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अज्ञानी (होता है)। (इसके फलस्वरूप) (उसके) कर्म-वन्धन विना टूटे हुए (रहते हैं) (और) (उसके) (विभाव) संयोग विना नष्ट हुए (रहते हैं)। (इन्द्रिय विपयों में रमने की आदत के वशीभूत होकर) (धीरे-धीरे) (वह) अन्धकार (इन्द्रिय आसक्ति) के प्रति अनजान (होता जाता है)। (ऐसे व्यक्ति के लिए) (समतादर्शी के) उपदेश का (कोई) लाभ नहीं (होता है)। इस प्रकार मैं कहता हूं। जिसके पूर्व में (स्थित) (प्रासक्तियाँ) (तथा) (उनके कारण) बाद में (होने वाली इच्छाएँ) विद्यमान नहीं हैं (समाप्त हो चुकी हैं), उसके मध्य में (आसक्तियाँ) कहाँ से होंगी? वह (ऐसा व्यक्ति) ही प्रज्ञावान, बुद्ध और हिंसा से विरत (होता
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इस प्रकार तुम (सव) समझो (कि) यह सत्य (है)। जिस (आसक्ति) के कारण (व्यक्ति) कर्म-बन्धन को (ग्रहण करता है), हत्या और निर्दयता में (रत रहता है) और घोर दुःख (पाता है), (उस) (आसक्ति के कारण) वाहर की ओर (जाने वाली) ज्ञानेन्द्रिय समूह को ही (विषयों से) हटाकर (व्यक्ति) (चले)। और (वास्तव में) यहाँ मनुष्यों में से (अपने में ही) निष्कर्म (कर्मरहित अवस्था) को अनुभव करने वाला (ज्ञानी होता है)।। (सदैव) कर्म के साथ (रहने वाले) (सुख-दुःखात्मक) फल को देखकर समझदार (व्यक्ति) (शिक्षा ग्रहण करता है) (और)
इसलिए (वह) (अपने को) (ग्रासक्ति से) दूर ले जाता है। 80 अरे ! जो निश्चय ही वीर (2), रागादिरहित (थे), हित
कारी (थे), जितेन्द्रिय (थे), गहरी अनुभूति वाले (थे), शरीर चयनिका ]
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