (जीवन को) कुश के नोक पर वायु द्वारा हिलते हुए, नीचे गिरते हुए (तथा) मिटाए हुए (जल) विन्दु की तरह देखता है । अज्ञानी और मूर्ख के द्वारा जीवन इस प्रकार (नहीं देखा जाता है); (उसके द्वारा) (ऐसा) नहीं जानने से (वह)
(सदैव) (मूच्छित बना रहता है)। 83 (संसार के विषय में) संशय को समझने से संसार जाना
हुया (होता है), (संसार के विषय में) संशय को नहीं सम
झने से संसार जाना हुआ नहीं होता। 84 (जो) प्रमाद (विषमता) नहीं करता है, (वह) (समता में)
प्रगति किया हुआ (होता है)। 85 (तुम) इस देह-संगम को देखो। (यह) (किसी के) पहले
छूटा (या) (किसी के) बाद में छूटा (किन्तु यह छूटता अवश्य है)। (इसका) (तो) नश्वर स्वभाव (है), (इसका) (तो) स्वभाव विनाश (मय) (है), यह अध्रव (है), अनित्य (है), प्रशाश्वत (है), वढने (वाला) और क्षय वाला है,
(तथा) परिणमन (इसका) स्वभाव (है)। 86 इस लोक में जितने (भी) (मनुष्य) परिग्रह-युक्त (हैं), (वे) चयनिका ]
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